Chapter 3
शुक्रवार : सत्ताईस दिसम्बर
सुबह विमल नर्सिंग होम के रिसेप्शन पर बैठा अखबार पढ रहा था ।
अखबार में दिल्ली - बहादुरगढ रोड पर नीली मारुति के गिर्द पड़ी तीन लाशों की और टूटे अंडों से लिथड़ी हेरोइन की, विष्णु मार्डन की ज्वैलरी शॉप पर पड़ी डकैती की कोशिश की, खेल गांव में पुलिस द्वारा पर्स स्नैचर की गिरफ्तारी की और आधी रात को गोल मार्केट में हुई गोलीबारी की खबरें थीं लेकिन ढक्कन की लाश की बरामदगी की खबर नहीं थीं ।
यानी कि अखबार के लोकल एडीशन के प्रैस में जाने तक वो लाश बरामद नहीं हुई थी । रात का अन्धेरा छंट जाने पर पर तो लाश यकीनी तौर से बरामद हो जानी थी, तब उस बाबत खबर शाम के अखबारों में ही छप सकती थी ।
वो सोचने लगा ।
क्या अखबार में छिपे बिना गुरबख्शलाल एण्ड कम्पनी को ढक्कन की मौत की खबर लग सकती थी ?
बात असम्भव तो नहीं थी लेकिन एकदम आसान भी नहीं थी ।
उसने एक रिस्क लेने का फैसला किया । 
वो नीलम के कमरे में पहुंचा ।
नीलम ने बड़े स्निग्ध भाव से उसका तरफ देखा ।
विमल ने उसका हाथ थाम लिया और उसे सहलाता हुआ मीठे स्वर में बोला - “कैसी तबीयत है ?”
“ठीक ।” - वो बोली - “तुम्हारे होते मुझे क्या हो सकता है ?”
“मै थोड़ी देर के लिये घर जाता हूं । नहा-धो के कपड़े बदल के लौटता हूं । बस गया और आया ।”
“जब मर्जी आना, सरदार जी...”
“श श । कम-से-कम यहां तो अक्ल कर ।”
“मैं ठीक हूं । जब मर्जी आना ।”
विमल वहां से जाने ही लगा था कि सुमन वहां पहुंच गयी ।
“चाय लायी हूं ।” - वो बोली ।
“क्यों जहमत उठाई ?” - विमल बोला - “रात की ड्यूटी की थी । आराम करना था ।”
“रात की ड्यूटी ज्यादा सख्त नहीं होती । ट्रक एक्सचेंज में ही आराम हो जाता है ।”
“फिर भी...”
“आप कहां जा रहे थे ?”
“जरा घर...”
“बैठिये । चाय पी के जाइयेगा ।”
विमल को मजबूरन बैठना पड़ा ।
तीनों में चाय बंटी ।
“रात को” - सुमन बोली - “पीछे गोल मार्केट में तो बहुत हंगामा हो गया ?”
“क्या हुआ ?” - नीलम ने पूछा ।
“पड़ोसी बता रहे थे कि खूब गोलियां चली वहां । कोई कहता है डाकू आ गये थे, कोई कहता है उग्रवादी आ गये थे, कुछ लोग ये भी कहते हैं कि पुलिस ने ही किसी मुगालते में ढेरों गोलिया चला दी थीं । अखबार में भी छपा है । आपने पढा ?”
विमल को तत्काल न सूझा कि सवाल उससे हुआ था ।
“नहीं ।” - फिर वो हड़बड़ाकर बोला - “अभी तो नहीं पढा ।”
“लेकिन अखबार में भी जो छपा है, गोलमोल ही छपा है ।” - सुमन बोली - “असल में जो भगवान ही जाने क्या हुआ था ?”
विमल ने खामखाह सहमति में सिर हिलाया ।
“आप रात को घर नहीं थे ?”
“न ।”
“घर गये ही नहीं ?”
“न । मैं तो यहीं सोया रात को ।”
“तभी तो ।”
“बस, अब घर जा रहा था ।”
“आप हो के आइये । मैं यहां बैठती हूं ।”
“क्यों नाहक तकलीफ....”
“क्यों नाहक तकलीफ !” - सुमन उसके स्वर की नकल करती हुई बोली ।
विमल की हंसी छूट गयी । नीलम भी हंसी ।
फिर विमल वहां से बाहर निकला । रिसेप्शन के दरवाजे पर पहुंचा तो उसे नर्सिंग होम की पार्किग में खड़ी एक बन्द जीप में मुबारक अली के खासुलखास दोनों जुड़वें भाई अली मोहम्मद, वली मोहम्मद बैठे दिखाई दिये ।
विमल लम्बे डग भरता जीप के करीब पहुचा ।
“रात से यहीं हो ?” - वो बोला ।
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया ।
“सोये ?”
पहले एक का सिर सहमति में हिला और फिर दूसरे का ।
“ऐसे कैसे बीतेगी ?” - विमल बोला ।
कोई उत्तर न मिला ।
“हथियारबन्द हो ?”
दोनों ने अपनी-अपनी जैकेटें खोलकर विमल को अपने-अपने हथियार के दर्शन कराये ।
दोनों के पास भारी रिवाल्वरें थीं ।
“मैंने न्यू राजेन्द्रनगर जाना है एक जगह । तुम जीप पर मेरे पीछे आओगे या मैं ही जीप में बैठ जाऊं ?”
दोनों की निगाहें मिलीं । फिर एक ने हाथ बढाकर जीप का पिछला दरवाजा खोल दिया । विमल के जीप में सवार होते ही दूसरे ने जीप स्टार्ट करके आये बढा दी ।
वो न्यू राजेन्द्रनगर पहुंचे ।
कुशवाहा की कोठी तलाश करने में उसे कतई कोई दिक्कत नहीं हुई । उसने जीप को एक बार कोठी के सामने से गुजार ले जाने को आदेश दिया ।
वो एक छोटी-सी कोठी थी जिसके सामने एक एम्बेसेडर कार खड़ी थी और उस घड़ी एक काला-सा आदमी कार को कपड़ा मार रहा था । वो बात कुशवाहा के घर में होने की सम्भावना व्यक्त करती थी ।
“मैंने उस” - विमल बोला - “खाली प्लाट की बगल में बनी सफेद वाली कोठी के भीतर जाना है । भीतर जा पाऊंगा या नहीं, ये मुझे अभी नहीं मालूम । मैंने वहां कुशवाहा नाम के एक ऐसे आदमी से मिलना है जो हो सकता है मुझे पास भी न फटकने दे । वो मिलने को राजी हो गया या मैंने राजी कर लिया तो भीतर मुझे बड़ी हद दस मिनट लगेंगे । अपने साथ मैं तुम्हें नहीं ले जा सकता । अकेले जाने से ही मुलाकात की कोई उम्मीद है । बहरहाल दस मिनट में अगर मैं तुम्हें वपिस सड़क पर न दिखाई दूं तो जो तुम्हारे जी में आये करेगा । ओके ?”
दोनों के सिर सहमति में हिले ।
“अब कोई हथियार मुझे दो ।”
एक भाई ने जीप की ड्राइविंग सीट सरकाकर उसके नीचे से कहीं से एक रिवाल्वर बरामद की और विमल को सौंपी ।
विमल ने रिवाल्वर को चैक किया और उसे अपने कोट की दाई जेब में डाल लिया । वो कुशवाहा की कोठी के करीब पहुंचा ।
एम्बेसेडर को कपड़ा मरते कालू ने अपना हाथ रोका और सन्दिग्ध भाव से विमल की तरफ देखा ।
“क्या है ?” - फिर वह बड़ी रूखाई से बोला ।
“तमीज से बात कर ।” - विमल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या है ?” - कालू ने फिर पूछा, तमीज के नाम पर उसके लहजे में उन्नीस-बीस का ही फर्क आया था ।
“कुशवाहा साहब घर में हैं ?”
“क्यों पूछता है ?”
“बोला न तमीज से बात कर ।”
“क्यों पूछते हो ?”
“उनके लिये सन्देशा है ।”
“किसका ?”
“ढक्कन का ।”
क्या सन्देशा है ?
“सन्देशा कुशवाहा साहब के लिये है ।”
“क्या सन्देशा है ?” - कालू जिदभरे स्वर में बोला ।
“मेरे को सन्देशा किसी क्लीनर को दे आने के लिये कोई नहीं बोला ।”
“मैं क्लीनर हूं ?” - वो आंखें निकालकर बोला ।
“क्लीनर वाला काम कर रहा है तो क्लीनर ही होगा ।”
“नाम बोलो ।”
“घड़ीवाला ।”
“कारोबार नहीं पूछा, नाम पूछा है ।”
“नाम ही बोला है, ईडियट ।”
कालू ने तिलमिलाकर विमल की तरफ देखा, फिर विमल के चेहरे पर कोई शिकन न आती पाकर बोला - “इधर यहीं ठहरो ।”
“मुझे बोला गया था” - विमल दबे स्वर में बोला - “कि मेरा कुशवाहा साहब की कोठी के इर्द-गिर्द मंडराते देखा जाना ठीक न होगा ।”
कालू हिचकिचाया, वो कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “आओ ।”
विमल उसके पीछे चल पड़ा । यार्ड और बरामदे में उसके पीछे चलता वो एक ड्राइंगरूम में पहुंचा जहां सूरत से दादा लगने वाले दो आदमी बैठे टी वी पर वीडियो फिल्म देख रहे थे ।
जरूर बाडीगार्ड हैं - विमल ने मन-ही-मन सोचा ।
“नया पंछी है ।” - कालू उन दोनों से बोला - “निगाह रखना ।”
दोनों के सिर सहमति में हिले । टी वी स्क्रीन से हटकर उनकी निगाहें विमल पर टिक गयीं । किसी ने उसे बैठने को न कहा । विमल निर्विकार भाव से कोट की जेबों में हाथ डाले खड़ा रहा ।
कालू ड्राइंगरूम के पृष्ठ भाग में बना एक बन्द दरवाजा खोलकर उसके पीछे गायब हो गया ।
थोड़ी देर में कालू वापिस लौटा तो उसके साथ एक कोई पैंतालीस साल का, कठोर चेहरे वाला अधगंजा व्यक्ति था ।
तो ये है कुशवाहा ! - विमल ने गौर से उसे देखते हुए मन-ही-मन सोचा ।
“क्या है ?” - कुशवाहा बोला ।
“कुशवाहा साहब ?” - विमल बड़े अदब से बोला ।
“हां । कौन हो तुम ?”
“अपुन ढक्कन का दोस्त है ।”
“ढक्कन कहां है ?”
“वो अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“अब ? ‘अब’ इस दुनिया में नहीं है ?”
“जी हां । एक घण्टा पहले वो गॉड आलमाइटी को प्यारा हो गया ।”
“एक घण्टा पहले ?”
“जी हां !”
“सुनो । क्या नाम बताया तुमने अपना ?”
“घड़ीवाला ।”
“जो कहना है एकबारगी कहो । किस्तों में मत बोलो । समझे ?”
“जी हां । साहब, वो क्या है कि अपुन बम्बई से है । आजकल इधर है । ढक्कन अपुन का जिगरी है । आप लोग उसको जो काम बोला, वो उसको डिफीकल्ट पड़ रहा था, तो वो अपुन का मदद मांगा ।”
“कौन-सा काम ?”
“उस कौल नाम के बाबू को खलास करने का काम । ढक्कन दो बार ट्राई मारा पण ट्राई पिट गया । ढक्कन ही मेरे को बताया कि पहले वो मंगल रात को चारी आदमी लेकर पंडारा रोड उस बाबू को काबू करने के वास्ते गया, पण उसका चारों आदमी मारा गया और ढक्कन खुद बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भागा । फिर परसों रात को अपना माफिक एक प्रोफेशनल किलर वीर बहादुर को ढक्कन उदर उस कौल बाबू का घर भेजा पर वो ट्राई भी वेस्ट गया । वो साला किलर ही किल हो गया ।”
“ये सब ढक्कन ने किया ?” - कुशवाहा हैरानी से बोला ।
“अपुन अपनी आईज से तो देखा नहीं, पण वो बोला ऐसा ।”
कुशवाहा सोच में पड़ गया ।
विमल ने अपना दायां हाथ जेब से बाहर निकाला । उसके ऐसा करने का उपक्रम करते ही दोनों बाडीगार्ड चौकन्ने हो गये थे और उनके हाथ उनके शोल्डर होल्डरों में बड़ी रिवाल्वरों की मूठ पर पहुंच गये थे लेकिन जब उन्होंने विमल के हाथ में पाइप देखा तो उनके हाथ रिवाल्वरों पर से हट गये ।
“मे आई, सर ।” - विमल बड़े अदब से बोला ।
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया ।
विमल ने पाइप होंठों में दबाया । उसने फिर जेब में हाथ डाला तो बाडीगार्डों ने कोई हरकत न की लेकिन ज्यों ही उसने हाथ बाहर खींचना आरम्भ किया तो वो पहले की तरह फिर सावधान की मुद्रा में पहुंच गये ।
उस बार विमल के हाथ में माचिस थी ।
बाडीगार्डों ने फिर रिवाल्वरों पर से हाथ हटा लिये ।
विमल ने पाइप सुलगा लिया । उसने माचिस अपने कोट की दाईं जेब में डाली और हाथ वहीं रहने दिया ।
“साहब” - विमल आगे बढा - “तब कल रात ढक्कन मेरे कू मदद कू बोला । अपुन जरा डेयरिंग स्कीम बनाया । अपुन कौल के फ्लैट का लाक पिक किया और कौल की वेट में उसके फ्लैट में ढक्कन के साथ भीतर जा कू बैठा । कब्बी बी कौल उदर ऐन्ट्री लेता तो खलास होता । ईजी ।”
“आया वो ?”
“नहीं आया । अक्खी रात वेट किया, पण नहीं आया ।”
“तू और ढक्कन सारी रात कौल के फ्लैट में थे ?”
“बरोबर ।”
“कहां है कौल का फ्लैट ?”
“गोल मार्केट । कोविल मल्टी स्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स । सैवन्थ फ्लोर ।”
“रात उधर कोई गैरमामूली बात हुई हो ?”
“क्या बोला, साहब ?”
“कोई ऐसा वाकया हुआ हो जो अमूमन रिहायशी इलाकों में नहीं होता ?”
“अपुन फालो किया, साहब । बरोबर फालो किया । उदर तो, साहब, बहुत हंगामा हुआ मिडनाइट के बाद । साला सडनली ऐसा शूटिंग शुरू हुआ जैसे वार छिड़ गया हो । कितना ही टेम उदर बुलेट ही बुलेट चला । पुलिस का सायरन बोला तो हंगामा बन्द हुआ ।”
कुशवाहा के चेहरे पर आश्वासन के भाव आये ।
“फिर ?” - इस बार वो अपेक्षाकृत आत्मीयतापूर्ण स्वर में बोला - “फिर क्या किया तुमने और ढक्कन ने ?”
“साहब, अपुन मार्निंग तक वेट किया । फिर अपुन उदर से नक्की किया और उदर का वाचमैन से डायलाग किया तो मालूम पड़ा कि कौल का वाइफ बीमार था और वो जरूर उदर हास्पीटल में अपना वाइफ का बाजू में था । अपुन हास्पीटल पूछा तो वाचमैन लिंक रोड के एक प्राइवेट नर्सिंग होम का नाम बोला । अपुन और ढक्कन उदर पहुंचा तो कौल उसी मूमेंट वहां से आउट आ रहा था । अब अपुन तो कौन को पहचानता नहीं था, ढक्कन पहचानता था, वो उसको देखते ही गन निकाल लिया जो कि वो मिस्टेक मारा । उसकी हड़बड़ी से कौल सावधान हो गया और वो साला ढक्कन को पहले शूट कर दिया । अपुन उदर से इमीजियेटली आन दि डबल रन न लिया होता तो अपुन भी खलास था ।”
“तू... तू वहां से भाग खड़ा हुआ ?”
“और क्या करता, साहब ? ढक्कन जल्दबाजी किया । अपुन एक्सपोज हो गया । ऊपर से ढक्कन अपुन को ये नहीं बोला कि कौल आर्म्ड होगा, और ऊपर से ये नहीं बोला कि वो इतना डेन्जरसली फुर्तीला होगा जितना सचमुच का कोई बाबू होता नहीं । साहब, भागना पड़ा । गलती ढक्कन का था । वो जल्दबाजी किया । अपुन एक्सपोज हो...”
“खैर, खैर । फिर ? फिर क्या हुआ ?”
“साहब, थोड़ी देर बाद अपुन उदर बैक मारा । तब अपुन देखा कि ढक्कन अभी मरा नहीं था । साहब, तब ढक्कन मरने से पहले वो मैसेज बोला जो मैं आपकू देने कू आया ।”
“क्या बोला वो ?”
“पहला तो वो सारी बोला कि उसका इतना एफर्ट वेस्ट गया । वो कौल कू खलास करने कू आनेस्ट टु गॉड इतना एफर्ट किया पण वेस्ट गया । फिर वो बोला... साहब, फ्रीली बोलूं ?”
“हां ।”
“इन लोगों के सामने ?”
“हां । ये सब अपने हैं और भरोसे के हैं ।”
“साहब, सन्देशा खतरनाक है ।”
“अब बोल भी, भई ।”
“साहब, वो ढक्कन को बोला कि अब वो कुशवाहा को खलास करने जा रहा था ।” 
“उसे मेरा नाम, मेरा पता कैसे मालूम हुआ ?” - कुशवाहा तनिक हड़बड़ाये स्वर में बोला ।
“ढक्कन बताया । वो इन्जर्ड ढक्कन को टार्चर किया तो ढक्कन कू बोलना पड़ा ।”
“ढक्कन ने उसे मेरी बाबत ही बताया । और किसी की बाबत... मसलन लाल साहब की बाबत नहीं बताया ?”
“मालूम नहीं, साहब । अपुन को तो ढक्कन आप ही का नाम-पता बोला और मेरे कू इदर आ के आपको वार्न करने कू बोला । साहब, वो बाबू... वो कौल... ढक्कन के बाद आप कू खलास करना मांगता है ।”
“मेरे को खलास करना मांगता है ?” - कुशवाहा ने अट्टहास किया - “सुना भाई लोगो ?”
उसके चमचों ने यूं ही हंसी में उसका साथ दिया जैसे भारी मजाक की बात सुन ली हो ।
“वो” - कुशवाहा बोला - “यहां आयेगा, मुझे शूट करेगा और चलता बनेगा ?”
“वो ऐसा ही बोला, साहब ।” - विमल विनयशील स्वर में बोला ।
“मेरे इन बाडीगार्डों का क्या होगा ? इन्हें वो फूंक मार के उड़ा देगा ?”
“अपनु को क्या मालूम, साहब ?”
“आया तो है नहीं वो यहां ?”
“कौन कहता है ?”
“क्या ?”
“कि वो यहां नहीं आया है !”
विमल ने अपनी जेब में से हाथ निकाले बिना फायर किया । गोली उसके कोट की जेब को भेदती हुई कालू को जा के लगी जो कि सबसे आगे था । कालू के मुंह से एक चीख निकली, वो पीछे को लड़खड़ाया और दोनों बाडीगार्डों पर जाकर गिरा । जब तक बाडीगार्ड उसको परे धकेलकर सीधे हुए तब तक विमल ने रिवाल्वर निकालकर उनकी ओर तान दी ।
“खबरदार !” - विमल बड़े हिंसक भाव से बोला ।
सबको जैसे सांप सूंघ गया ।
विमल ने पाइप मुंह से निकाल लिया ।
“इसे उठाओ ।” - धराशायी कालू की तरफ इशारा करता हुआ वो बाडीगार्डों से बोला ।
बाडीगार्डों ने कुशवाहा की तरफ देखा ।
विमल ने फायर किया । गोली कुशवाहा के कान को हवा देती गुजर गयी । तत्काल कुशवाहा का सिर मशीन की तरह सहमति में हिलने लगा ।
तत्काल दोनों बाडीगार्डों ने कालू को उठाया ।
“जिन्दा है ।” - विमल बोला - “इसलिये जिन्दा है क्योंकि मैंने इसे मारा नहीं ।”
“डाक्टर को बुलाना होगा ।”
“बाद में । मेरे चले जाने के बाद । उठाओ ।”
“ये तब तक मर जायेगा ।”
“तुम इससे पहले मरना चाहते हो ?”
उन्होंने तत्काल घायल कालू को उठाया । विमल के इशारे पर वो उसे पिछले दरवाजे की ओर बढे जिसमें से कुशवाहा प्रकट हुआ था ।
वो एक बैडरूम का दरवाजा निकला ।
वे सब वहां पहुंचे । बाडीगार्डों ने कालू को पलंग पर डाल दिया ।
“तुम दोनों” - विमल ने आदेश दिया - “मेरी तरफ पीठ करके अपनी रिवाल्वरें निकालो और उन्हें फर्श पर डाल दो ।”
आदेश का पालन हुआ । रिवाल्वरें उनसे जुदा हो गयीं तो विमल ने उनके करीब जाकर उनके शरीर थपथपाकर तसल्ली की कि उनके पास और कोई हथियार नहीं था । फिर उसने घायल कालू के पास से भी एक रिवाल्वर बरामद की ।
“कुशवाहा !” - विमल बोला - “तुम मेरे साथ बाहर ड्राइंगरूम में जा रहे हो । अपने चमचों को समझा दो कि इन्होंने यहीं रहना है और कोई बेजा हरकत नहीं करनी है । तुम ज्यादा तजुर्बेकार दादा हो इसलिये ऐसे मौकों पर और भी जो कुछ समझाया जाता है, इन्हें समझा दो ।”
“ये वैसे ही सब समझते हैं ।” - कुशवाहा शान्ति से बोला ।
“गुड ! बाहर चलो ।”
कुशवाहा को कवर किये किये वो बैडरूम से बाहर निकला । उसने बैडरूम का दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया । 
दोनों ड्राइंगरूम में पहुंचे ।
“तो” - कुशवाहा बोला - “तुम होते हो, सोहल ?”
“कोई एतराज ?” - विमल बोला ।
“ढक्कन जिन्दा तो होगा नहीं ?”
“मेरी मौत का ख्वाहिशमन्द आदमी भला कैसे जिन्दा होगा ?”
“देखो ! तुम बाहर से आए हुए आदमी हो इसलिये हमारी ताकत को नहीं पहचानते हो । इसलिये अनजाने में वो मच्छर बन बैठे हो जो शेर की नाक पर भिनभिनाने लगता है । मच्छर शेर का कुछ बिगाड़ नहीं सकता । वो सिर्फ उसे परेशान कर सकता है...”
“दादा लोगों के ऐसे डायलाग मैंने बहुत सुने हैं । जैसे तुम गुरबख्शलाल के खासुलखास हो ऐसे ही बम्बई में राजबहादुर बखिया का खासुलखास मुहम्मद सुलेमान हुआ करता था । वो भी ये ही जुबान बोलता था । मच्छर और शेर वाली । अब बेचारा जन्नतनशीन है । वो भी और उसका बाप बखिया भी ।”
“यहां कोई जन्नतनशीन होगा तो वो तुम होगे । तुम हमें परेशान करने से बाज नहीं आओगे तो हम तुम्हारे पीछे पड़े रहेंगे फिर नतीजा जो होगा, वो तुम सोच ही सकते हो ।”
“नतीजे की बात हम बाद में करेंगे, जूनियर खलीफा, पहले अपनी एक गलतफहमी दूर कर लो । तुम मेरे पीछे नहीं पड़े हुए हो, मैं तुम्हारे पीछे पड़ा हुआ हूं । तुम्हारे और तुम्हारे सीनियर खलीफा गुरबख्शलाल के पीछे ।”
“तुम उसके पास भी नहीं फटक पाओगे ।”
“क्यों ? तुम्हारे पास नहीं फटका मैं ?”
“मेरी बात और है ।”
“तुम वो मसला छोड़ो । वो मेरी फिक्र है । मैं अपने काम को कैसे अंजाम दूंगा, इसके लिए तुम्हें हलकान होने की जरूरत नहीं ।”
“तुम चाहते क्या हो ?”
“वही बताने जा रहा हूं । तुम कुछ कहने दो तो बताऊं न ?”
“क्या चाहते हो ?”
“मैं तुम्हारा सहयोग चाहता हूं ।”
“अगर तुम लाल साहब तक मेरे जरिये पहुंचने का सपना देख रहे हो, तो भारी गलती कर रहे हो । मैं गद्दार आदमी नहीं ।”
विमल हड़बड़ाया । कुशवाहा से ऐसे दो टूक जवाब की उसे उम्मीद नहीं थी ।
“ऐसे जज्बात की मैं कद्र करता हूं ।” - फिर वो बोला - “आज के जमाने में ऐसी निष्ठा, ऐसी स्वामिभक्ति एक दुर्लभ गुण है । गुरबख्शलाल खुशकिस्मत है जो तुम्हारे जैसा वफादार लेफ्टीनेन्ट उसे हासिल है । लेकिन एक अच्छे लेफ्टीनेन्ट का फर्ज ये भी होता है कि वो अपने मालिक को सही राय दे ।”
“कौन-सी सही राय दे ? जिसे वो सही समझे । न कि जिसकी बाबत उसे समझाया जाये कि वो सही है ।”
“जो सत्य है, जो शाश्वत होता है...”
“मैं इतना पढा-लिखा नहीं । मैं लफ्फाजी नहीं समझता ।”
“लफ्फाजी वाली कोई बात नहीं । बात सीधी-सादी है और वो ये है...”
“कि तुम लाल साहब तक पहुंचने का मुझे जरिया बनाना चाहते हो । ये नहीं हो सकता ।”
“देखो, बात को जरा समझने की कोशिश करो । जो कुछ मैं तुमसे पूछ रहा हूं, वो मैं तुम्हारे बाडीगार्ड्स के सामने भी पूछ सकता था । मैं उनसे अलग करके तुम्हें बाहर इसीलिये लाया हूं...”
“ताकि मेरी गद्दारी का कोई गवाह न हो ! ठीक ?”
विमल से जवाब देते न बना ।
“जहां कोई नहीं होगा, मेरा जमीर वहां भी होगा । कोई ऐसी तरकीब जानते हो जिससे मेरा जमीर भी मेरा गवाह न बन सके तो बोलो ।”
“देखो, मैं सिर्फ ड्रग्स के धन्धे का खात्मा चाहता हूं ।”
“तुम लाल साहब का खात्मा चाहते हो । क्योंकि तुम जानते हो कि लाल साहब के खत्म हुए बिना ड्रग्स का धन्धा खत्म नहीं हो सकता ।”
“आलराइट । अपने साहब से अपनी वफादारी तुम बरकरार रखो लेकिन इतना तो बता दो कि तुम्हारे साहब का सबसे नजदीक प्रतिद्वन्द्वी कौन है ?”
“कोई नहीं ।”
“होता तो कौन होता ?”
“क्या मतलब ?”
“देखो, कोई भी आदमी जब किसी भी कारोबार के टॉप पर पहुंचता है तो कई सिर लुढकाने के बाद पहुंचता है । टॉप तक सीढी जाती है, उस पर चढता आदमी अपने ऊपर वाले की टांग खींचता है और अपने से नीचे वाले की खोपड़ी पर ठोकर जमाता है । यूं ही टॉप पर पहुंचा जाता है । तुम्हारा साहब जब दिल्ली के नारकाटिक्स ट्रेड का बादशाह बना होगा तो उससे पहले भी तो उस सिंहासन पर कोई मौजूद रहा होगा ? वो वो आदमी होगा जो अगर सलामत है तो आज भी गुरबख्शलाल की मौत की कामना कर रहा होगा । और सपने देख रहा होगा वापिस उस सिंहासन पर बैठने के जिस पर से गुरबख्शलाल ने उस धकेल दिया था । कुशवाहा, वो आदमी कौन है ? उसका नाम बताने से तो तुम्हारे जमीर पर कोई हर्फ नहीं आयेगा न ?”
“तुम उसे लाल साहब के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करोगे ?”
“मैं क्या करूंगा या क्या नहीं करूंगा, ये मैं जानूं या वो जाने ।”
“दिल्ली शहर में कोई आदमी लाल सारहब के खिलाफ सिर उठाने का हौसला नहीं कर सकता, भले ही उसे कहीं के भी कितने भी बड़े दादा को शै हासिल हो जाये ।”
“फिर तुम्हें ऐसे शख्स का नाम मुझे बताने में क्या एतराज है ?”
“कोई एतराज नहीं । यूं तुम अपनी मौत को ही बुलावा दोगे ?”
“है कौन वो ? अब नाम तो बोलो उसका ?”
“उसका नाम झामनानी है । लेखूमल झामनानी ।”
“कहां पाया जाता है ?”
कुशवाहा ने उसे करोलबाग का एक पता बताया ।
“तो ये वो आदमी है” - विमल बोला - “जिससे तुम्हारे साहब ने दिल्ली के अन्डरवर्ल्ड की बादशाहत का तख्त छीना है ?”
“यही समझ लो ।”
“और तुम्हारा दावा है कि ये गुरबख्शलाल से बाहर नहीं जा सकता ?”
“वो क्या, उस जैसा कोई भी शख्स लाल साहब से बाहर नहीं जा सकता ।” 
“तुमने कहा कि तुम ज्यादा पढे-लिखे आदमी नहीं हो लेकिन इतना तो समझते हो न कि खौफ से काबू में आये लोग खौफ का साया उठते ही खिलाफ हो जाते हैं ?”
कुशवाहा ने जवाब न दिया, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“मेरी झामनानी से बात कराओ ।” - विमल बोला ।
“क्या !” - कुशवाहा सकपकाया ।
“तुम्हें तो खुश होना चाहिये कि मैं तुम्हारे सामने उससे बात करने जा रहा हूं ।”
“क्या बात करोगे तुम उससे ?”
“मालूम पड़ जायेगा । फोन लगाओ उसे ।”
कुशवाहा वहीं एक ओर पड़े फोन की ओर बढा ।
विमल के वहां पहुंचने से थोड़ी देर पहले ही वो अन्डरवर्ल्ड के पांच दादाओं से उस मीटिंग की बाबत बात करके हटा था जो कि गुरबख्शलाल उन्हें सोहल के खिलाफ संगठित करने की नीयत से बताना चाहता था और उनमें से सबसे आखिर में उसने लेखूमल झामनानी से ही बात की थी । अब उसे भय था कि उसके इतनी जल्दी उसे दोबारा फोन करने में उसे किसी षड्यन्त्र की बू न आने लगे ।
फिर भी उसने फोन किया ।
झामनानी के लाइन पर आते ही उसने फोन विमल को थमा दिया ।
“झामनानी !” - कुशवाहा पर से निगाह हटाये बिना विमल माउथपीस में बोला ।
“हां ।” - एक भारी सिन्धी स्वर सुनायी पड़ा - “कौन ?”
“सोहल । शायद कभी नाम सुना हो ।”
“सोहल ! कौन सोहल ?”
“ऐसा सोहल तो एक ही है दुनिया में जिसे तुम्हारी जात-बिरादरी में मकबूलियत हासिल है ।”
“तू ‘वो’ सोहल बोल रहा है ?”
“हां ।”
“झूलेलाल ! दिल्ली में है, साईं ?”
“हां ।”
“तो वडी साईं आके मिल्ल न ।”
“वो भी मिलूंगा ।”
“मेरे को कैसे जाना, नी ?”
“बड़े आदमियों को जानना मेरा काम है ।”
“मैं बड़ा आदमी ! बडो साईं, तेरे से बड़ा आदमी मैं किधर से हो गया, नी !”
“जर्रानवाजी का शुक्रिया ।”
“फोन कैसे किया, नी !”
“एक सवाल पूछना था ।”
“क्या ?”
“मैंने ये पूछना था कि अगर गुरबख्शलाल को कुछ हो जाये तो तुम्हें कैसा लगेगा ?”
“साईं, उसे किधर से कुछ हो जायेगा, नी ! उस कर्मामारे को तो जुकाम तक नहीं होता ।”
“जुकाम मैं कर दूंगा ।”
“नहीं कर पायेगा ।”
“क्यों ? सांस नहीं लेता वो ? बैटरी से चलता है ?”
खामोशी छा गयी ।
“हल्लो !” - विमल बोला ।
“साईं” - बड़ा संजीदा जवाब मिला - “ये फोन पर करने वाली बात नहीं । ये मिल-बैठ के करने वाली बात है ।”
“वो नौबत भी आ जायेगी लेकिन जो बात हम दोनों में होनी है, उसमें पहले तुम्हारा कोई रुझान तो दिखाई दे ।”
“क्या रुझान दिखाऊं नी !”
“तुम गुरबख्शलाल को अपने रास्ते का कांटा मानते हो ?”
“हां ।”
“एक ऐसा कांटा जिसे छूना तुम्हारे बस की बात नहीं ?”
“हां ।”
“वो कांटा तुम्हारी खातिर अगर मैं निकाल दूं तो मुझे क्या मिलेगा ?”
“तू क्या चाहता है ?”
“थोड़ी मदद और एक वादा ।”
“कैसा वादा ?”
“ड्रग्स का धन्धा बन्द करने का वादा । ये वादा कि गुरबख्शलाल की जगह पहुंच जाने के बाद तुम न सिर्फ उसका ड्रग्स का धन्धा कब्जाने की कोशिश नहीं करोगे, बल्कि अपनी तरफ से भी इसकी कोई नयी शुरुआत नहीं करोगे ?”
फिर खामोशी छा गयी ।
“और झूठे वादे से परहेज रखना, झामनानी !” - विमल चेतावनी-भरे स्वर में बोला - “ये न भूलना कि जो शख्स गुरबख्शलाल तक पहुंच सकता है, वो तेरे तक भी पहुंच सकता है ।”
“मेरे तक तो तू पहुंचा ही हुआ है, साईं । तभी तो फोन पर मेरे से बात कर रहा है । किसने मिला के दिया नम्बर ? पहले कौन बोल रहा था ?”
“वो बातें छोड़ो । बोलो । बोलो, गुरबख्शलाल की जगह लेने के बाद ड्रग्स का धन्धा छोड़ने का वादा करते हो ?”
“साईं” - झामनानी बड़ी गम्भीरता से बोला - “ड्रग्स का धन्धा छूट गया तो बाकी क्या रह गया ?”
“ये तुम्हारे सोचने की बात है । जो मेरी शर्त है, वो मैंने बोल दी ।”
“कोई बीच का रास्ता नहीं ?”
“नहीं ।”
“मैं हामी न भरूं तो क्या होगा ?”
“तो मैं गुरबख्शलाल से खता खाये तुम्हारे जैसे किसी और दादा से गंठजोड़ करने की कोशिश करूंगा ।”
“नहीं, नहीं । वडी साईं, उसकी क्या जरूरत है ! जब झामनानी हाजिर है तो...”
“तो क्या जवाब है तुम्हारा ?”
“मेरा जवाब ये है, साईं” - झामनानी निसंकोच बोला - “कि अगर तू उस कर्मामारे गुरबख्शलाल का पत्ता साफ कर दे तो मैंने तेरे कहे मुताबिक ड्रग्स का धन्धा तो बन्द कर ही दूंगा, मैं तुझे इक्कीस तोपों की सलामी भी दिलवाऊंगा और खुद अपने हाथ से तेरी आरती उतारुंगा ।”
विमल ने इशारे से कुशवाहा को करीब बुलाया और माउथपीस में बोला - “क्या कहा ? कुछ ठीक से सुनाई नहीं दिया मुझे ! बीच में डिस्टर्बेंस आ गयी थी ।”
“मैं ये कह रहा था कि...”
विमल ने रिसीवर का इयरपीस कुशवाहा के कान से लगा दिया ।
“...अगर तू गुरबख्शलाल का पत्ता साफ कर दे तो मैं तुझे इक्कीस तोपों की सलामी दिलाऊंगा और अपने हाथ से तेरी आरती उतारूंगा ।”
विमल ने रिसीवर वापिस अपने कान से लगा लिया और बोला - “शुक्रिया ! मैं फिर फोन करूंगा ।”
“वो तो करेगा, साईं, पर गुड न्यूज कब देगा ?”
“जल्दी ।”
“और मिलेगा कब नी ?”
“बहुत जल्दी ।”
“जीता रह, साईं । झूलेलाल की छतरी तेरे सिर हमेशा बनी रहे ।”
विमल ने फोन रख दिया ।
“अब क्या कहते हो ?” - विमल बोला ।
कुशवाहा के चेहरे पर गहरी परेशानी के भाव थे लेकिन वो दिलेरी से बोला - “झामनानी के जवाब को लाल साहब के खिलाफ जाना नहीं कहा जा सकता । ऐसे सपने कोई भी देख सकता है ।”
“किसे बहला रहे हो, भाई ? सपने देखता जुदा बात होती है लेकिन किसी की मौत की कामना करना जुदा बात होती है । जो आदमी तुम्हारे साहब की मौत की कामना करता हो वो तुम्हारे साहब की तरफ कैसे हुआ ?”
कुशवाहा खामोश रहा । अब उसे अन्डरवर्ल्ड के दादाओं की दोपहर बाद होने वाली बैठक बेमानी लगने लगी थी ।
“मैं चलता हूं ।” - विमल बोला - “लेकिन जाने से पहले यह एक बात फिर दोहरा के जाना चाहता हूं कि मौजूदा हालात में तुम्हारा रोल बड़ा अहम हो सकता है । तुम एक भारी खून-खराबे को रोक सकते हो । तुम उस आदमी की लाश को कन्धा देने से बच सकते हो जिसके कि तुम वफादार हो । ये कोई मुश्किल काम नहीं । इसके लिये तुम सिर्फ इतना करना है कि गुरबख्शलाल को ड्रग्स के धन्धे से हाथ खींचने के लिये राजी करना है ।”
“उससे क्या हो जायेगा ? यही तो एक इकलौता गैरकानूनी धन्धा नहीं दिल्ली शहर में । और भी तो धन्धे हैं । जुआ है, प्रास्टीच्यूशन है, शराब की स्मगलिंग है, एक्सटोर्शन है और फिर अगुवा और फिरौती जैसे और हथियारों की स्मगलिंग और उग्रवादियों को उनकी फरोख्त जैसे कदरन नये धन्धे हैं ।”
“मुझे मालूम है । लेकिन मैं सिर्फ ड्रग्स का कारोबार बन्द करने के लिये कह रहा हूं ।” 
“क्यों ? बाकी गैरकानूनी धन्धों के तुम हक में हो ?”
“हरगिज नहीं । मैं तो एक जेबकतरे के भी उतना ही खिलाफ हूं जितना कि एक आर्म्स स्मगलर के । लेकिन ड्रग्स के धन्धे के मैं ज्यादा खिलाफ हूं, सबसे ज्यादा खिलाफ हूं । ये सबसे ज्यादा सर्वनाशी धन्धा है । ये सबसे ज्यादा आर्गेनाइज्ड क्राइम है । गुरबख्शलाल जैसे हरामजादों ने तो कसम खाई मालूम होती है कि अपनी तिजोरियां भरने के लिए वो सारे मुल्क की नौजवान नस्ल को स्मैकिया और चरसी बना के छोड़ेंगे ।”
उस घड़ी विमल के स्वर में ऐसा कहर बरपा कि कुशवाहा सहमकर चुप हो गया ।
“मैं एक मामूली इन्सान हूं ।” - विमल बोला - “मेरी हस्ती मामूली है । मेरी सलाहियात मामूली हैं, मेरी पहुंच मामूली है । क्राइम से लड़ने के लिए बहुत ताकत चाहिए । आज की तारीख में दुश्मन की फौज का मुकाबला करना आसान है लेकिन गुरबख्शलाल जैसे क्राइम लार्ड्स का मुकाबला करना मुश्किल है । मेरे पास ताकत हो तो मैं आर्गेनाइज्ड क्राइम के झण्डाबरदारों को चुन-चुन के मारूं । एक को न छोडूं ।”
“फिर भी झामनानी से गंठजोड़ कर रहे हो ।”
“मैं तुम्हारे से भी गंठजोड़ करने के लिये तैयार हूं । कांटे से ही कांटा निकलता है, मेरे भाई । गुरबख्शलाल के खिलाफ तुम मेरा साथ दो, मैं तुम्हें भगवान मान के तुम्हारी पूजा करूंगा ।”
“यकीन नहीं आता ।”
“किस बात पर ?”
“इस बात पर कि जो शख्स ये जुबान बोल रहा है, वो इतना बड़ा डकैत और हत्यारा है ।”
विमल हंसा ।
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“तो बात करोगे गुरबख्शलाल से ?” - फिर बोला ।
“कोई फायदा नहीं होगा ।” - कुशवाहा बोला - “वो नहीं मानेगा ।”
“यानी कि तुम्हीं नहीं मानोगे ? समझ रहे हो कि सोहल को मच्छर की तरह मसल लोगे ?”
कुशवाहा चुप रहा ।
“ठीक है ।” - विमल बोला - “तो समझ लो ये जंग जारी है । तब तक तो यकीनी तौर से जारी है जब तक मेरे और गुरबख्शलाल में से एक की लाश नहीं गिरती ।”
फिर विमल वहां से विदा हो गया ।
***
कुशवाहा लोटस क्लब पहुंचा ।
गुरबख्शलाल क्योंकि रात को क्लब से मुश्किल से एक किलोमीटर दूर मिंटो रोड वाले फ्लैट में ही सोया था, इसलिये उस घड़ी वो अपने निर्धारित समय से अपेक्षाकृत काफी पहले क्लब में मौजूद था ।
कुशवाहा ने सोहल के अपने घर पर आगमन की बाबत सविस्तार रिपोर्ट पेश की जिसे कि गुरबख्शलाल ने बहुत ही गौर से सुना ।
“एक बात तो माननी पड़ेगी ।” - अन्त में गुरबख्शलाल बोला - “इस आदमी में हौसले की कमी नहीं । हौसले की कमी नहीं इस आदमी में । शेर का जा के मूंछ से पकड़ने का हौसला रखता है ये आदमी ।”
“गुस्ताखी की माफी के साथ कह रहा हूं, लाल साहब ।” - कुशवाहा चिन्तित भाव से बोला - “यूं तो फिर ये किसी दिन आपके सिर पर भी आ खड़ा होगा ।”
“क्या बड़ी बात है ?”
“आपने तो बड़े आराम से कबूल कर ली ये बात ?”
“और क्या करूं ?”
कुशवाहा से उत्तर देते न बना ।
“वो तो कुछ भी नहीं, अभी तो ये पूछ कि जब वो मेरे सिर पर आ खड़ा होगा तो मैं क्या करूंगा ? पूछ भई, क्यों नहीं पूछता ? तकल्लुफ क्यों करता है ?”
“क्या करेंगे आप ?”
“वही जो ऐसे मौके पर करना चाहिये । मैं उसके कदमों में लोट जाऊंगा और रहम की भीख मांगूंगा । क्या ख्याल है तेरा ? रहम करेगा न वो मेरे पर ?”
“लाल साहब, क्यों ऐसी बातें करते हैं आप ? ऐसा कहीं होता है ? ऐसा कहीं हो सकता है ?”
“खैर छोड़ । तो वो झामनानी को मेरे खिलाफ खड़ा करने की फिराक में है ?”
“लाल साहब, अहम बात ये नहीं है कि वो किस फिराक में है । अहम बात वो जहर है जो झामनानी ने आपके खिलाफ उगला । कमीना सामने हुक्का भरता है और पीठ पीछे आपकी मौत की कामना करता है ।”
“पूछे जाने पर वो साफ मुकर जायेगा कि उसने ऐसा कुछ कहा ।”
“लाल साहब” - कुशवाहा आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “मैंने अपने कानों से सुना ।”
“वो कह देगा तेरे कान बज रहे थे ।”
“फिर भी इतना आसान तो न होगा मुकरना ।”
“क्यों ?”
“मेरे पास उसकी सोहल के साथ हुई मुकम्मल बातचीत का टेप है । लाल साहब, मेरे उस फोन में ऐसा इन्तजाम है कि रिसीवर उठाया जाते ही एक टेपरिकार्डर चालू हो जाता है और फिर उस पर दोनों तरफ का वार्तालाप रिकार्ड होता चला जाता है ।”
गुरबख्शलाल की आंखों में चमक आयी ।
“मीटिंग मुकर्रर हुई ?” - उसने पूछा ।
“जी हां । एक बजे । डलहौजी बार की बेसमेंट में । सब वहीं पहुंचेंगे ।”
“टेप वहां ले के चलना । सबके सामने सुनायेंगे उस झामनानी के बच्चे को । फिर देखेंगे वो क्या कहता है !”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“तेरे दो आदमी छूट गये मन्दिर मार्ग थाने से ?”
“जी हां ।” - कुशवाहा बोला - “सुबह छूट गये थे ।”
“कुछ बके तो नहीं ?”
“नहीं ।”
“पैसा कितना लगा ?”
“तीस हजार । वो सब-इन्स्पेक्टर लूथरा कहता है कि उसने इसमें से एक पैसा नहीं लिया । दस हजार उस सब-इन्स्पेक्टर ने लिये जिसने रात को हमारे आदमियों को मौकायेवारदात पर पकड़ा था और बीस हजार एस एच ओ ने लिये ।”
“उसे भी दे देता कुछ ।”
“मैंने कहा था लेकिन उसने मना कर दिया था ।”
“कोई बात नहीं । वो छ: लाख की फिराक में होगा । जो कि अच्छा ही है । कैसे भी छूटे, इस सोहल के बच्चे से पीछा छूटना चाहिये ।”
“लाल साहब, अब मैं आपकी तवज्जो एक बड़ी गम्भीर बात की तरफ दिलाना चाहता हूं ।”
“कौन-सी गम्भीर बात ?”
“सोहल को कैसे पता चला कि हमने ढक्कन को उसके कत्ल के लिये मुकर्रर किया था ? उसको ढक्कन के नाम तक की खबर कैसे हई ?”
“क्या मतलब ?”
“लाल साहब, सोमवार को यहीं जब ढक्कन को उस बाबू का कत्ल करने का काम सौंपा गया था तो याद कीजिये यहां कौन-कौन लोग मौजूद थे ?”
“भई, सब अपने ही लोग मौजूद थे । मेरे-तेरे अलावा ढक्कन था, लट्टू था और जैदी था । ये सब अपने परखे हुए, भरोसे के आदमी हैं । इनमें से कौन जाके उस बाबू को खबरदार कर सकता था ?”
“एक आदमी को आप भूल रहे हैं, लाल साहब । उस घड़ी एक आदमी और भी था यहां ।”
“कौन ?”
“सहजपाल ।”
“वो पुलसिया ?”
“जी हां । जो यहां ये खबर लाया था कि आपके भांजे का कातिल वो बाबू हो सकता था । ढक्कन को उस बाबू के कत्ल का काम सौंपा गया था, ये बात हमारे अपने आदमियों के अलावा अगर किसी को मालूम थी तो सिर्फ सहजपाल को मालूम थी ।”
“उसने जा के उस बाबू को खबरदार किया ?” - गुरबख्शलाल मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“सीधे नहीं किया होगा तो किसी के आगे मुंह फाड़ा होगा । अपनी जानकारी की डींग हांकी होगी किसी के आगे ।”
“तू ठीक कह रहा है । ऐसा आदमी हमारे किस काम का ? जो साला गुरबख्शलाल का सगा न हुआ, वो और किसका सगा होगा ?”
“यही तो मैं कह रहा हूं ।”
“ऐसे दगाबाज और अहसानफरामोश आदमी को तो सजा मिलनी चाहिये ।”
“आपका हुक्म हो गया, लाल साहब, समझिये सजा मिल गयी ।”
“बढिया ।” 
***
पिछली रात चार्ली ने बहुत बेचैनी में काटी थी ।
पहले उसकी बेचैनी की वजह ये थी कि वो नशे में गुरबख्शलाल के सामने सोहल की बाबत मुंह फाड़ बैठा था, फिर ये सोच-सोचकर उसका कलेजा मुंह को आता रहा था कि उसने सोहल को गुरबख्शलाल के इरादों की खबर भिजवा दी थी ।
सारा बखेड़ा नशे की वजह से हुआ था । वो सोहल का नाम अपनी जुबान पर न लाया होता तो रात को चैन की नींद सोया होता ।
पिछली रात पीजा पार्लर बन्द कराने के बाद चार्ली ने बहुत डरते-डरते वहां से बाहर कदम रखा था । वो अपनी कार पर वहां से रवाना हुआ था तो तत्काल फौजी और उसका साथी एक कार पर सवार होकर उसके पीछे लग लिये थे लेकिन उन्होंने न तो रास्ते में उसे कहीं रोकने की कोशिश की थी और न ही उसके पीछे उसकी कोठी में जबरन दाखिल होने की कोशिश की थी ।
रात को जब भी उसने अपने बैडरूम की खिड़की में से पर्दे के पीछे छुपाकर बाहर सड़क पर झांका था, उसने फौजी और उसके साथ को वहां मौजूद पाया था ।
फिर उठने के टाइम पर जाकर कहीं उसे नींद आयी थी ।
जब वो सो के उठा था तो तब दोपहर होने को थी ।
तब सबसे पहला काम उसने बाहर सड़क पर झांकने का ही किया था ।
फौजी और उसका साथी सड़क पर से गायब थे ।
फिर अखबार में उसने पिछली रात को गोल मार्केट के इलाके में हुई गोलीबारी की वारदात के बारे में पढा था लेकिन उस खबर में किसी के हताहत होने का कोई जिक्र नहीं था । सोहल का तो कतई कोई जिक्र नहीं था ।
यानी कि वक्त रहते सोहल तक उसकी भेजी खबर पहुंच गयी थी और सोहल की फिराक में गोल मार्केट पहुंचे गुरबख्शलाल के आदमियों की खबर लेने धोबी वहां पहुंच गये थे ।
जरूर गुरबख्शलाल के आदमी वहां से पिट के भागे थे । और जरूर इसी बात का नतीजा बाहर सड़क पर से फौजी और उसके साथी गैरहाजिरी की सूरत में उसके सामने था ।
जरूर यही बात थी । 
अब वो सोच रहा था कि अच्छा हुआ था कि उसने सोहल का पक्ष लिया था । अपना मुंह फाड़ने की गलती की बाबत वक्त रहते सोहल की खबर करके उसने एक तरह से उस गलती को सुधार लिया था ।
फिर भी उसका दिल गवाही दे रहा था कि अगर उसने चक्की के दो पाटों में पिसने से बचना था तो उसे कुछ दिनों के लिये कहीं गायब हो जाना चाहिये था ।
उसने तत्काल अपने उस फैसले पर अमल करना शुरू किया ।
वो नित्यकर्म से निवृत्त हुआ, उसने एक सूटकेस में अपने कुछ कपड़े और जरूरी साजोसामान भरा और फिर अपने नौकर जानी को बुलाया ।
“मैं कुछ दिन के लिये बाहर जा रहा हूं ।” - वो बोला - “पीछे होशियारी से रहना ।”
जानी ने सहमति में सिर हिलाया ।
“एक टैक्सी बुला के ला ।” - वो बोला - “इन्टरस्टेट बस टर्मिनल के लिये ।”
जानी चला गया ।
चार्ली ने पहाड़गंज अपने पीजा पार्लर पर फोन किया ।
निरन्तर घंटी बजती रही लेकिन किसी ने फोन न उठाया ।
उसने ‘119’ से नम्बर मांगा तो पता लगा कि लाइन खराब थी ।
अपने स्टीवर्ट माइकल से उसकी बात होना जरूरी था । पीछे पीजा पार्लर चलाये रखने की बाबत उसने उसे बहुत कुछ समझाना था ।
तभी जानी ने जाकर टैक्सी के आगमन की खबर की ।
कोई बात नहीं - उसने मन-सी-मन सोचा - वो पहाड़गंज होता हुआ बस अड्डे जा सकता था ।
जानी का सलाम और यात्रा के लिये शुभकामनायें कबूल करता वो टैक्सी में सवार हुआ और पहाड़गंज पहुंचा ।
वो खुश था कि न सारे रास्ते किसी न उसका पीछा किया था और न पीजा पार्लर के आसपास उसे फौजी जैसा गुरबख्शलाल का कोई आदमी मंडराता दिखाई दिया था ।
अपना सूटकेस टैक्सी में ही छोड़कर और सिर्फ पांच मिनट में लौट जाने का आश्वासन टैक्सी ड्राइवर को देकर वो अपने पीजा पार्लर के भीतर दाखिल हुआ ।
उस घड़ी पीजा पार्लर आधे के करीब खाली था ।
माइकल उसे सर्विस काउन्टर के करीब खड़ा दिखाई दिया ।
उसे देखकर माइकल तत्काल उसके करीब पहुंचा और बोला - “गुड मार्निंग, सर ।”
“गुड मार्निंग” - चार्ली बोला - “ऐसा है माइकल कि...”
“सर, आपका कोई मिलने वाला आया हुआ है ।” - माइकल बोला ।
“मेरा मिलने वाला ?”
“जी हां । बहुत देर से इन्तजार कर रहा है वो आपका । मैंने उसे आपके आफिस में बिठा दिया है ।”
“है कौन वो ?”
“कोई पुराना वाकिफकार है आपका ।”
“नाम ! नाम बताया उसने ?”
“जी हां । सीक्वेरा ।”
चार्ली के कई गोवानी परिचित थे लेकिन सीक्वेरा नाम का अपना कोई परिचित उसे याद न आया ।
“ठीक है ।” - वो बोला - “मैं देखता हूं । माइकल, मैं यहां ज्यादा देर नहीं रुक सकता । मुझे फौरन कहीं जाना है । बाहर टैक्सी मेरा इन्तजार कर रही है । वो जो कोई भी है, मैं उसे दो-तीन मिनट में चालू कर दूंगा । इनते में वो न भी टले तो पांच मिनट में तुम हर हाल में मेरे पास पहुंच जाना और आके दुहाई देने लगना कि बाहर मेरे इन्तजार में बैठा टैक्सी वाला उतावला हो रहा था । ओके ?”
माइकल ने सहमति में सिर हिलाया ।
चार्ली अपने आफिस में दाखिल हुआ तो माइकल ने घड़ी में टाइम देख लिया ।
पांच मिनट ।
लेकिन सीक्वेरा नाम का वो आदमी एक मिनट में ही चार्ली के आफिस से बाहर निकल गया । माइकल को देखकर तो मुस्कराया, होंठों में थैंक्यू बोला और बड़े सन्तुलित कदमों से चलता हुआ वहां से बाहर निकल गया ।
माइकल चार्ली के हाल में प्रकट होने की प्रतीक्षा करने लगा । 
चार्ली बाहर न किनला ।
फिर जब पांच मिनट भी हो गये तो माइकल सकपकाया ।
अब साहब को वक्त का ध्यान दिलाने भी जरूरत थी ।
माइकल ने चार्ली के आफिस में कदम रखा तो वो दरवाजे पर ही थमककर खड़ा हो गया । उसका निचला जबड़ा लटक गया और आंखें फट पड़ीं ।
मेज के पीछे चार्ली अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर मरा पड़ा था ।
उसकी दोनों भवों के बीच में माथे पर एक तीसरी आंख दिखाई दे रही थी ।
***
विमल गोल मार्केट पहुंचा ।
सातवीं मंजिल तक दोनों जुड़वें भाई उसके साथ आये ।
विमल ने फ्लैट का ताला खोला तो पहले वो दोनों भीतर दाखिल हुए । उन्होंने अच्छी तरह से फ्लैट को खंगालकर अपनी सन्तुष्टि कर ली तो वो मिवल को भीतर चले जाने का इशारा करते हुए बाहर निकल आये ।
“बाहर कहां जाओगे ?” - विमल बोला - “यहीं बैठ जाओ ।”
दोनों सहमति में सिर हिलाते हुए बाहर ड्राइंगरूम में बैठ गये ।
विमल ने शेव, स्नान वगैरह किया और नये कपड़े पहने ।
तभी फ्लैट की कालबैल बजी ।
जुड़वें सजग हो गये और दरवाजे की तरफ देखने लगे ।
विमल ने आगे बढकर दरवाजा खोला ।
आगन्तुक सब-इन्स्पेक्टर लूथरा था ।
“नमस्ते, जनाब ।” - वो मुस्कराता हुआ बोला ।
“अब क्या है ?” - विमल उतावले स्वर में बोला ।
“जनाब, एक आखिरी मर्तबा अपने घर में और बर्दाश्त कर लीजिये मुझे । आज के बाद मैं आपके बुलावे के बिना फिर यहां दिखाई दूं तो जो चोर की सजा वो मेरी सजा ।”
“मुझे जल्दी है ।”
“मेरी बात बहुत जरूरी है । और नहीं तो इसी बात का लिहाज कीजिये कि आपके इन्तजार में पता नहीं कब से मैं यहां एड़ियां रगड़ रहा हूं ।”
“ऐसी क्या बात है ?”
“बात न सिर्फ बहुत खास है, वो ऐसी है कि उसे सुन लेने में आप ही की भलाई है ।”
“आओ ।”
“शुक्रिया ।”
लूथरा ने फ्लैट के भीतर कदम डाला, वो ड्राइंगरूम में बैठे जुड़वें भाइयों को देखकर ठिठका । जैसे सन्दिग्ध भाव से उसने उन दोनों भाइयों को देखा, उससे ज्यादा सन्दिग्ध भाव से उन दोनों ने उसे देखा ।
“दोस्त हैं मेरे ।” - विमल बोला ।
“मैं आपसे अकेले में बात करना चाहता हूं । निहायत जरूरी है ये । जो कुछ मैंने कहना है, वो आप ही पसन्द नहीं करेंगे कि कोई तीसरा शख्स सुने ।”
विमल एक क्षण हिचकिचाया और फिर जुड़वों से सम्बोधित हुआ - “ये सब-इन्स्पेक्टर लूथरा हैं । मन्दिर मार्ग थाने से आये हैं । मेरे दोस्त हैं । ये चन्द जरूरी बातें मेरे साथ तनहाई में करना चाहते हैं । तुम दोनों बाहर जाओ ।”
वो दोनों हिचकिचाते हुए उठ के बाहर चले गये ।
विमल ने उनके पीछे दरवाजा बन्द कर दिया लेकिन भीतर से चिटकनी लगाने का उपक्रम न किया ।
“बैठो ।” - वो लूथरा से बोला ।
“शुक्रिया ।” - लूथरा बोला और एक सोफाचेयर पर ढेर हो गया ।
विमल उसके सामने बैठ गया, उसने अपना पाइप सुलगा लिया और गम्भीरता से बोला - “मैं सुन रहा हूं ।”
“कल रात” - लूथरा बोला - “यहां आपके कम्पलैक्स में बहुत हंगामा मचा । आपको खबर होगी ।”
“मैंने पेपर में पढा था ।”
“पेपर में पढा था !” - लूथरा विस्मित स्वर में बोला - “यानी कि वैसे आपको खबर न लगी ! बहुत गहरी नींद सोते हैं आप !”
“मैं कल रात घर पर नहीं था । मेरी बीवी बीमार है । मैं सारी रात उसके पास नर्सिंग होम में था । मैं अभी यहां लौटा हूं ।”
“ओह ! अब कैसी तबीयत है मिसेज कौल की ?”
“ठीक है ।”
“शुक्र है ऊपर वाले का । ...यानी कि जिस वजह से कल रात यहां इतनी गोलीबारी हुई, वो वजह ही यहां नहीं थी ।”
“वजह ?”
“आप । आप ही का तो प्रताप था वो भी ।”
“यही वो खास बात है जिसे कि तुम्हारा मेरे से करना जरूरी है और जिसे सुनने में मेरी भलाई है ?”
“नहीं । वो बात तो अभी आगे आयेगी ।”
“तो बरायमेहरबानी आगे जरा पहले पहुंच जाना ।”
“जो हुक्म । कौल साहब, पिछले शुक्रवार, बीस तारीख को जब मैं पहली बार आपके आफिस में आपसे मिला था तो आपने मुझे बताया था कि यहां आने से पहले आप चण्डीगढ रहते थे, आपने मुझे अपना चण्डीगढ का पता भी बताया था । आपकी जानकारी के लिये चण्डीगढ पुलिस ने आपके उस बयान की तसदीक की है । चण्डीगढ का जो पता आपने बताया था, वहां नीलम नाम की एक लड़की वाकई रहती थी जो कि अपनी शादी के चन्द महीनों बाद उस फ्लैट को हमेशा के लिये छोड़ गयी थी ।”
“तो ?”
“यहां तक इस कहानी में कोई नुक्स नहीं । आगे बात यूं सामने आती है कि नीलम का, आपकी बीवी का, मौजूदा मिसेज कौल का - चण्डीगढ में कीरतसिंह नाम का एक पड़ोसी था । वो कहता है कि जब आप पहली बार वहां पहुंचे थे तो तब नीलम माता के दर्शनों के लिये वैष्णोदेवी की यात्रा पर गयी हुई थी और आप ये जानकर खड़े पांव उसके पीछे रवाना हो गये थे । जब आप लौटे थे तो बतौर आपकी धर्मपत्नी नीलम आपके साथ थी । ठीक ?”
“ठीक ।” - विमल सशंक स्वर में बोला । वो समझ नहीं पा रहा था कि वो धूर्त पुलसिया कहां मार कर रहा था ।
“जनाब, आपने तो कीरतसिंह को वैष्णोदेवी रवाना होने से पहले ही ये कहा था कि नीलम आपकी धर्मपत्नी थी ?”
“मेरी उससे शादी होने वाली थी । मंगेतर को धर्मपत्नी कह देने से क्या कानून की कोई धारा भंग हो जाती है ?”
“लेकिन आपने कीरत सिंह को ये भी कहा था कि अगर नीलम आपको वैष्णोदेवी में ने मिले और वो आपसे पहले चण्डीगढ लौट आये तो वो उसे ये बता दें कि बम्बई से सोहल आया था । पूछे जाने पर आपने सरदार कीरतसिंह को ये भी कहा था कि आप भी सरदार थे और सोहल गांव के रहने वाले थे । ठीक ?”
“बिल्कुल गलत ।”
“आपने कीरतसिंह को अपना नाम सोहल नहीं बताया था ?”
“नहीं ।”
“वो कहता है ऐसा ।”
“गलत कहता है ।”
“तो फिर सोहल नाम उसे कैसे सूझा ?”
“सोहल नाम के गांव के नाम से । वो कह रहा था कि वो जिला गुरदासपुर के सोहल गांव का रहने वाला था ।”
“ऐसा उसने आपको नहीं, आपने उसको कहा था ।”
“बिल्कुल गलत । वो सफेद दाढी वाला बूढा आदमी था । जरूर उसकी याददाश्त में नुक्स है ।”
“आपने उसे नाम बताया था अपना ?”
“वही जो है मेरा नाम । कौल । उसने कौल को ही सोहल समझ लिया गया ।”
“खामखाह !”
“क्यों खामखाह ! तुम खुद पंजाबी हो । तुम्हें मालूम होना चाहिए कि ठेठ पंजाबियों का उच्चारण कैसा होता । सोहल को सोल ही बोलेंगे वो । मैंने कौल कहा, उस बुजुर्गवार ने सोल - सो ‘ह’ ल - समझ लिया ।”
“जब यूं सोहल को कौल समझा जा सकता है तो हो तो वे भी सकता है न कि उसने सोहल को ही सोहल समझा हो ?”
“मैंने सोहल कहा होता तो वो ऐसा समझता न ?”
“हो तो फिर भी सकता है न ? सुनने में कसूर जैसे आप कहते हैं, वैसे लग सकती है तो जैसे मैं कहता हूं, वैसे भी तो लग सकती है ?”
“तुम क्या साबित करना चाहते हो ?”
“आपको मालूम है । मैं ये साबित करना चाहता हूं कि आप मशूहर इश्तितहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल हैं ।”
“सात जन्म नहीं कर सकोगे ।”
“कोशिश तो करने दीजिये । ये जान के कोशिश करने दीजिये कि ये मेरी आखिरी कोशिश है ।” 
“आलराइट ! बहस के लिये मान लिया कि कीरतसिंह ने इसलिये मेरा नाम सोहल सुना क्योंकि मैंने सोहल कहा था ।”
“आपने उसे ये भी कहा था कि आप बम्बई से आये थे ?”
“हां ।”
“जब वो अपनी मंगेतर थी तो क्या उसे नहीं मालूम था कि आप बम्बई में थे ?”
“मालूम था ।”
“तो खास बम्बई का हवाला देना क्यों जरूरी समझा आपने ?”
“पता नहीं । बात पुरानी हो गयी हे इसलिये याद नहीं कि ऐसा मैंने क्यों कहा था । यूं ही रुटीन में कह दिया होगा । बाहर से आया आदमी ऐसा कुछ कहता ही है ताकि सन्देशा आगे पहुंचाने वाला आदमी सन्देशा ठीक से पहुंचा सके ।”
“हूं ।”
“तुम्हें इतना कुछ कैसे मालूम है ? चण्डीगढ हो के आये हो ?”
उसने मुस्कराते हुए इनकार में सिर हिलाया और फिर बोला - “अब मैं आपको याददाश्त को तरोताजा करने के लिये वो सरकमस्टांशल एवीडेन्सिज (परिस्थितिजन्य सबूत) आपके सामने दोहराता हूं जो आपके खिलाफ मेरे पास हैं ।”
“मेरी याददाश्त को कुछ नहीं हुआ और तुम खुद जानते हो कि किसी ठोस सबूत की गैरहाजिरी में ऐसे सबूतों की कोई कीमत नहीं ।”
“ऐसे एकाध सबूत की कोई कीमत नहीं होती लेकिन जब ये ढेरों में हों तो एक-दूसरे को सपोर्ट करते हुए वे अपनी कीमत खुद बना लेते हैं ।”
“देखो, तुम...”
“सुनिये । सुनिये । आपने मुझे आखिरी बार वक्त दिया है इसीलिये, प्लीज सुनिये ।”
“अच्छी बात है ।”
“शुरू से सुनिये ।”
“शुरू से सुना लो, भई ।”
“सुनिये । वीरवार, उन्नीस तारीख की रात को लोधी में जब सोनिया शर्मा नायक युवती के साथ बलात्कार की वारदात होने जा रही थी तो ऐन वारदात के वक्त आप मौकाये-वारदात पर मौजूद थे । शुक्रवार, बीस तारीख की सुबह हस्पताल में पड़ी सोनिया शर्मा को अपनी बाबत अपना बयान बदलने के लिये कहने के लिये आप वहां उसके सिरहाने मौजूद थे, मैंने अपनी आंखों से आपको वहां देखा था । जिस कथिेत सिख ने पहाड़गंज में सुन्दरलाल स्मैकिये का कत्ल किया था, उसकी आंखों का रंग नीला था, उसके पास लाल चमड़ा मढा ब्रीफकेस था और वो ओवरकोट पहने था । ओवरकोट आपके पास है, लाल चमड़ा मढा ब्रीफकेस भी आपके पास है और आपकी आंखों का नीला रंग मैंने वारदात की रात को ही अपनी आंखों से देखा था अलबत्ता तब आपने मुझे यह कह के उल्लू बना लिया था कि आपकी आंखों की नीली रंगत की वजह यहां की नीले रंग से पुती दीवारें थीं जिन पर से नकली नीली रोशनी रिफ्लेक्ट होकर आंखों पर पड़ रही थी । तभी मैंने आपके बायें कान के नीचे लगी काला रंग रंगी रुई भी देखी थी जो कि, अब मुझे यकीन है कि, आपके सिख बहुरूप की बचत-खुचत थी । आपका रात के अन्धेरे में घर से खिसकने वाला बाल्कनी टु बाल्कनी रूट स्थापित हो ही चुका है - इस सन्दर्भ में ये कहना जरूरी है कि, जब और तरीकों से आपका अपराध सिद्ध हो जायेगा तो ये अपने आप ही साबित हो जायेगा कि उस लड़की ने, सुमन वर्मा ने, आपकी खातिर झूठ बोला - अखबार में छपी सिख की तसवीर पर से दाढी-मूंछ हटाये जाने पर नीचे से जो सूरत नमूदार हुई थी, वो, मैं कबूल करता हूं कि, सौ फीसदी आपकी नहीं लग रही थी लेकिन आपकी राशनकार्ड वाली तसवीर के साथ स्टैपवाइज ट्रांसफार्मेशन का जो तजुर्बा किया गया था । वो आप जानते हैं, आपका दिल जानता है कि सौ फीसदी कामयाब था । फिर क्रिसमिस ईव पर पंडारा रोड के इलाके में आपके गाल पर लगा घाव तो काफी हद तक पुख्ता सबूत है आपके खिलाफ । आपकी जानकारी के लिये पंडारा रोड के पुजारी नाम के एक बुजुर्गवार को चुपके से आपकी सूरत दिखाई गयी थी तो उसने निसंकोच कहा था कि आप ही वो शख्स थे चौबीस की रात को जिसे उसने अपने घर के करीब चार मवालियों के साथ जूझता देखा था ।”
“मुझे ऐसे किसी आमने-सामने की खबर नहीं ।”
“वो काम बहुत गोपनीय ढंग से किया गया था ।” - लूथरा ने साफ झूठ बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि जैसे पहले सोनिया शर्मा की सूरत में हमें उपलब्ध एक गवाह को आप बरगला चुके थे, वैसे ही हमारे पुजारी नाम के उस दूसरे गवाह को भी आप बरगला सकते थे । वो बुजुर्गवार भी आपसे सीधे आमना-सामना करने से कतरा रहे थे क्योंकि यूं उनकी जान को भी खतरा बन सकता था ।”
“नानसैंस ।”
“ये बहस का वक्त नहीं । अभी मुझे सरकमस्टांशल एवीडेन्सिज का ही खाता आगे बढाने दीजिये । जनाब, आपकी जान लेने की जो कोशिश-दर-कोशिश हो रही हैं, वो भी इस बात का सबूत हैं कि आप सोहल हैं । वो कोशिशें किसी अरविन्द कौल जैसे मामूली आदमी के खिलाफ हुई होतीं तो उनमें से सबसे पहली ही कामयाब हो गयी होती, पंडारा रोड पर चार आदमियों को अकेले मार गिराना किसी अरविन्द कौल के बस का काम नहीं लेकिन सोहल की केस हिस्ट्री बताती है कि उसके बस का काम है । कल सुबह जो नंगी लाश आपकी बाल्कनी के ऐन नीचे पाई गई थी, उसकी शिनाख्त हो चुकी है । वो वीर बहादुर नाम का एक पेशेवर हत्यारा था जो आपकी नजरेइनायत से यहां से नीचे टपका हो सकता है । आज सुबह-सवेरे टालस्टाय मार्ग के करीब की एक तनहा गली में अनमोल कुमार उर्फ ढक्कन नाम के एक आदमी की लाश पायी गयी है । वो आदमी गुरबख्शलाल का खासुलखास है और वो वो आदमी है जिसे गुरबख्शलाल ने आपके कत्ल का जिम्मा सौंपा था । आपकी हस्ती मिटाने के लिये कल रात गुरबख्शलाल की जो फौज यहां पहुंची थी, वो तो अपनी कहानी खुद कहती ही है ।”
“तुम्हें क्या पता वो फौज किसकी थी और यहां क्या करने आयी थी ?”
“मुझे पता है । रात दो आदमी गिरफ्तार भी हुए थे । उन्होंने थाने में कबूल किया था कि वो, और वो जो भाग निकलने में कामयाब हो गये थे, सब गुरबख्शलाल के आदमी थे । उन्होंने ये भी कबूल किया था कि वो यहां सोहल का कत्ल करने पहुंचे थे और सोहल वो शख्स था जो यहां - कोविल मल्टी स्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स की सातवीं मंजिल के एक फ्लैट में - अरविन्द कौल के नाम से रहता था । जनाब, उन दो जनों का बयान भी आपके खिलाफ सबूत है ।”
“दो का क्या, तुम ऐसा बयान दो सौ जनों का मेरे खिलाफ दिलवा सकते हो । सोहल क्या, तुम दो हजार जनों से ये कहलवा सकते हो कि मैं पोप हूं, जार्ज बुश हूं, मार्गरेट थैचर हूं ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ?”
“और क्या करूं ? तुम बातें ही ऐसी कर रहे हो ।”
“ठीक है । तो फिर अब मैं पुख्ता सबूतों की सीरीज पर आता हूं ।”
“सीरीज पर ?”
“जी हां ।”
“यानी कि कई पुख्ता सबूत हैं तुम्हारे पास मेरे खिलाफ ?”
“जी हां ।”
“यानी कि कई पुख्ता सबूत हैं तुम्हारे पास मेरे खिलाफ ?”
“जी हां ।”
विमल का दिल लरजा । लूथरा के चेहरे पर उस घड़ी बहुत आशंकित करने वाली संजीदगी दिखाई दे रही थी ।
“मैं सुन रहा हूं ।” - प्रत्यक्षत: वो वाला ।
“तो सुनिये । आपकी किचन के एक ऊंचे शैल्फ में एक गुप्त खाना है जिसमें कई तरह के मेकअप का सामान मौजूद है । मसलन गंजा विग, बकरा दाढी, उससे मैच करती मूंछे, काले धागे में बन्धी ‘अल्लाह’ गुदी चांदी की ताबीज, जालीदार गोल काली टोपी, ‘मेक लव नाट वार’ लिखा पीतल का कण्ठा और” - तब लूथरा का स्वर एकाएक बड़ा नाटकीय हो उठा - “दो शीशियों में भरे तरल पदार्थ में तैरते दो नीले कान्टैक्ट लैंस, तार के फ्रेम वाला प्लेन शीशों वाला चश्मा और फ्रेंचकट दाढी जो आपके सिख बहुरूप में आपकी कनपटियों तक नहीं पहुंच पायी थी और इसलिये आपको काली रंगी रुई का इस्तेमाल करना पड़ा था ।”
लूथरा को ये देखकर बहुत सुख की अनुभूति हो रही थी कि ज्यों-ज्यों वो बोलता जा रहा था, विमल का निचला जबड़ा लटकता जा रहा था ।
“तुम... तुम... मेरी गैरहाजिरी में यहां मेरे फ्लैट में घुसे थे ?”
“ये गुस्ताखी हुई है खाकसार से । माफी चाहता हूं ।”
“तुम पुलसिये हो या तालातोड़ चोर ?”
“सबूत हासिल करने के लिये कई पापड़ बेलने पड़ते हैं जनाब । काफी कुछ करना पड़ता है, जनाब ।”
“यू... यू... यू आर ए सन आफ बिच ।”
“इस वक्त मैंने आपकी इस गाली का बुरा नहीं माना । आपका एकाएक मुझे यूं गाली देने लगना भी इस बात का सबूत है कि मैंने अन्दर से आपको हिला के रख दिया है ।”
विमल ने होंठ काटे ।
ईजी ! ईजी ! - मन-ही-मन उसने अपने आपको समझाया ।
“रिकार्ड के लिये एक बात और सुन लीजिये ।” - लूथरा बोला - “आपके कत्ल की दो कोशिशें नाकाम हो जाने से बौखलाया हुआ और अपने बॉस गुरबख्शलाल के कहर से खौफजदा ढक्कन कल भी यहां आया था आपके कत्ल की तीसरी, वैसी कोशिश करने के लिये जो कि सिर पर कफन बांध के की जाती है । आपकी खुशकिस्मती थी कि उस वक्त यहां न आप थे, न आपकी मिसेज थी लेकिन क्योंकि तब फ्लैट खाली भी नहीं था इसलिये वो बेचारा यहां बैठकर आपके लौटने का इन्तजार करने की हालत में नहीं था ।”
“तब फ्लैट खाली भी नहीं था ?”
“जी हां । इसे आप अपनी खुशकिस्मती जानिये कि ऐन उसी घड़ी फ्लैट में मैं मौजूद था । मेरी वजह से ही उसे यहां से ठण्डे-ठण्डे लौट जाना पड़ा था । तब मैंने उसे आपकी कजा के तौर पर नहीं पहचाना था लेकिन अब जबकि मैं उसकी लाश देख चुका हूं तो मुझे मालूम है कि वो ढक्कन था ।”
“हूं । तो कल तुमने, एक पुलिस आफिसर ने, चोरों की तरह, मेरे फ्लैट में घुसने की भी जुर्रत की ।”
“कौल साहब, मैं आपके फ्लैट में घुसा जरूर था लेकिन चोरी की नीयत से नहीं । आपकी कोई चीज मैंने उसकी जगह से नहीं हटाई... सिवाय इस एक छोटी सी चीज के ।”
विमल ने देखा लथूरा उसे उसका घड़ीवाला वाला ड्राइविंग लाइसेंस दिखा रहा था ।
तो - उसने सोचा - इसलिये उसे वो लाइसेंस ढूंढे नहीं मिल रहा था ।
“ये” - लूथरा बोला - “पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला के नाम बड़ोदा से जारी हुआ ड्राइविंग लाइसेंस है और इस पर लाइसेंसधारी की जो तसवीर लगी हुई है, वो आपकी है ।”
“तुमने” - विमल बोला - “किसी के लाइसेंस पर से उसके मालिक की तसवीर उतारकर मेरी तसवीर लगा दी है ।”
“जनाब, ये पोलेरायड लाइसेंस है, इसमें तसवीरों की ऐसी हेरफेर मुमकिन नहीं ।”
“कुछ तो किया ही है, तुमने । मेरी तसवीर के साथ लेकिन किसी घड़ीवाला का ब्योरा लिख के लाइसेंस ही नया बना लिया होगा ।”
“मैंने ऐसा कुछ नहीं किया ।”
“तुम्हीं ने किया है और तुम्हीं ने मेरी किचन में वो सब सामान प्लांट किया है जिसका कि तुमने अभी जिक्र किया था ।”
“ये सब बातें तब कह लीजियेगा जब ऐसी सफाई देने की नौबत आयेगी । अभी से तो मुकदमा शुरू न कीजिये न । अभी कम-से-कम ये तो सुन लीजिये कि इस लाइसेंस के सन्दर्भ में मैं क्या कहना चाहता हूं ?”
“क्या कहना चाहते हो ?”
“मैंने बम्बई के पुराने अखबारों में पढा है कि कोई आठ महीने पहले वहां पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला, नाम का एक आदमी गिरफ्तार हुआ था जो कि फिंगरप्रिंट्स की बिना पर मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल करार दिया गया था लेकिन वो बाद में इसलिये रिहा कर दिया गया था क्योंकि उसकी सूरत या आवाज या फिंगरप्रिंट्स सोहल से मिलते नहीं पाये गये थे । उस आदमी की, घड़ीवाला की, इण्डियन एक्सप्रैस में फोटो भी छपी है । कौल साहब, अखबार में छपी वो फोटो आपकी है । जो चीज अखबार का रिकार्ड बन चुकी है, उसमें मैं ‘भांजी’ नहीं मार सकता । अखबार के उस पेज की फोटो कापी मैं साथ लाया हूं । ये देखिये” - लूथरा ने उसे एक फोटो कापी थमाई - “इसमें आपको बड़ोदा का एक बिजनेसमैन बताया गया है जो कि बम्बई में सोहल के धोखे में गिरफ्तार किया गया था और फिर बरी कर दिया गया था । अखबार में घड़ीवाला की फिरोजा नाम की बीवी का जिक्र है, आदिल नाम के लड़के का जिक्र है और यासमीन नाम की लड़की की जिक्र है । कौल साहब, चलिये मान लिया इस ड्राइविंग लाइसेंस में तो मैंने कोई गड़बड़ कर ली लेकिन आठ महीने पहले के यहां से आठ सौ मील दूर छपे अखबार के रिकार्ड में कोई गड़बड़ भला मैं कैसे कर सकता हूं ?”
“इससे क्या साबित हुआ ? अखबार में साफ तो लिखा है कि मैं... ये घड़ीवाला सोहल नहीं ।”
“लेकिन ये घड़ीवाला मेरे सामने बैठा शख्स तो है जो अपने आपको अरविन्द कौल कहता है, जो अपनी बीवी का नाम नीलम बताता है और जिसने औलाद का मुंह अभी देखना है ।” 
विमल से कोई जवाब देते न बना ।
“इससे कम-से-कम इतना तो साबित होता है कि जो आप दिखाई देते हैं, वो आप नहीं हैं । इससे कम-से-कम ये तो साबित होता है कि आप कोई भारी फ्रॉड हैं । आप सोहल न सही, अरविन्द कौल होने के अलावा घड़ीवाला तो हैं ?”
“तो क्या हुआ ? घड़ीवाला पर कौन-सा चार्ज है ?”
“चार्ज था, सोहल होने का चार्ज था, लेकिन डिसमिस हो गया था । क्यों डिसमिस हो गया था । क्योंकि बम्बई पुलिस के रिकार्ड में मौजूद सोहल की उंगलियों के निशान कथित घड़ीवाला की उंगलियों के निशानों से मिलते नहीं पाये गये थे । यानी कि वो कथित घड़ीवाला - जो कि आप हैं - सोहल था या नहीं था, इस बात का मुकम्मल दारोमदार फिंगर प्रिंट्स की एवीडेंस पर था जो कि फेल हो गई थी । ऐसा क्योंकर हुआ ये किसी को नहीं मालूम - शायद सिवाय आपके । लेकिन अब पोजीशन ये है कि आपके” - लूथरा ने अपनी एक उंगली खंजर की तरह विमल की तरफ भोंकी - “अरविन्द कौल या घड़ीवाला जो कोई भी आप हैं, आपके उंगलियों के निशान दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में मौजूद मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल की उंगलियों के निशानों से मिलते हैं ।”
“झूठ ! बिल्कुल झूठ ! ऐसा नहीं हो सकता ।”
“क्यों नहीं हो सकता ?”
“क्योंकि... क्योंकि...”
“हां, हां । बोलिये ।”
विमल खामोश हो गया । उससे ये कहते न बना कि योगेश पाण्डेय ने उसे आश्वासन दिया था कि उसकी उंगलियों के निशान दिल्ली पुलिस के रिकार्ड से गायब किए जा चुके थे ।
“ये देखिये” - लूथरा एक कागज उसके सामने फेंकता हुआ बोला - “ये वो उंगलियों के निशान हैं जो क्रैश हैल्मेट पर से उठाये गये थे और जिन्हें आप सोमवार तेईस तारीख को यहीं, अपनी बीवी की मौजूदगी से पहले भी देख चुके हैं और ये” - उसने एक और कागज विमल के सामने फेंका - “सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल की उंगलियों के निशानों का स्टैण्डर्ड चार्ट है जिसे कि मैं दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में से खास आपको दिखाने के लिये निकाल के लाया हूं । और ये आतशी शीशा है । आप खुद मिलान करके देखिये कि निशानों के ये दोनों सैट आपस में मिलते हैं या नहीं ।”
विमल ने वैसा किया । आतशी शीशा लेकर बहुत गौर से उसने उंगलियों के निशानों का मिलान किया ।
निशान हू-ब-हू मिलते थे ।
उसने शीशा और चार्ट वापिस मेज पर रख दिये ।
“ठीक ?” - लूथरा बोला ।
विमल ने उत्तर न दिया ।
“अब मैं आपके चमड़ा मढे लाल ब्रीफकेस पर आता हूं ।” - लूथरा बोला - “जो आप रात-ब-रात अपने साथ ले के फिरते हैं ।”
“उसको क्या हुआ ?” - विमल बोला ।
“हुआ कुछ नहीं । वो भीतर आपके बैडरूम में बनी वार्डरोब में सुरक्षित मौजूद है । लेकिन उसमें एक और चीज भी सुरक्षित मौजूद है ।”
“क्या ?”
“आप जानते ही हैं । रिवाल्वर । जर्मन । एफ फोरटीन माडल । चवालीस बोर की । साथ में हालो प्वायन्ट बुलेट्स । आप का खास हथियार जिसके सदके आपने पिछले मंगलवार से शहर में कहर मचाया हुआ है ।”
“एक बार यहां का ताला खोल लेने के बाद तुम यहां कुछ भी फ्लांट कर सकते हो ।”
“आप हर चीज से मुकर सकते हैं लेकिन दो चीजों से नहीं मुकर सकते । एक आप अपने फिंगरप्रिंट्स से नहीं मुकर सकते जो कि पुलिस के रिकार्ड में है और दूसरे आप अपनी तसवीर से नहीं मुकर सकते जो कि आठ-नौ महीने पहले बम्बई के इन्डियन एक्सप्रैस में छपी थी । दो और चीजों से आप मुकर तो नहीं सकते लेकिन उनको झुठलाने की कोशिश कर सकते हैं । वो हैं पंडारा रोड वाले वृद्ध पुजारी की गवाही और उन दो बदमाशों की गवाही जो कि उसे टीम के अंग थे जो कल रात आपका कत्ल करने के लिये यहां आयी थी ।”
“हूं ।”
“जमा ढेरों सरकमस्टांशल एवीडेंस । जमा आपकी राशन कार्ड वाली तसवीर की पहाड़गंज वाले सिख हत्यारे के हुलिये तक स्टैपवाइज ट्रांसफार्मेशन । जमा शफीक खबरी का बयान कि वो नकली सिख ठेठ पंजाबी बोलता था । जमा चण्डीगढ के कीरतसिंह का बयान जिसे यहां बुलाकर आपके रूबरू भी कराया जा सकता है । जमा आप अपने आपको कश्मीरी बताते हैं जब कि पता नहीं आपको कश्मीरी जुबान तक भी आती है या नहीं ।” - लूथरा ने गौर से विमल को देखा और फिर बोला - “आपकी सूरत से लगता है कि कश्मीरी आपको खूब आती है ।”
“काअशुर जान्नअ् खातिरअ् छु न्अ काअशुर आसुन जरूरी ।”
“जी !” - लूथरा उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “क्या फरमाया ?”
“मैंने कहा कश्मीरी जानने के लिये कश्मीरी होना जरूरी नहीं ।”
“ओह, तो अभी कश्मीरी बोल रहे थे आप । साबित करने के लिये कि आपको कश्मीरी आती है । मुझे तो आती नहीं कश्मीरी इसलिये मैं न समझ सका कि पहले आपने क्या कहा था ।”
विमल खामोश रहा ।
“वैसे ऐन मेरे मन की बात कही आपने, जनाब, कश्मीरी जानने के लिये वहां का होना जरूरी नहीं ।”
“और ?”
“और बस । और तो अब यही बाकी है कि आप अपनी जुबान से कबूल करें कि आप सोहल हैं ।”
“अभी इनकार की गुंजायश है ?”
“आप बताइये ?”
“दिखाई तो नहीं देती ।”
“बिल्कुल ठीक पहचाना आपने ।”
“तुम्हें सूझा है कि जो खतरनाक डकैत और खूंखार हत्यारा तुम मुझे साबित करने की कोशिश कर रहे हो, तुम यहां उसके सामने अकेले बैठे हो ?”
“सूझा है । बखूबी सूझा है ।”
“फिर भी खौफजदा नहीं हो ! अगर मैं दर्जनों खून कर चुका हूं तो एक खून और करने में मुझे क्या हिचक होगी ?”
“कोई हिचक नहीं होगी । आप एक क्या दर्जनों खून और कर सकते हैं लेकिन मेरा खून आप नहीं कर सकते । मुझे आपसे कोई खतरा नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मैंने आपकी केस हिस्ट्री पढी है जो मुझे ये बताती है कि आपने कभी किसी बेगुनाह का खून नहीं किया । मैने कोई गुनाह नहीं किया । मैं बेगुनाह हूं । अगर आप मेरा कत्ल करेंगे तो यह पहला मौका होगा जबकि आप किसी बेगुनाह के खून से अपने हाथ रंगेगे । आपकी ऐसी कोई नीयत होती तो मैं कब का परलोक सिधार चुका होता । ये कोई पहला मौका नहीं है जबकि मैं आपके सामने अकेला बैठा हूं । हकीकत ये है कि मैं जब भी आप से मिला हूं, अकेला मिला हूं । बहुत मौके हासिल थे आपको मेरा कत्ल करने के लेकिन आपने ऐसा नहीं किया । इसलिये नहीं किया क्योंकि कत्ल को न्यायसंगत जान के करना और उसको जरूरत जान के करना एक ही बात नहीं होती । आपका दिल जानता है कि मेरा कत्ल करना न्यायसंगत नहीं हो सकता, अलबत्ता वो आपकी जरूरत हो सकता है ।”
“वैरी वैल सैड । अब बोलो तुम चाहते क्या हो ? मुझे गिरफ्तार करने की नीयत तो तुम्हारी नहीं दिखाई देती । होती तो तुम इतनी लम्बी-लम्बी बातें न कर रहे होते ।”
“ठीक कहा आपने । मेरी नीयत आपके गिरफ्तार करने की होती तो क्या मैं यहां अकेला आया होता ? मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल की गिरफ्तार करना किसी अकेले आदमी के बूते की बात नहीं हो सकता ।”
“तो क्या चाहते हो ? अपनी जानकारी की कोई फीस ?”
“मैंने बहुत मेहनत की है आप पर ।”
“और अब तुम उसका कोई सिला चाहते हो ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“बीस ।” - लूथरा निसंकोच बोला ।
“क्या बीस ?”
“लाख ”
“क्या बीस लाख ?”
“रुपया ।”
“मेरी बाबत अपनी जुबान बन्द रखने की फीस तुम बीस लाख रुपया मांगते हो ?”
“जो कि मैंने अपनी औकात को मद्देनजर रख के मांगी है । सोहल की औकात को मद्देनजर रख के मांगी होती तो रकम करोड़ों में होती ।”
“तुम किस्तों में करोड़ों तक पहुंचने की सोच रहे होगे ।” 
“क्या मतलब ?”
“अभी बीस लाख मांग रहे हो जब वो मिल जायेंगे तो और बीस लाख की मांग खड़ी कर दोगे । ऐसी मांगें फटे जूते की तरह किस कदर बढती चली जाती हैं, मैं क्या जानता नहीं ?”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं ।”
विमल हंसा ।
“मेरा वाकई ऐसा कोई इरादा नहीं । मैं बहुत संतोषी जीव हूं ।”
“ऐसा करप्ट पुलिसिया और संतोषी जीव !”
“आप खामखाह इस बात को बहस का मुद्दा बना रहे हैं । मेरी मांग सिर्फ बीस लाख रुपये की है । फुल एण्ड फाइनल । आपका जी चाहे, मेरी बात पर एतबार कीजिये, जी चाहे न कीजिए । मैंने इस बाबत और कुछ नहीं कहना ।”
“चलो कर लिया एतबार ।”
“शुक्रिया !”
“बदले में मुझे क्या मिलेगा ?”
“आजादी । चैन का सांस । क्योंकि जो कुछ मैं जानता हूं, वो मेरे सिवाय कोई नहीं जानता ।”
“क्यों ? तुम्हारे थाने वाले ? तुम्हारे उच्चाधिकारी ?”
“कोई कुछ नहीं जानता । आप पर जो रिसर्च मैंने की है, उसकी मैंने किसी को भनक नहीं लगने दी ।”
“ऐसे कागजात” - विमल ने मेज पर पड़े फिगरप्रिट्स के चार्ट और अखबार की फोटोकापी की ओर इशारा किया - “वो तसवीर वगैरह जो तुम मुझे वक्त-वक्त पर दिखाते रहे हो, थाने में तो रखते होगे जहां कोई तुम्हारी गैरहाजिरी में भी तो उन्हें देख सकता है ।”
“आप खातिर जमा रखिये । ऐसा कुछ होना मुमकिन नहीं ।”
“तुम गारन्टी करते हो कि मेरी बावत तुम्हारी रिसर्च का कोई गवाह नहीं ?”
“हां ।” - सहजपाल को याद करते हुए लूथरा ने साफ झूठ बोला ।
“बीस लाख के बदले पुख्ता क्या मिलेगा मुझे ?”
“वो फाइल जिसमें आपकी बाबत तमाम कागजात हैं ।” 
“जिसकी डुप्लीकेट तुम पहले ही बनाकर रख लोगे ?”
“नेवर ।”
“क्या गारन्टी है ?”
“मेरी जुबान के अलावा कोई गारन्टी नहीं लेकिन” - लूथरा दिलेरी से बोला - “मेरी जुबान पर एतबार करने के अलावा आपके पास कोई चारा भी तो नहीं । मेरी बीस लाख की मांग फाइनल है, जैसे आप इस बात पर एतबार कीजिये कि आपकी फाइल की मेरे पास कोई डुप्लीकेट नहीं । न होगी ।”
“अभी तुमने कहा था कि तुम्हारा कत्ल मैं इसलिये नहीं कर सकता क्योंकि मैंने कभी किसी बेगुनाह का खून नहीं किया ?”
“जी हां ।”
“ब्लैकमेल को तुम गुनाह नहीं मानते ?”
“ब्लैकमेल ?”
“एक ब्लैकमेलर का कत्ल करना तो न्यायसंगत हो सकता है न ?”
“मैं ब्लैकमेलर नहीं ।”
“तो और क्या हो ? कर तो रहे हो मुझे ब्लैकमेल !”
“मैं आपको ब्लैकमेल नहीं कर रहा । मैं आपसे अपनी मेहनत का सिला मांग रहा हूं । मैं आपकी आजादी का आपसे सौदा कर रहा हूं ।”
“सिला न मिलने पर, सौदा कबूल न होने पर क्या करोगे ?”
“मैं आपको गिरफ्तार कर लूंगा ।”
“और ब्लैकमेल किसे कहते हैं ?”
“इसे नहीं कहते । ये न भूलिये कि आपकी गिरफ्तारी पर इनाम है । सरकारी भी और गैरसकारी भी ।”
“गैरसरकारी भी ?”
“गुरबख्शलाल को भूल रहे हैं आप । उसने खूद अपनी जुबानी मुझे आफर दी कि अगर मैं आपको गिरफ्तार करा दूं तो वो मुझे सरकारी इनाम की रकम से दुगनी रकम देगा ।”
“यानी कि गुरबख्शलाल की आफर नामंजूर करके तुम मेरे ऊपर अहसान कर रहे हो ?”
“आप खामखाइ की बहस में पड़ रहे हैं । मैंने आपको एक पेशकश की है जिसे मंजूर या नामंजूर करना आपकी मर्जी पर मुनहसर है । ये बहस का मुद्दा नहीं । बरायमेहरबानी दो टूक फैसला कीजिये । हां या न ।”
“रकम ज्यादा है ।”
लूथरा ने लापरवाही से कन्धे झटकाये ।
“मेरे सिर पर तीन लाख रुपये का सरकारी इनाम है वो सात राज्यों की पुलिस का घोषित किया हुआ है । सात जुदा-जुदा महकमात से कई महीनों में तीन लाख रुपये बटोर पाओगे । जहां तक गुरबख्शलाल का सवाल है मेरी सिर्फ गिरफ्तारी से उसका मतलब हल नहीं होने वाला । छ: लाख के इनाम के बदले में वो मुझे फांसी के फंदे पर झूलता देखता पसन्द करेगा ।”
“ये तमाम मेरे सिरदर्द हैं । आपका इनसे कुछ लेना-देना नहीं । आप उस बात का जवाब दीजिये जो आपके सामने है ।”
“मेरे पास बीस लाख रुपया नहीं है ।”
“ये वो शख्स कह रहा है जिसने बैकों का, प्राइवेट वाल्टों का और पता नहीं और कितनी पब्लिक आर्गेनाइजेशन्स का और बखिया का करोड़ों रुपया लूटा है ।”
“वो एक लम्बी कहानी हैं ।”
“मै कहानियों से बहलने वाला नहीं ।”
“सुनो, तुम खुद कहते हो कि तुमने इस फ्लैट के चप्पे-चप्पे की तलाशी ली है । कोई करोड़ों की रकम दिखाई दी कहीं तुम्हें ?”
“दिखाई दी होती” - लूथरा के मूंह से निकाला - “तो मैं ले के चलता न बना होता ?”
“ऐग्जैक्टली ।”
“आपने पैसा बैंक में रखा हुआ होगा ?”
“लूट का, डकैती का माल, बैंक में ?”
“खाते में नहीं, लाकर में । किसी लाकर में होगा आपका माल ।”
“नहीं है ।”
“कहीं तो होगा ही ।”
“नहीं है ।”
“नहीं है तो मुहैया कीजिये ।”
“वक्त दो ।”
“यानी कि सौदा मंजूर करते हैं आप ?”
“हां ।”
“ठीक है । मैं आपको कल सुबह तक का वक्त देता हूं ।”
“वक्त कम है ।”
“कल शाम तक खुद मैंने किसी को जवाब देना है आपकी बाबत ।”
“गुरबख्शलाल को ?”
“जी हां ।” - लूथरा एकाएक उठ खड़ा हुआ - “कल सुबह तक बीस लाख रुपया मुहैया कर लीजियेगा वर्ना...”
विमल सहमति में सिर हिलाता हुआ उठा ।
“एक बात ध्यान में रखियेगा ।” - लूथरा बोला - “ये न समझियेगा कि कल सुबह तक आप गायब हो जायेंगे और मुझे ढूंढे नहीं मिलेंगे । मैं आपके पीछे नहीं लगने वाला लेकिन फिर भी आपको ढूंढ निकालने का जरिया है मेरे पास ।”
“अच्छा !”
“जी हां । आपकी मिसेज हनुमान रोड पर स्थित महाजन नर्सिग होम में भरती हैं । मैंने मालूम कर लिया है कि अभी कुछ दिन उनका वहीं रहना निहायत जरूरी है । जब तक वो वहां हैं, तब तक आप कहीं गायब नहीं हो सकते । मैने गलत कहा ?”
“मेरा कहीं गायब होने का कोई इरादा नहीं । अपनी आजादी खरीदने के पीछे मेरा मकसद ही ये है कि अपनी जमीजमाई गृहस्थी छोड़कर मुझे कहीं गायब न होना पड़े ।”
“वैरी गुड ! अब मै रुख्सत होता हूं ।” - उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली - “कल सुबह इसी वक्त, इसी जगह, आपसे फिर भेंट होगी ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
“एक मेहरबानी और कीजियेगा ।”
“क्या ?”
“अब, चिट्ठी और नो चिट्ठी, कल सुबह तक खुदकुशी से परहेज रखियेगा । मैं अपना बीस लाख का नुकसान बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा ।”
“दाता !” - विमल असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला ।
“नमस्ते !”
लूथरा रुख्सत हो गया ।
***
सहजपाल बड़े यत्न से अपने भारी-भरकम जिस्म के नीचे पिछले घंटे-भर से घिसती लड़की के नग्न शरीर पर से उठा और फिर एक आखिरी हसरतभरी निगाह लड़की पर डालता हुआ उस कुर्सी की ओर बढा जिस पर उसके कपड़े पड़े थे ।
निहायत कमसिन, निहायत हसीन वो लड़की डिफेंस कालोनी वाली वो कालगर्ल थी जिसकी एक रात की कीमत दस हजार रुपये थी और जो केवल फाइव स्टार होटलों में ही काल पर जाती थी । उसका नाम निशा था ।
सहजपाल को वो दो हजार रुपये में हासिल हुई थी क्योंकि रात की जगह दिन था, सारी रात की जगह उसने उसका सुख केवल एक घंटा पाया था, दस हजार की जगह दो हजार रुपये - वो भी अनिच्छा से - अपने पुलसिये होने का नाजायज फायदा उठाकर और ‘रेड पड़वा दूंगा । सबको गिरफ्तार कर दूंगा’ जैसी धमकियां इस्तेमाल करके दिये थे और किसी फाइव स्टार होटल के कमरे की जगह वो डिफेंस कालोनी के निशा के ही घर में उसके बैडरूम में मौजूद था ।
निशा ने पलंग पर पड़े एक कम्बल को अपने नग्न शरीर पर खींचने का प्रयत्न किया ।
“रहने दे ।” - सहजपाल रंगीन स्वर में बोला ।
निशा ने सहमति में सिर हिलाया, उसने कम्बल पर से हाथ खींच लिया और जबरन मुस्कराई ।
सहजपाल ने भी बड़े अश्लील ढंग से दांत निकाले । उस घड़ी उसकी मानसिकता भोजन करके हटे उस शख्स जैसी थी जिसका पेट तो भर गया था लेकिन नीयत नहीं भरी थी ।
बहरहाल आज उसकी बड़ी पुरानी ख्वाहिश पूरी हो गयी थी । वो वो ‘माल’ हासिल करने में कामयाब हो गया था जिसे वो अफोर्ड नहीं कर सकता था ।
कपड़े पहन चुकने के बाद वो पलंग के करीब पहुंचा । उसने हाथ बढाकर पूरी बेशर्मी से निशा के नग्न स्तनों को टटोला, उसके गाल पर एक चिकोटी काटी और फिर बोला - “फिर मिलेंगे, जानेमन ।”
निशा केवल मशीनी अन्दाज से मुस्कराई ।
“नाम क्या है तेरा ?” - इतना कुछ हो चुकने के बाद तब कहीं जाकर सहजपाल को उसका नाम पूछना सूझा ।
निशा फिर केवल मुस्कराई ।
“कोई बात नहीं ।” - सहजपाल बड़ी दयानतदारी से बोला - “नाम में क्या रखा है ! जो रखा है, वो तो कहीं और ही रखा है ।”
एक आखिरी हसरतभरी निगाह ‘कहीं और’ डालकर वो कमरे से बाहर निकल आया ।
बाहर दरवाजे के करीब एक युवक खड़ा था जिसने बड़े असहिष्णुतापूर्ण भाव से सहजपाल को देखा । उस युवक का नाम मनोज था और वो निशा का भाई था ।
“अच्छा, भई ।” - सहजपाल उसके कन्धे पर हाथ रखता हुआ बोला - “फिर आयेंगे कभी ।”
“मत आना ।” - मनोज उसका हाथ परे झटकता हुआ कठोर स्वर में बोला - “पछताना पड़ेगा ।”
“क्या बकता है ?”
“मैं अभी थाने होकर आ रहा हूं । एस एच ओ ने बोला है कि दोबारा तुम इस घर के करीब भी फटके तो गिरफ्तार कर लिये जाओगे ।”
“एस एच ओ ने बोला है ?”
“जो कि हमारे से हफ्ता खाता है ।”
“अबे, मैं खुद पुलसिया हूं !”
“फिर भी गिरफ्तार कर लिये जाओगे । आजमा के देख लेना ।”
“साले ! अभी एक घंटा पहले तो तेरे ये तेवर नहीं थे !”
“पहले मैं डर गया था ।”
“अब दिलेर हो गया है ? थानेदार की हां से ?”
“हां !” - मनोज पूरी निडरता से बोला - “अब तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा हूं । लौट के न आना । मुफ्तखोरों के लिये यहां कोई जगह नहीं ।”
“साले ! दो हजार रुपये नहीं दिये ?”
“बोला न, मुफ्तखोरों के लिये यहां कोई जगह नहीं ।”
“मैं देख लूंगा ।”
“मैं भी देख लूंगा ।”
“तू क्या देख लेगा ?”
“तू क्या देख लेगा ?”
“मालूम पड़ जायेगा ।”
“तुझे भी मालूम पड़ जायेगा ।”
“साला ! बहन का दलाल !”
“तू साला रंडी का यार ! मुफ्तखोर पुलसिया ! सरकारी सांड !”
सहजपाल कुछ क्षण दांत पीसता उसे घूरता रहा, फिर वो आगे बढा ।
“पिछवाड़े से चल ।” - मनोज बोला ।
सहजपाल ने फिर आग्नेय नेत्रों से उसे घूरा और फिर युवक द्वारा दर्शाये पिछवाड़े के रास्ते पर बढा ।
वो उस घड़ी इमारत की पहली मंजिल पर था और पिछवाड़े में जो लोहे की सीढियां थीं वो सीधी पिछवाड़े की गली में उतरती थीं । वो गली से दूसरी ही इमारत थी और गली करीब ही आगे मुख्य सड़क से जा मिलती थी ।
उसने एक बार सामने सड़क की ओर निगाह डाली जहां कि एक काले शीशों वाली काली एम्बेसेडर कार खड़ी थी और फिर सीढियां उतरने लगा ।
मनोज सीढियों के दहाने की चौखट से लगा उसे जाता देखता रहा ।
काली एम्बेसेडर कार की पिछली सीट का गली की ओर शीशा जरा-सा नीचे हुआ और फिर उसमें से एक कोई लम्बी-सी चीज बाहर को सरकी ।
मनोज की निगाह कार की ओर उठी । उस सरकती चीज की जगह से उसकी तवज्जो पिछली खिड़की की ओर गयी ।
अपने में ही मग्न सहजपाल की कार की तरफ तवज्जो तक नहीं थी । वो मग्न मन से होंठों में कुछ गुनगुनाता, फुदकता-सा सीढियां उतर रहा था ।
काली कार का शीशा एकाएक पूरा नीचे गिरा और फिर मनोज को पहले एक स्टेनगन, फिर स्टेनगन थामे हाथ और हाथों के मालिक की सूरत दिखाई दी ।
उसके नेत्र फट पड़े ।
तभी गोलियों की एक बाढ-सी सीढियों की दिशा में आयी और सहजपाल के शरीर के विभिन्न भागों से टकराई ।
आतंकित मनोज ने तत्काल दरवाजा बन्द कर लिया ।
“चलो ।” - स्टेनगन की नाल को वापिस भीतर खींचते लट्टू ने ड्राइविंग सीट पर मौजूद फौजी को हुक्म दिया ।
तत्काल एम्बेसेडर यह जा वह जा ।
बाकी की सीढियों से उलटकर सहजपाल धड़ाम से गली में गिरा ।
उस घड़ी आखिरी सांस आने तक भी अपने आक्रमणकारी के बारे में सोचने की जगह वो पीछे छूट गयी उस कालगर्ल के बारे में सोच रहा था जो कि सिर्फ सत्रह साल की थी, जिसकी फीस दस हजार रुपये थी लेकिन जिसे उसने सिर्फ दो हजार रुपयों में हासिल किया था और जिसका अक्स एक्शन रीप्ले की तरह अभी भी उसके मानस पटल पर अंकित हो रहा था ।
***
आर के पुरम में स्थित अपने आफिस में बैठे, ऐन्टी टैरेरिस्ट स्क्वायड के, पुलिस में डिप्टी कमिश्नर के बराबर का दर्जा रखने वाले उच्चाधिकारी योगेश पाण्डेय ने बड़े गौर से विमल की दुश्वारी की वो दास्तान सुनी जिसकी बुनियाद सब-इंस्पेक्टर अजीत लूथरा था ।
“हूं ।” - आखिरकार विमल खामोश हुआ तो पाण्डेय ने बहुत गम्भीरतापूर्ण हुंकार भरी - “हूं ।”
विमल खामोश रहा ।
“तो ये हंगामे हैं ?”
विमल के चेहरे पर एक खेदपूर्ण मुस्कराहट आयी लेकिन वो मुंह से कुछ न बोला ।
“रोज अखबार पढता हूं । लेकिन कभी सपने में ख्याल नहीं आया कि शहर में पिछले दिनों से जो इतना हंगामा बरपा है, उसकी वजह तुम हो सकते हो । खबरदार शहरी ! वाह ! नाम बढिया गढा है अखबार वालों ने तुम्हारे लिए !” - पाण्डेय एक क्षण ठिठका, उसने सहानुभूतिपूर्ण भाव से विमल को एक क्षण देखा और फिर बोला - “तो शान्ति से नहीं बैठ पाये दिल्ली शहर में ।”
“मेरी बदकिस्मती ।” - विमल बोला ।
“बाज लोगों की गुजश्ता जिन्दगी प्रेत की तरह उनके साथ लगी रहती है । तुम शायद वैसे ही आदमी हो ।”
“शायद ।” - विमल खिसियाया-सा हंसा ।
“चाहते क्या हो ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“उस सब-इंस्पेक्टर से तो पीछा छुड़ाना ही चाहते हो । और क्या चाहते हो ?”
“और मैं ये जानना चाहता हूं कि ऐसा क्योंकर हुआ कि अभी भी दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में मेरी उंगलियों के निशान मौजूद हैं ?”
“मैं खुद इसी बात से हैरान हो रहा हूं । जिस आदमी से मैंने तुम्हारी उंगलियों के निशान रिकार्ड से गायब करवाकर उनकी जगह कोई और नामालूम निशान रखवाये से वो मेरा बहुत ही भरोसे का आदमी था । यकीन नहीं आता कि उसने मुझे धोखा दिया । काम किये बिना कह दिया कि काम हो गया ।”
विमल खामोश रहा ।
पाण्डेय कुछ क्षण उंगलियों से मेज ठकठकाता रहा और फिर बोला - “अब सबसे पहले इसी बात की तसदीक होनी चाहिये कि रिकार्ड में वाकई तुम्हारी उंगलियों के निशान मौजूद हैं ।”
“लूथरा ऐसा कहता है ।”
“वो एक करप्ट पुलसिया है जो ब्लैकमेलर बनने जा रहा है । वो कुछ भी कह सकता है ।”
“उसने मेरे फिंगरप्रिंट्स मुझे दिखाये थे जो कि वो पुलिस के रिकार्ड में से खास मुझे दिखाने के लिए निकालकर लाया था ।”
“देयर यू आर ।” - पाण्डेय चुटकी बजाता हुआ बोला - “इसी से साबित होता है कि बात में कोई भेद है ।”
“क्या मतलब ?”
“ऐसा रिकार्ड मूव नहीं किया जा सकता । कम-से-कम किसी सब-इंस्पेक्टर को यूं रिकार्ड में से कोई फिंगरप्रिंट्स निकालकर नहीं सौंपे जा सकते । फिर भी जरूरत हो तो उसे प्रिंट्स की जेरोक्स कापी मुहैया कराई जा सकती है । तुम्हें उसने तुम्हारे फिंगरप्रिंट्स की जेरोक्स कापी दिखाई थी ?”
“नहीं ।”
“ओरिजिनल चार्ट दिखाया था ?”
“हां ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“ओरिजिनल चार्ट उसे हासिल नहीं हो सकता ।”
“नियम के मुताबिक नहीं हो सकता न !” - विमल उतावले स्वर में बोला - “लेकिन पुलिस के महकमे में या किसी भी सरकारी महकमे में क्या हर काम नियम से होता है ?”
“ये भी ठीक है । तुम्हें कैसे मालूम है कि जो चार्ट उसने तुम्हें दिखाया था, वो तुम्हारी ही उंगलियों के निशानों का था ?”
विमल ने बताया ।
“ओह !” - पाण्डेय बोला - “लेकिन फिर भी मुझे एतबार नहीं कि मेरे आदमी ने मुझे धोखा दिया ।”
“अब जो प्रत्यक्ष है...”
“जो प्रत्यक्ष है मैं उसकी भी तसदीक चाहता हूं और ऐसी तसदीक मैं खुद करूंगा । उसके लिये तुम मुझे थोड़ी मोहलत दो ।”
“उसने मुझे कल सुबह तक का वक्त दिया है ।”
“बहुत वक्त है । मैंने जो करना है, वो मैं आज ही कर लूंगा । तुम मुझे शाम को मिलना । चार बजे फिर यहां आ जाना । ओके ?”
“वो तो मैं आ जाऊंगा लेकिन उंगलियों के निशानों में कोई भेद न निकला तो ?”
“तो स्थिति विकट होगी । सच पूछो तो तुम्हारे खिलाफ अहमतरीन सबूत तो ये ही है ।”
“बम्बई के अखबार में छपी मेरी घड़ीवाला वाली तसवीर भी तो ?”
“उससे तुम फिर भी मुकर सकते हो । लोग पड़े कहते रहें कि घड़ीवाला की सूरत तुमसे मिलती है लेकिन तुम अपनी इस जिद पर अड़े रह सकते हो कि नहीं मिलती । अखबारों में छपी कोई काली सफेद तसवीर किसी की सूरत की कोई सौ फीसदी रिप्रोडक्शन तो पेश करती नहीं इसलिये...”
“मुकर तो मैं फिंगरप्रिंट्स के अलावा हर बात से सकता हूं, मुकर ही रहा हूं । लेकिन यूं मेरा फोकस में आ जाना भी तो मेरे लिये नुकसानदेह साबित हो सकता है । लूथरा की सारी रिसर्च अखबारों तक पहुंच गयी तो मेरा बिल्कुल ही बेड़ागर्क हो जायेगा । मेरी कोई गहरी तफ्तीश हो गयी तो मैं ही अपने बयान में ऐसी बातें कहने लगूंगा जो एक-दूसरे को काटती हुई होंगी । यहां के फिंगर प्रिंट्स लूथरा के किसी फ्राड का नतीजा निकल भी आयें तो भी अभी पांच और राज्यों की पुलिस के पास मेरे फिंगर प्रिंट्स मौजूद हैं । एक बार मेरे ऊपर ये फोकस होने की देर है कि अपने आपको अरविन्द कौल बताने वाला शख्स मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल हो सकता है तो फिर वाहेगुरु ही मेरा मालिक होगा । ऊपर से ट्रेजेडी ये है कि मैं फरार भी नहीं हो सकता । बीमार, प्रेग्नेंट बीवी की सूरत में मेरे पांव में जो बेड़ी पड़ी है, उसे मैं नहीं तोड़ सकता । मैं मरूं या जिऊं, मौजूदा हालात में मैं नीलम को छोड़ के नहीं जा सकता ।”
“समस्या तो, भई, गम्भीर है तुम्हारी ।”
विमल खामोश रहा ।
“लेकिन इसका एक आसान हल भी तो है तुम्हारे पास ।”
विमल की भवें उठीं ।
“भई, चुकता कर दो उस करप्ट पुलसिये को बीस लाख रुपया । तुम्हारे लिये तो ये मामूली बात होगी । अभी चन्द महीने पहले ही तो बादशाह अब्दुल मजीद दलवई के कैसीनो का करोड़ों रुपया लूट के हटे हो ।”
“ये रास्ता मैं तब अख्तियार करूंगा जब मुझे अपने सामने दूसरा और कोई रास्ता दिखाई नहीं देगा लेकिन अभी मैं इतना नाउम्मीद नहीं हुआ । न ही मेरा खुद की सलाहियात से एतबार उठ गया है । गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज कर रहा हूं कि मैं यहां तुमसे अपनी दुश्वारी का कोई हल पूछने नहीं आया । मेरे यहां आने का असल मकसद ये जानना है कि मैं ये मुगालता अपने मन में पाले रहूं कि योगेश पाण्डेय के सौजन्य से दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में मेरे फिंगरप्रिंट्स नहीं हैं या मैं फिंगरप्रिंट्स की धमकी की तलवार अभी भी अपने सिर पर बदस्तूर लटकी हुई समझूं ?”
“शाम को । शाम को जवाब दूंगा मैं तुम्हें इस बात का । शाम को ही बाकी बातें भी होंगी । शाम को आना । चार बजे । यहीं । ओके ?”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब मुझे अपने फिंगरप्रिंट्स दो ।”
विमल ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा ।
“कम्पैरिजन के लिये । और कैसे मालूम होगा मुझे कि रिकार्ड में जो फिंगरप्रिंट्स हैं वो तुम्हारे हैं या नहीं ?”
“ओह !”
***
साउथ एक्सटेंशन में स्थित डलहौजी बार की बेसमैंट का एक विशाल कमरा किसी बड़ी कम्पनी के छोटे-मोटे कान्फ्रेंस हाल की तरह सजा हुआ था । वहां एक विशाल गोल मेज के इर्द-गिर्द वो छः जने बैठे थे जो कि राजधानी के क्राइम के बादशाह थे और जिनमें गुरबख्शलाल का दर्जा बादशाहों के बादशाह का था । उसके और झामनानी के अलावा जो और चार जने वहां मौजूद थे, वो थे जामा मस्जिद के इलाके का टॉप का दादा सलीम खान, आजादपुर के इलाके का खतरनाक आर्म्स स्मगलर पवित्तरसिंह, सारे शहर में छूत की बीमारी की तरह फैली झुग्गी-झोंपड़ी का बेताज बादशाह भोगीलाल और लैंड ग्रैब और इललीगल कंस्ट्रक्शन करने वालों का मसीहा माताप्रसाद ब्रजवासी । अपने उन विशिष्ट धन्धों के अलावा उन सबका दख्ल जुआ, प्रास्टीच्यूशन, नकली शराब, नारकाटिक्स, एक्सटोर्शन, ब्लैकमेल जैसे किसी एक या एक से अधिक धन्धों में भी था जबकि गुरबख्शलाल का दख्ल उन तमाम के तमाम धन्धों में था और उसके अलावा ड्रग्स के धन्धे पर उसका एकाधिकार था । सब के सब गुनाह की गंगा में नहाये पुराने पापी थे जिनमें से सिर्फ झामनानी ने ही कभी गुरबख्शलाल को करारी टक्कर दी थी लेकिन फिर जल्दी ही वो भी टूट गया था ।
जिस एक घटना ने झामनानी को तोड़ा था, वो किसी दन्तकथा की तरह दिल्ली के अण्डरवर्ल्ड में प्रचलित थी ।
लेखूमल झामनानी का सन्तुमल झामनानी नाम का एक छोटा भाई था जो कि झामनानी के गैरकानूनी धन्धों में समान रूप से शरीक था और जो दुर्दान्तता में अपने बड़े भाई से कहीं ज्यादा खतरनाक माना जाता था । जिन दिनों गुरबख्शलाल और झामनानी बन्धुओं के बीच छिड़ी ड्रग्स के ट्रेड के वर्चस्व की वार अपनी चरमसीमा पर थी, उन दिनों सन्तुमल झामनानी एकाएक कहीं गायब हो गया । दो दिन बाद एक शाम को जब उसकी बीवी घर में खाना बना रही थी तो उसके नाम एक पार्सल वहां पहुंचा । उसने पार्सल को खोला तो उसमें से कन्धे से कटी एक बांह बरामद हुई जिसकी कलाई पर सोने की घड़ी और एक उंगली में नीलम की अंगूठी तब भी मौजूद थी । बीवी ने अपने पति की घड़ी और अंगूठी तो पहचानी ही, वो बांह भी पहचानी जिसकी कलाई पर उसके पति का नाम ‘सन्तुमल’ गुदा हुआ था ।
वो वहीं रसोई में पछाड़ खाकर गिरी और फिर अस्पताल में ही उसे होश आया ।
लेखूमल झामनानी और उसकी विवाहित बहन के घर में सन्तुमल की घुटने से कटी एक-एक टांग पहुंची जिसके पांव में जूता और जुर्राब तक भी मौजूद थे ।
सन्तुमल का बाकी जिस्म कभी बरामद न हुआ ।
दो टांगों और एक बांह से ही उसकी चिता प्रज्वलित हुई । श्मशान घाट का पंडित पहले तो ऐसे नामुकम्मल मुर्दे का संस्कार कराने को तैयार ही नहीं हो रहा था लेकिन जब उसे लेखूमल से वहीं शूट कर दिये जाने की धमकी मिली तो तब कहीं जाकर वो ईश्वर से अपने पाप बख्शवाने की रट के साथ सन्तुमल को एक बांह और दो टांगों को ही सालम सन्तुमल मानकर उसका अंतिम संस्कार करने के लिये तैयार हुआ ।
मीटिंग में गुरबख्शलाल से जरा पीछे एक कुर्सी पर कुशवाहा बैठा था और उसी की तरह हर दादा की कुर्सी के साथ लगा उसका कुशवाहा जैसा लेफ्टीनेंट बैठा था ।
अपनी आदत के विपरीत गालियों के अलंकार से मुक्त भाषा में गुरबख्शलाल ने उन लोगों को वो दास्तान सुनाई थी जिसका केन्द्रबिन्दु सोहल था ।
“मैं जानता हूं” - आखिर में गुरबख्शलाल बोला - “कि यहां आप लोगों में कोई-न-कोई ऐसा भी जरूर होगा जो” - वो एक क्षण ठिठका, उसने एक उड़ती निगाह झामनानी की ओर डाली - “ये सोच के मन-ही-मन खुश हो रहा होगा कि अच्छी हुई साले गुरबख्शलाल के साथ ।”
“अरे नहीं, लाल भाई ।” - तत्काल सलीम खान बोला - “ऐसा कहीं हो सकता है !”
“मियां, होने को तो जो न हो जाये वो थोड़ा है इस फानी दुनिया में लेकिन इस वक्त बहस का मुद्दा ये नहीं है कि क्या हो सकता है या क्या नहीं हो सकता । इस वक्त बहस का मुद्दा ये है कि क्या नहीं होना चाहिये । और जो नहीं होना चाहिये, वो ये है कि बाहर से आया कोई दादा, चाहे वो कितना ही जबर क्यों न हो, हमारे ऊपर, हमारे शहर के ऊपर हावी नहीं हो जाना चाहिये ।”
“वडी साईं” - झामनानी धीरे से बोला - “शहर के ऊपर या गुरबख्शलाल के ऊपर ?”
“शहर के ऊपर ।” - गुरबख्शलाल बिना थूक की फुहार छोड़े अभूतपूर्व सब्र के साथ बोला - “आज वो गुरबख्शलाल की आंख में डण्डा किये है, आज वो गुरबख्शलाल की हस्ती मिटाने पर तुला है तो इसका मतलब ये नहीं है कि उसकी गुरबख्शलाल से कोई जाती अदावत है । मेरी हस्ती मिट भी गयी तो मेरे बाद मेरी जगह लेने वाले का - जो कि यहां मेरे सामने मौजूद आप लोगों में से ही कोई होगा - भी मेरे वाला ही हश्र होगा । यही सोहल नाम से जाने जाने वाले हमारे इस बिरादरी भाई के काम करने का तरीका है जिसे कि अपनी बिरादरी की ही आंख में डंडा करने में कोई गुरेज नहीं । यही इसका स्टाइल आफ फंक्शनिंग है । वो हर उस आदमी के खून का प्यासा बताया जाता है जो कि आर्गेनाइज्ड क्राइम का झण्डाबरदार है । यही कुछ उसने बम्बई में बखिया के साथ और उसकी मौत के बाद उसकी बादशाहत सम्भालने के लिये आगे आने वाले ओहदेदारों के साथ किया था, यही कुछ वो यहां भी करेगा । इसलिये ये वहम हर कोई अपने मन से में निकाल दे कि अगर सोहल के हाथों गुरबख्शलाल का कोई बुरा हश्र होगा तो वो बुरा हश्र और किसी का नहीं होगा ।”
झामनानी के अलावा सबने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“कीत्ता की जाये ?” - पवित्तरसिंह बोला ।
“यही तो मैं पूच्छू सू” - भोगीलाल बोला - “इब करना के चइये ?”
“वही करना चाहिये” - गुरबख्शलाल बोला - “जो एक उंगली नहीं कर सकती लेकिन जब तमाम उंगलियां इकट्ठी होकर घूंसा बन जाती हैं तो घूंसा कर सकता है । मौजूदा हालात में वक्त की जरूरत इत्तफाक है । इत्तफाक है वक्त की जरूरत और जरूरत है सोहल के खिलाफ एक सांझा मोर्चा खड़ा करने की । हमें अपनी सामाजिक शक्ति, सारी सलाहियात इकट्ठी करके या तो उसे ढूंढ के खत्म कर देना होगा या फिर उसे इस शहर से खदेड़ देना होगा ।”
“क्या मुश्किल काम है ?” - ब्रजवासी बोला ।
“है मुश्किल काम । उसके पास बेहद खतरनाक और जांबाज लोगों की फोर्स है जिन्हें वो धोबी बताता है । कुशवाहा, जरा सुना तो बिरादरी की धोबियों के दो-चार कारनामे ।”
कुशवाहा ने आदेश का पालन किया ।
“कमाल है !” - कुशवाहा खामोश हुआ तो ब्रजवासी के मुंह से स्वयंमेव ही निकल गया - “धोबी न हुए, आल्हा-ऊदल के सगे वाले हो गये जो एक को मारें, दो मर जायें, तीसरा दहशत से गिर जाये ।”
“और चौथा, पांचवां और छठा मैदान छोड़ के भाग खड़ा हो ।” - गुरबख्शलाल बोला - “ऐसे ही हैं वो धोबी और ऐसा ही है उनका कहर ।”
“लाल भाई” - सलीम खान जोश से बोला - “ईमान कसम, देख लेंगे सालों को ।”
“सालयां नूं बी” - पवित्तरसिंह बोला - “ते ओना दे जीजे माईंयवे सोल नूं भी ।”
“काट के गेर देंगे जी सब्ब नू ।” - भोगीलाल बोला ।
“याद करेंगे पट्ठे कि कोई मिला था ।” - ब्रजवासी बोला ।
“मुझे” - गुरबख्शलाल बोला - “अपने सिन्धी भाई की हामी नहीं सुनाई दी ।”
“वडी साई” - झामनानी तनिक हड़बड़ाकर बोला - “अपनी तो हामी ही हामी है । झामनानी कहीं बिरादरी से बाहर जा सकता है, नी ?”
“किसी भुंगे का मुट्ठी में से निकलना मुमकिन नहीं होता लेकिन अगर मुट्ठी खुली हो तो उंगली पर से रेंग के निकल सकता है वो ।”
“मैं कुछ समझा नहीं साईं ।”
“तू बिरादरी से बाहर नहीं जा सकता, झामनानी, लेकिन गुरबख्शलाल से बाहर जा सकता है ।”
“कैसी बात करता है, साईं, मैं तो...”
“जा रहा है ।”
“किधर से जा रहा हूं, नी ?”
“झामनानी, तूने तो वो ख्वाब देखने शुरू भी कर दिये हैं जिनके ख्याल से ही तू कल तक खौफ खाता था । तू तो अब घड़ियां गिन रहा होगा कि कब गुरबख्शलाल की लाश गिरे और कब तू उसकी जगह काबिज हो ।”
झामनानी उछल के खड़ा हो गया ।
“वडी साई” - वो तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “ये बिल्कुल बेजा इल्जाम है, नी ।”
“बैठ जा ।”
“तू तो घर बुला के बेइज्जत कर रहा है, नी । दाढी नोच रहा है मेरी ।”
“बैठ जा ।”
“लेकिन...”
“कुशवाहा ! इसे अपना टेप सुना ।”
“टेप !”
“हां, टेप । जो तुझे अभी सुनाई देगा । पहले सुन ले । फिर उफनना ।”
सशंक झामनानी वापिस कुर्सी पर बैठ गया ।
कुशवाहा ने टेपरिकार्डर पर चढाकर टेप चलाया ।
कमरे में सोहल का झामनानी के साथ टेलीफोन पर हुआ वार्तालाप गूंजने लगा ।
ज्यों-ज्यों टेप चलता गया, झामनानी के दिल की धड़कन तेज होती गयी । बहुत ही मुश्किल से वो अपने मन के भाव अपने चेहरे पर परिलक्षित होने से रोक पा रहा था ।
आखिरकार टेप बन्द हुआ ।
“अब बोल ।” - गुरबख्शलाल चैलेंज-भरे स्वर में बोला ।
“वडी, क्या बोल्लूं, नी ?” - झामनानी प्रत्यक्षत: लापरवाही से बोला जब कि भीतर से उसका दिल जूतों में उतरा जा रहा था और दिमाग उसका पूरी तेजी से उस दुश्वारी से कोई निजात पाने की तरकीब सोच रहा था ।
“क्या मतलब हुआ इसका ?”
“वडी, तू बोल नी, क्या मतलब हुआ इसका ? तू ही बोल, नी, कि क्या गलत मतलब निकाले बैठा है तू इसका ?”
“मैं गलत मतलब निकाले बैठा हूं ?” - गुरबख्शलाल आंखें निकालता हुआ बोला ।
“और क्या, नी !” - झामनानी पूर्ववत् लापरवाही से बोला - “तभी तो टेप सुना के मेरे को और बाकी साईं लोगों को भी सस्पेंस में डाल रहा है । बिरादरी के सामने मेरी नाक मोरी में घसीटने का सामान कर रहा है ।”
“इस टेप से ये साबित नहीं होता कि तू मेरे खिलाफ सोहल से गठजोड़ का ख्वाहिशमन्द है ?” - गुरबख्शलाल गरजकर बोला ।
“नहीं साबित होता, नी ।” - झामनानी पूरे इत्मीनान से बोला ।
उस अप्रत्याक्षित जवाब से गुरबख्शलाल हकबकाया, उसने घूमकर कुशवाहा को देखा, कुशवाहा को भी हकबकाया पाकर उसने वापिस झामनानी की तरफ देखा ।
“तू” - गुरबख्शलाल उसे घूरता हुआ बोला - “कहीं ये तो नहीं कहना चाहता कि ये टेप फर्जी है ? इसमें दर्ज आवाज तेरी आवाज नहीं ?”
“नहीं ।” - झामनानी बोला - “मैं ये नहीं कहना चाहता, नी ।”
“तो फिर तू इस बात से कैसे मुकर सकता है कि तूने कहा, चार भाइयों ने सुना, कि अगर सोहल गुरबख्शलाल का पत्ता साफ कर दे तो तू उसे इक्कीस तोपों की सलामी दिलवायेगा और खुद अपने हाथ से उसकी आरती उतारेगा ।”
“नहीं मुकर सकता । वडी, किदर से मुकर सकता हूं, नी !”
“तो ?” - गुरबख्शलाल उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “तो फिर ?”
“तो फिर ये कि तू चुप कर, नी, और अब मेरी सुन ।”
“क्या सुनूं ?”
“साईं, वो कर्मामारा सोहल तेरी लाश गिराना चाहता है । ठीक ?”
“ठीक ।”
“वो टेप में साफ ऐसा बोला, नी ?”
“बोला ।”
“मैं उसको मिल-बैठ के बात करने को बोला ?”
“हां ।”
“वड़ी, क्यों बोला, नी ?”
“तू ही बोल ।”
“क्योंकि मिल-बैठने के लिये रूबरू होना पड़ता है । जब वो मेरे रूबरू होता तो जानता है, नी, कि तेरा ये सिन्धी भाई क्या करता ?”
“क्या ?”
“झामनानी उसका सर कलम करके सोने की थाली में रख के तेरी नजर करता ।”
गुरबख्शलाल के चेहरे पर विश्वास के भाव न आये, उसने अपने लेफ्टीनेंट की तरफ देखा तो उसे कुशवाहा भी आश्वस्त दिखाई न दिया ।
“वडी, साईं, इतनी अक्कल तो तेरे में होनी चाहिये कि मैं उसे भरमाने के लिये तेरे खिलाफ बोला । मैं तेरे खिलाफ कड़क न बोलता नी, तो क्या वो मेरे को किसी खातिर में लाता ? मैं और क्या बोलता, नी ? इंसाफ करो, साईं लोगों ! मैं उसे टेलीफोन पर बोलता कि गुरबख्शलाल तो मेरा सगे वाला था, मेरा मांजाया था, गुरबख्शलाल का दुश्मन मेरा दुश्मन था तो वो मेरे से आगे बात भी करना गवारा करता, नी ?”
गुरबख्शलाल के चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये, वो देख रहा था कि उसके बाकी बिरादरी भाई अब झामनानी की बातों से साफ-साफ प्रभावित दिखाई दे रहे थे ।
“यानी कि” - गुरबख्शलाल कठिन स्वर में बोला - “जो कुछ तूने किया, सोहल को जाल में फंसाने की नीयत से किया ?”
“हां ।”
“गुरबख्शलाल की खातिर किया ?”
“बिल्कुल ।”
“फिर तो ये तेरा मेरे पर भारी अहसान हुआ !”
“वडी, तू माने तो तब न, नी । अब्बी तो तू मेरे को ही अपना दुश्मन साबित करने पर तुला हुआ है, नी ।”
गुरबख्शलाल खामोश रहा ।
“साईं, तूने मेरे पर इलजाम लगाया, अब मुझे भी एक इलजाम लगाने की इजाजत दे ।”
गुरबख्शलाल हड़बड़ाया ।
“तू” - वो बोला - “मेरे पर इलजाम लगाना चाहता है ?”
“तेरी इजाजत से, नी ।”
“क्या कहना चाहता है ?”
“साईं, जिस आदमी को तू इतना खतरनाक मानता है कि तुझे उसके खौफ से बिरादरी की मीटिंग बुलानी पड़ती है, उसके सामने झामनानी को तूने थाली में रख के परोस दिया, ये इंसाफ किया तूने ?”
“क्या मतलब ?”
“उस कर्मामारे सोहल ने मेरे को फोन किया । किसने उसे मेरा फोन नम्बर बताया ? किसने उसे मेरा नाम बताया ? किसने उसे मेरा कारोबार बताया ? जाहिर है कि ये तेरे इस खास दायें वाले कुशवाहा की करतूत है । अभी तू इसे ‘अपना’ टेप सुनाने को जो बोला था, नी । साईं, जिसे तू मेरी गद्दारी कहता है वो तो फोन काल के बाद सामने आयी थी, तेरा ये लेफ्टीनेंट तो उससे कहीं पहले मेरे साथ गद्दारी कर चुका था । सोहल के लिये मुझे फोन लगाकर । मेरी करतूत पर सवाल करने वाले गुरबख्शलाल से मेरा सवाल है कि उसने अपने जैसे अपने आदमी की करतूत पर सवाल क्यों नहीं किया ?”
गुरबख्शलाल से जवाब देते न बना ।
“किसने” - अब आशा के विपरीत झामनानी गरज रहा था - “किसने सोहल को ये आइडिया दिया, नी, कि झामनानी वो शख्स था जिसे गुरबख्शलाल के खिलाफ फोड़ा जा सकता था ? क्यों खास मुझे ही इस इज्जत के काबिल समझा गया, नी ? किसने किया ऐसा ? इसने किया” - उसने कुशवाहा की तरफ उंगली तानी - “इसने तेरे दायें वाले ने ! तेरे खास लेफ्टीनेंट ने । तेरे कुशवाहा ने । क्यों ? क्यों खास झामनानी को ही चुना इसने ? अपने मियां को क्यों नहीं बख्शी ये इज्जत इसने ? अपने सरदार को क्यों नहीं चुना ? लाला का नाम क्यों नहीं लिया ? भैय्यन को क्यों नहीं परोसा सोहल के सामने ? सारी बिरादरी में से सिर्फ मुझे सिंगल आउट करके तेरे इस... इस दायें वाले ने ये जाहिर किया है कि तेरे को झामनानी पर न कभी एतबार था, न अब है और न आगे कभी होगा ।”
गुरबख्शलाल ने नोट किया कि बिरादरी भाइयों के तेवर झामनानी के हक में बड़ी तेजी से बदल रहे थे । सबके चेहरों पर झामनानी के लिए सहानुभूति के भाव पैदा हो रहे थे जो बड़ी तेजी से गहराये जा रहे थे ।
“तू तो यार” - वक्त की नजाकत पहचानने में माहिर गुरबख्शलाल मीठे स्वर में बोला - “खामखाह खफा हो रहा है ।”
“खामखाह !” - झामनानी भड़का - “खामखाह बोला नी ?”
“जो कुछ हुआ एक गलत फहमी के तहत हुआ ।”
“वडी, गलतफहमी या यारमारी ?”
“गलतफहमी । देख, कुशवाहा की तो ये ही मंशा थी कि वो... वो सोहल किसी तरह फंसे लेकिन फंसे । इसने किसी का तो नाम लेना ही था । हालात ही ऐसे थे । वो सोहल तो रिवाल्वर ताने इसके सिर पर खड़ा था । ये किसी का नाम न लेता तो जान से जाता । इसने तेरा नाम लिया तो तू भड़क रहा है, ये किसी और का नाम लेता तो कोई और भड़कता ।”
“लेकिन कोई और शायद” - कुशवाहा बोला - “सोहल को इक्कीस तोपों की सलामी दिलाने की या उसकी आरती उतारने की पेशकश न करता ।”
“झूलेलाल !” - झामनानी असहाय भाव से दोनों हाथ फैलाता बड़े नाटकीय स्वर में बोला - “कितना खराब वक्त आ गया है झामनानी तेरा । वडी, अब तो तेरे ऊपर कुत्ते भी भौंकने लगे, नी ।”
“कुशवाहा !” - तत्काल गुरबख्शलाल आंखें निकालता हुआ अपने लेफ्टीनेंट से सम्बोधित हुआ - “थोबड़ा बन्द रख ।”
“जी, साहब ।” - कुशवाहा कठिन स्वर में बोला ।
“अपने सिन्धी भाई से माफी मांग ।”
“झामनानी साहब !” - खून का घूंट पीता हुआ कुशवाहा बोला - “मैं माफी चाहता हूं ।”
झामनानी ने उसकी तरफ झांका तक नहीं ।
“बिरादरी भाइयों के बीच में” - सलीम खान बोला - “तेरे या तेरे जैसे किसी के भी बोलने का कोई मतलब नहीं ।”
“खता हुई, जनाब ।”
“आइन्दा ध्यान रहे ।”
“जी, जनाब ।”
उसके बाद कई क्षण खामोशी रही ।
लेकिन उस खामोशी के दौरान भी झामनानी ने अपने आक्रोश का प्रदर्शन करना नहीं छोड़ा । वो रह-रहकर बेचैनी से पहलू बदलता रहा और आग्नेय नेत्रों से कभी कुशवाहा को तो कभी गुरबख्शलाल को देखता रहा । मन-ही-मन वो अपने बनाने वाले का लाख-लाख शुक्रगुजार हो रहा था कि एक बहुत ही पेचीदा, बहुत ही नाजुक स्थिति से बच निकलने की सूझबूझ वो वक्त रहते दिखाने में कामयाब हो गया था और यूं वही भरी बिरादरी में जन्नतनशीन होने से बच गया था ।
“अब गुस्सा थूक भी दे, यार ।” - गुरबख्शलाल खुशामद-भरे स्वर में बोला ।
“वडी, मैं किधर गुस्से में हूं, नी ।” - झामनानी अनमने स्वर में बोला ।
“है तो सही ।”
“पहले था, नी । अब नहीं हूं ।”
“पक्की बात ?”
“हां”
“शाबाश । जीता रह ।”
“तो फिर” - भोगीलाल बोला - “इब्ब के फैसला होगा ?”
गुरबख्शलाल ने सलीम खान की ओर देखा ।
“फैसला यही है, बिरादरान” - सलीम खान बोला - “कि बाहर से आये किसी दादा को - भले ही वो कितना ही जबर हो, कितना ही मकबूल हो - हम अपने पर, अपने शहर पर हावी नहीं होने देंगे ।”
“वो तो हुआ ।” - ब्रजवासी बोला - “लेकिन ऐसा होगा कैसे ? गुरबख्शलाल धोबियों का जो हौवा हमारे सामने खड़ा कर रहा है, उससे हम कैसे निपटेंगे ?”
“ओ तां जी, दिवार होये” - पवित्तरसिंह बोला - “जो सोहल के आगे अड़े खड़े हैं ।”
“पहले वो दीवार ही गिरानी है ।” - गुरबख्शलाल बोला - “और इसके लिए दो काम जरूरी हैं ।”
“केड़े ?” - पवित्तरसिंह बोला ।
“एक तो हमें एक सामूहिक फोर्स खड़ी करनी होगी जो कि धोबियों से गिनती और ताकत दोनों में कम-से-कम नहीं तो चार गुणा हो ।”
“कोई मुश्किल काम नहीं, लाल भाई ।” - सलीम खान बोला - “आदमी जितने कहोगे, जमा हो जायेंगे । क्यों बिरादरान ?”
झामनानी समेत सबने सहमति में सिर हिलाया ।
“दूसरे” - गुरबख्शलाल बोला - “धोबियों की शिनाख्त होनी चाहिये ताकि हमें उनकी मुकम्मल ताकत का अन्दाजा हो सके । ताकि हम ये फैसला कर सकें कि जो चार गुणा ताकत हम जमा कर रहे हैं, वो हकीकतन कितनी होनी चाहिये ।”
“दुरुस्त !” - सलीम खान बोला ।
“धोबियों की शिनाख्त से हमें दूसरा फायदा ये होगा कि हम उनमें फूट डलवाने की या उन्हें अपनी तरफ फोड़ने की कोशिश कर सकेंगे । सोहल की मुहाफिज इस दीवार की हम कुछ ईंटें भी सरका पाये तो वो दीवार कमजोर हो जायेगी ।”
“बिल्कुल ठीक ।” - पवित्तरसिंह बोला ।
“ये ही वो काम है जो हमारे सामूहिक प्रयत्नों से होगा ।” - गुरबख्लाल बोला - “इसके लिये हम सबको अपने-अपने भेदिये सारे शहर में फैलाने पड़ेंगे । यूं हममें से किसी का कोई आदमी तो धोबियों की कोई खबर पकड़ने में कामयाब होगा । क्यों, सिन्धी भाई ?”
“हां ।” - झामनानी हड़बड़ा कर बोला - “हां । एकदम ठीक बोला, नी ।”
“और इन कोशिशों के दौरान अगर सोहल ने मिल बैठ के बात करने की तेरी पेशकश कबूल कर ली तो फिर तो अकेला तू ही किला फतह करके दिखा देगा ।” - गुरबख्शलाल ने अपलक झामनानी की ओर देखा - “दिखा देगा न ?”
“वडी, साई । ये भी कोई पूछने की बात है, नी ?”
“सोने की थाली तो है न तेरे पास ?”
“क.. क्या ?”
“भई, जिसमें सोहल का सर रखकर मेरी नजर करेगा ? सोचा न हो तो बिरादरी मुहैया करा दे ।”
झामनानी जबरन हंसा ।
बाकी लोगों ने भी हंसी में उसका साथ दिया ।
“और कहने की जरूरत नहीं” - फिर गुरबख्शलाल बोला - “कि धोबियों की प्रोटेक्शन के बावजूद मैं तो उस पर वार करने की कोशिश जारी रखूंगा ही । उसके घर पर भी और उसके आफिस में भी । या और भी जहां कहीं दांव लगे ।”
“वदिया ।” - पवित्तर सिंह बोला ।
फिर मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।
***
डलहौजी बार वाली इमारत के ऐन सामने सड़क से पार एक चार मंजिला इमारत थी जिसमें ‘हाली डे होम’ नाम का एक छोटा-सा गैस्ट हाउस चलता था । उस गैस्ट हाउस की पहली मंजिल के डलहौजी बार के प्रवेश द्वार के ऐन सामने पड़ने वाले एक कमरे की एक पर्दा पड़ी खिड़की के पीछे उस घड़ी विमल और मुबारक अली मौजूद थे । उनके साथ दो आदमी और थे जिनमें से एक मुबारक अली का भरोसे का आदमी अशरफ था और दूसरा कीमती नाम का एक झोलझाल-सा बूढा था जिसे कि उस घड़ी खास तौर से वहां बुलाया गया था ।
विमल ने इच्छा व्यक्त की थी कि उसे गुरबख्शलाल की हर वक्त हर जगह मौजूदगी की खबर होनी चाहिये थी लेकिन ऐसा गुरबख्शलाल के पीछे लगे रहकर सम्भव नहीं मालूम होता था । वो काले शीशों वाली गाड़ी में और ऐसे लाव-लश्कर से घिरा सफर करता था कि अमूमन तो ये ही मालूम नहीं हो पाता था कि काले शीशों के पीछे और लाव-लश्कर के बीच गुरबख्शलाल मौजूद भी था या नहीं ।
लेकिन, विमल ने नोट किया था कि, कुशवाहा का वैसा रख-रखाव नहीं था ।
साथ ही विमल को ये भी अहसास हुआ था कि कुशवाहा साये की तरह अपने बॉस से चिपका रहता था । यानी कि अमूमन अगर कहीं कुशवाहा होता था तो गुरबख्शलाल का भी उसके करीब ही कहीं होना लाजमी होता था ।
इसी आधार पर विमल ने ये फैसला किया था कि कुशवाहा की निगरानी का इन्तजाम करके भी वही नतीजा हासिल किया जा सकता था जो कि सीधे गुरबख्शलाल की निगरानी से हासिल होता ।
तब अशरफ को कुशवाहा के पीछे लगाया गया था ।
दोपहर बाद अशरफ ने खबर की थी कि न केवल गुरबख्शलाल और कुशवाहा डलहौजी बार में पहुंचे थे बल्कि उनके पीछे-पीछे ही एक-एक करके काले शीशों वाली कारों में और बाडीगार्डों के लाव-लश्कर के साथ कई और लोग भी वहां पहुंचे थे जो कि, उनके रख-रखाव से ही लगता था कि, बड़े दादा लोग ही हो सकते थे ।
विमल तक वो खबर पहुंची थी ।
तब विमल ने वहां किसी ऐसे आदमी की मौजूदगी की इच्छा प्रकट की थी जो कि शहर के तमाम बड़े दादाओं को पहचानता हो ।
अशरफ वैसा आदमी नहीं था ।
तब मुबारक अली ने ही किसी तरह कीमती नाम के उस बूढे को खोदकर निकाला जो कभी शहर के तमाम बड़े दादाओं का हमप्याला-हमनिवाला रहा होने का दम भरता था ।
अब जो दादा लोग डलहौजी बार के भीतर दाखिल होते देखे गये थे, उनके बाहर निकलने का इन्तजार किया जा रहा था ताकि हाथ में दूरबीन लिये बैठा कीमती उनकी शिनाख्त कर पाता ।
दो बजे परे पार्किंग में खड़ी काले शीशों वाली एक मर्सिडीज वहां से हिली और डलहौजी बार के प्रवेश द्वार के सामने जा लगी । उसमें से एक आदमी बाहर निकला और मर्सिडीज का बार की ओर का पिछाला दरवाजा खोलकर खड़ा हो गया ।
दो आदमी एक साथ बार के दरवाजे पर प्रकट हुए ।
“सलीम खान ।” - कीमती एकाएक बोला - “सलीम खान है ये । पुरानी दिल्ली का टॉप का दादा है । इसका मेन धन्धा जाली पासपोर्टों का है और अरब देशों के बूढे शेखों को नौजवान लड़कियां सप्लाई करने का है ।”
मुबारक अली ने एक दूरबीन विमल को थमाई जिसकी सहायता से उसने भी सामने देखा ।
“ये दो आदमी हैं ।” - विमल बोला - “इनमें सलीम खान कौन है ?”
“वो जो गुरबख्शलाल के साथ है ।” - कीमती बोला ।
“गुरबख्शलाल कौन है ?”
“सलीम खान जिसके साथ है ।”
“बेवकूफ, मैं गुरबख्शलाल को भी नहीं पहचानता ।”
“सॉरी बॉस । अब मेरे को क्या पता कि...”
“थोड़ा बोल । मतलब का बोल ।”
“वो जो कदरन नौजवान है और ट्विड का चैक वाला कोट और खुले गले की कमीज पहने है, वो सलीम खान है । और वो मोटा, ठिगना, काला सूट वाला आदमी गुरबख्शलाल है ।”
“हूं ।”
सलीम खान मर्सिडीज में सवार हो गया तो मर्सिडीज वहां से रवाना हो गई ।
मर्सिडीज के हटते ही एक होंडा अकार्ड दरवाजे पर आ लगी ।
“भोगीलाल ।” - कीमती उत्तेजित स्वर में बोला - “शहर में कोई झुग्गी इसकी फीस फरे बिना नहीं पड़ सकती । झुग्गी-झोपड़ी की वोटों के लिये बड़े-बड़े नेता लोग भी इसे अपनी गोद में बिठाते हैं । फीस लेकर किसी को भी उठवा देना या उसका खून करवा देना इसके बायें हाथ का खेल है । साथ में झुग्गी-झोपड़ी की ही ओट में बहुत बड़े पैमाने पर नकली शराब का धंधा करता है ।”
विमल ने भोगीलाल की भी सूरत पहचानी ।
“पवित्तरसिंह ।” - कीमती फिर बोला - “आजादपुर का बड़ा दादा है । मैट्रोपोलिटन काउंसलर तक रह चुका है । मेन धन्धा उग्रवादियों को असला बेचना है लेकिन सोने की स्मगलिंग में भी इसका पूरा दखल है । बिना पासपोर्ट लोगों को बार्डर काम कराने का भी स्पेशलिस्ट है ।”
“पवित्तर सिंह ।” - विमल ने नाम दोहराया ।
“ब्रजवासी ।” - कीमती के स्वर की उत्तेजना हर घोषणा के साथ बढ़ती जा रही थी - “माताप्रासाद ब्रजवासी । इसके खास धन्धे हैं लैण्डग्रैब, गैरकानूनी तामीर और जबरिया दुकान मकान वगैरह खाली करवाना । व्यापारियों और कारखानेदारों जबरिया हफ्ता वसूलना । ये अगुवा और फिरौती जैसे कामों में खासी दिलचस्पी रखता है ।”
“जरूर दादा लोगों की” - विमल बोला - “कोई खास ही मीटिंग होकर हटी है ।”
“तेरे ही अन्देशे से दुबले हो रहे होंगे सब के सब ।” - मुबारक अली बोला ।
“सब के सब ?”
“बादशाह हलकान हो तो वजीर उमरा को साथ में हलकान करके ही रखता है, बाप । वो लाल पीला साहब दुबला हो रहा होयेंगा तो बाकी बिरादरी भाइयों को भी दुबला करके ही छोड़ेगा ।”
विमल हंसा ।
“लेखूमल झामनानी ।” - तभी कीमती बोला ।
विमल ने तत्काल दूरबीन में से बाहर झांका ।
तो ये था लेखूमल झामनानी जो उसे घड़ी डलहौजी बार के दरवाजे पर खड़ा गुरबख्शलाल से गले लगकर मिल रहा था ।
“गुरबख्शलाल के बाद” - कीमती कह रहा था - “शहर में बस इस सिन्धी दादा का ही बोलबाला है । वैसे तो हर गैर-कानूनी धन्धे में इसका दखल है लेकिन जुआ, कालगर्ल सप्लाई और स्काच विस्की की स्मगलिंग में इसका ज्यादा गहरा हाथ है । बहुत ताकतवर आदमी है । मन्त्रियों तक पहुंच रखता है ।”
झामनानी भी विदा हो गया ।
उसके बाद गुरबख्शलाल और कुशवाहा एक काली एस्बेसेडर में सवार हुए और बाडीगार्डों की वैसी ही एक और एम्बेसेडर के साथ वहां से विदा हो गये ।
विमल ने दूरबीन वापिस मुबारक अली को थमा दी । 
“अब तू भी दूरबीन का पीछा छोड़ ।” - विमल कीमती से बोला - “जब बड़ा खलीफा निकल गया तो पीछे कोई नहीं बचा होगा ।”
कीमती ने आंखो पर से दूरबीन हटाई तो अशरफ ने दूरबीन उसके हाथों से निकाल ली ।
“कैसे जानता है इतने बड़े दादा लोगों को ?” - विमल बोला ।
कीमती के चेहरे पर एक विषादपूर्ण मुस्कराहट प्रकट हुई लेकिन वो मुंह से कुछ न बोला ।
“कब्बी ये खुद भी बड़ा दादा था ।” - मुबारक अभी धीरे से बोला - “वक्त से मार खा गया ।”
“सिर्फ नाम और सूरतें ही जानता-पहचानता है या इन सबके ठीये ठिकानों की भी खबर रखता है ?”
मुबारक अली ने कीमती की ओर देखा ।
“मैं तो” - कीमती सगर्व बोला - “इनके बाप-दादाओं की भी खबर रखता हूं ।”
“गुड ! मुबारक अली, इससे सब पूछ के रख और फिर नोट करके मुझे देना ।”
मुबारक अली ने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर विमल वहां से विदा हो गया ।
***
लूथरा ने थाने में कदम रखा ही था एक सिपाही बोला - “एस एच ओ साहब पूछ रहे थे ।”
लूथरा ने सहमति में सिर हिलाया ।
वो एस एच ओ रतनसिंह के हुजूर में पेश हुआ ।
उस घड़ी रतनसिंह उसे अपेक्षा से अधिक गम्भीर लगा ।
“बैठो ।” - रतनसिंह बोला ।
“शुक्रिया ।” - लूथरा उसके सामने एक कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला ।
“कहां से आ रहे हो ?” - रतनसिंह बोला ।
“यूं ही जरा इलाके में गश्त पर गया था ।”
“सहजपाल की खबर लगी ?”
“वो मूंदड़ा वाले केस पर ही काम कर रहा होगा । हाल में तो कोई बात हुई नहीं मेरी उससे ।”
“यानी कि नहीं लगी ?” 
“क्या ?”
“खबर । सहजपाल की ?”
“उसकी” - लूथरा सशंक स्वर में बोला - “क्या कोई खास खबर है ?”
“हां बहुत खास खबर है ।”
“क्या ?”
“वो अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“जी !”
“किसी ने उसे शूट कर दिया । गोलियों से भून के रख दिया ।”
“कब ? कहां ?”
“डिफेंस कालोनी के इलाके की एक तनहा गली में । अभी कोई दो घण्टे पहले ।”
“दिन-दहाड़े ?”
“हां ।”
“एक पुलिस आफिसर को ! ”
“वो वर्दी में नहीं था ।”
“फिर भी... वो वहां क्या कर रहा था ?”
“पता नहीं ।”
“कहीं मूंदड़ा की फिराक में हो तो...”
“हो सकता है लेकिन अभी पुष्ट खबर कोई नहीं ।”
“कमाल है !”
“तुम्हारा तो उसके कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं न ?”
“जी !”
“कत्ल खुद न किया हो, किसी पेशेवर कातिल को अपनी कत्ल का इशारा दे दिया हो !”
“तौबा ! कैसी बातें कर रहे हैं, सर ! आप मेरे पर अपने एक सहयोगी पुलिस आफिसर के कत्ल का इलजाम लगा रहे हैं ?”
“तुम उसे नापसन्द करते थे ।”
“तो क्या हुआ ? कोई किसी को नापसन्द करता हो तो वो उसका कत्ल करा देता है ! और फिर क्या मैं अकेला शख्स हूं जो उसे नापसन्द करता था । इस थाने का कौन-सा ऐसा मुलाजिम है जिसे सहजपाल पसन्द था ! गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज कर रहा हूं क्या खुद आप उसे नापसन्द नहीं करते थे ? थाने की नेकनामी पर एक बद्नुमा धब्बा नहीं बताते ये आप उसे ?”
“लेकिन मैंने या मेरे थाने के किसी और मुलाजिम ने कभी उस पर हाथ नहीं उठाया । वो भी उसके घर जाकर । उसकी बीवी की मौजूदगी में ।”
लूथरा हकबकाया । वो कुछ क्षण मुंह बाये रतनसिंह की ओर देखता रहा ।
“किसने कहा ?” - फिर उसके मुंह से निकला ।
“खुद उसकी बीवी ने कहा । उसने बाकायदा शक जाहिर किया है तुम पर अपने खाविन्द के कत्ल का । रिपोर्ट दर्ज कराना चाहती है वो तुम्हारे खिलाफ ।”
“आपने कर ली ?” - लूथरा के मुंह से निकला ।
“अभी नहीं की लेकिन वो जिद पकड़े रहेगी तो करनी पड़ेगी ।”
“क्या कहती है वो ?”
“वो कहती है कि बुधवार पच्चीस तारीख को क्रिसमिस की छुट्टी वाले दिन जब उसका पति जयपुर में एक शादी अटेंड करके आराम बाग अपने घर लौटा ही था तो तुम उसके घर पर आ धमके थे और तुमने उसके साथ मार-कुटाई शुरु कर दी थी जो कि उसने अपनी आंखों से देखी थी ।”
“झूठ ।” - लूथरा आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “बिल्कुल झूठ ।”
“क्या झूठ ?”
“जब जब वो वाकया हुआ था, तब वो वहां नहीं थी । तब वो पीछे के कमरे में थी जहां से जब वो सामने कमरे में आई थी तो तब तक मैं...”
“मैं...”
“तुम अपना हाथ रोक चुके थे । यही कहने जा रहे थे न !”
लूथरा ने जोर से थूक निगली ।
“यानी कि ये बात सच है । सहजपाल की बीवी विद्या ने कुछ देखा या नहीं देखा, ये सच है कि तुमने सहजपाल को, अपने एक फैलो पुलिसमैन को, उसके घर में घुसके पीटा था ?”
“उसने हरकत ही ऐसी की थी ।” - लूथरा के मुंह से निकला ।
“क्या किया था उसने ?”
लूथरा ने होंठ काटे ।
“क्या किया था उसने ?” - रतनसिंह जिदभरे स्वर में बोला ।
“उसने... उसने मेरी गैरहाजिरी में मेरी आफिस टेबल के दराज का ताला जबरन खोलकर भीतर मौजूद फाइल... मेरे कागजात टटोले थे ?”
“कैसे कागजात ?”
“व-वो मेरे कुछ जाती कागजात थे ।”
“जिनका टटोला जाना तुम्हें इतना नागवार गुजारा कि तुम से सहजपाल के ड्यूटी पर लौटने तक का इन्तजार न हुआ । तुमने उस उसके घर जाकर पीटा ?”
लूथरा ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तुम कुछ छुपा रहे हो ।” - रतनसिंह उसे घूरता हुआ बोला ।
“सर, मैं कुछ नहीं छुपा रहा । वो मेरे कुछ जाती कागजात थे जिनमें किसी की ताक-झांक मुझे मंजूर नहीं थी । मेरी सहजपाल से कोई जाती अदावत नहीं । उसकी जगह ये हरकत आने के किसी और मुलाजिम ने की होती तो मैं उससे भी ऐसे ही पेश आया होता । मैं क्या, किसी ने आपका दराज भी यूं टटोला होता तो आप भी मेरी ही तरह आपे से बाहर होकर दिखाते ।”
“मैं भी तुम्हारी तरह किसी के उसके घर पर पीटने पहुंच जाता ?”
“बहुत मुमकिन है ।”
रतनसिंह के चेहरे पर क्रोध के भाव आये लेकिन लूरा नें जानबूझकर उससे निगाह न मिलाई ।
“तो” - आखिरकार रतनसिंह बोला - “सहजपाल के कत्ल में तुम्हारा कुछ लेना देना नहीं ?”
“कतई कुछ लेना-देना नहीं । ऐसा कहीं होता है, सर ! मेरा उस पर जो गुस्सा था, वो तो मैं उतार चुका था...”
“मुमकिन है बुधवार के बाद उसने कोई नई हरकत कर ही हो । पहले से ज्यादा भड़काने वाली । ज्यादा गुस्सा दिलाने वाली । जैसे पहली बार तुम्हारा गुस्सा उसे पीटने से उतरा वैसे हो इस बार शायद तुम्हें वो कत्ल कर दिये जाने के ही काबिल जमा हो ?”
“नैवर, सर । ऐसा कहीं होता है ? सर, और कोई माने न माने, आपको तो मानना चाहिये कि मैं यू किसी के कत्ल पर आमादा नहीं हो सकता ।”
“मै तो मान जाऊंगा, लेकिन मरने वाले की बीवी माने तो तब न ? अभी तो उसकी एक ही रट है कि जरूर तुम्हीं ने उसके खाविन्द का कत्ल करवाया है । और, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि, अगर उसने अपनी रट न छोड़ी, तो केस तो दर्ज करना पड़ेगा मुझे तुम्हारे खिलाफ ।”
“ये तो खामखाह की मुसीबत हो गयी मेरे लिये ।”
“तुम्हें भी तो यूं सहजपाल पर नहीं चढ़ दौड़ना चाहिये था । अगर उसने कोई बेजा हरकत की थी तो तुम्हें उसकी शिकायत लेकर मेरे पास आना चाहिये था ।”
“हां । शायद । लेकिन बीती बात है । अब आप बताइये कि मैं अब... अब क्या करूं ?”
रतनसिंह ने तुरन्त जवाब न दिया ।
“जाके उसकी बीवी से मिलूं” - लूथरा आशापूर्ण स्वर में बोला - “और उसे समझाऊं कि...”
“नैवर । जैसे मूड में उसकी बीवी इस वक्त है, उसमें अभी तुम उसके सामने पड़ गये तो खैर नहीं तुम्हारी । अपनी इस ट्रेजेडी में पगलाई हुई वो औरत तुम्हारी बोटियां नोच डालेगी ।”
“तो फिर मैं क्या करूं ?”
“फिलहाल टिक के बैठो । वो औरत जो हंगामा खड़ा करेगी, मरने वाले के क्रियाकर्म के बाद करेगी । अगर तुम्हारा सहजपाल के कत्ल से कोई लेना-देना नहीं तो मालूम करने की कोशिश करो कि उसका कत्ल किसने कराया होगा ।”
“गुरबख्शलाल ने ।” - तत्काल लूथरा के मुंह से निकला ।
“कौन गुरबख्शलाल ? वो दादा ? वो अण्डरवर्ल्ड का स्वनामधन्य क्राइम किंग ?”
“वही ।”
“उसने किसलिये ?
“सर, सहजपाल पूरी तरह से उस गैंगस्टर के हाथों बिका हुआ आदमी था । मुझे यकीनी तौर पर मालूम है कि वो हमारे महकमे में गुरबख्शलाल के भेदिये का काम करता था । सहजपाल ने, जानबूझकर या अनजाने में, जरूर गुरबख्शलाल की कोई ऐसी काट कर दी होगी जिससे खफा होकर उसने सहजपाल का कत्ल करवा दिया होगा ।” 
“या शायद ये काम लेखराज मूंदड़ा का हो ?”
“जी ?”
“उसे मूंदड़ा के पीछे लगाया गया था । क्या पता मूंदड़ा को फांसने का वो कोई ऐसा सामान करने में कामयाब हो गया हो जिससे निजात मूंदड़ा को सहजपाल के कत्ल में ही दिखाई ही हो ?”
“अपना सहजपाल ?” - लूथरा अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“भई जब उसे केस पर लगाया गया था तो उसने कुछ तो खोजबीन की ही होगी ।”
“कब की होगी ? सोमवार उसे ये केस सौंपा गया या मंगलवार वो छुट्टी पर था । बुधवार सरकारी छुट्टी थी और वो थाने के उस स्टाफ का हिस्सा नहीं था जिसने छुट्टी वाले दिन ड्यूटी भरी थी । वैसे भी उस रोज अभी वो लौटा ही था जयपुर से । आज उसका कत्ल हो गया । बीच में एक कल का दिन ही वो बाकी बचा । सर, सिर्फ एक दिन में उसने क्या करिश्मा कर दिखाया होगा ?”
“भई, उसकी मेहनत से नहीं तो इत्तफाकिया उसके हाथ कोई ऐसी जानकारी लग गई होगी जो कि मूंदड़ा को तगड़ा फंसा सकती थी ।”
“पर, इत्तफाक भी इतनी जल्दी कहां होते है ?”
“करिश्मे तो होते हैं ?”
“जी !”
“भई, करिश्मे तो ऐसे ही होते हैं । फटाफट । आनन-फानन ।”
लूथरा के चेहरे पर से अविश्वास के भाव न गये ।
“लूथरा, तुम सहजपाल की काबलियत को बहुत कम करके आंक रहे हो । वो एक बदनाम पुलिसमैन था । मूर्ख पुलिसवाला नहीं था । समझे ?”
“सर, बावजूद इन तमाम बातों के मूंदड़ा के मुकाबले में मेरा दावा अभी भी गुरबख्शलाल पर ही है ।”
“तो साबित करके दिखाओ उसे सहजपाल के कत्ल के लिये जिम्मेदार । तुम ऐसा कर सके तो मरने वाले की बीवी के लगाये इलजाम से तो तुम्हें खुद-ब-खुद ही मुक्ति मिल जायेगी ।”
“मैं पूरी कोशिश करुंगा ।” 
“जरूर करना लेकिन अपनी उन जिम्मेदारियों की कुरबानी देकर नहीं जो तुमने स्पैशल इनवैस्टिगेटिंग आफिसर के तौर पर भुगतनी है ।”
“नैवर सर ।”
“यू कैन गो नाओ ।”
“थैंक्यू, सर ।”
***
कार में बैठे गुरबख्शलाल ने एक सिगार सुलगाया, उसका ढेर सारा धुआं सामने ड्राइवर और बाडीगार्ड के बीच उगला और फिर कहर-भरे स्वर में बोला - “मदर... कुत्ता !”
“मैं ?” - उसके पहलू में बैठा कुशवाहा हड़बड़ाकर बोला ।
“अबे तू नहीं, वो कंजर का बच्चा झामनानी । क्या बाजी पलटी गुरबख्शलाल के खिलाफ हरामी के पिल्ले ने । बिरादरी भाइयों के सामने नाक मोरी में रगड़ के रख दी गुरबख्शलाल की । मैं हमलावर था और मुझे ही अपने बगलें झांकनी शुरू कर देनी पड़ी । कितनी सफाई से साले ने गुरबख्शलाल को कमीना और यारमार साबित करके दिखा दिया । जानता है ?”
“सर ?”
“मैं क्या करता ?”
“किस बाबत ?”
“अरे, उस झामनानी की बाबत और किस बाबत ?”
“क्या करते आप ?”
“मैं उसे वहीं, बिरादरी भाइयों के सामने शूट कर देता ।”
“जी !”
“अगर उससे टेप का कोई जवाब देते न बतता तो ?”
“ओह !”
“लेकिन उसने जवाब दिया, न सिर्फ जवाब दिया ऐसा जवाब दिया कि गुरबख्शलाल की पूंछ उसकी टांगों में जा दबी । साला, बहुत उछल रहा था टेप को लेकर ।”
“कौन ?”
“तू और कौन ! जिसे बम साबित कर रहा था, वो गीला पटाखा भी न निकला । क्या खूब आंख में डंडा करवाया गुरबख्शलाल के ।”
“लाल साहब” - कुशवाहा विनयशील स्वर में बोला - “आपसे भी तो चूक हुई ।”
“क्या ?” - गुरबख्शलाल आंखें निकालकर बोला ।
“आप ने बहुत जल्दबाजी से काम लिया ।”
“क्या बकता है ?”
“लाल साहब, अगर वाकई झामनानी आपका वफादार है तो उसने सोहल से बातचीत होने के फौरन बाद इस बाबत खुद आपको खबर क्यों नहीं दी ? ये एक अहम बात थी जो उसे फौरन आपकी जानकारी में लानी चाहिये थी । उसे फौरन आपको बताना चाहिये था कि आपकी हस्ती मिटाने के लिये सोहल उसे मोहरा बनाने की कोशिश कर रहा था ।”
गुरबख्शलाल सोचने लगा ।
“आपने आनन-फानन उसे टेप सुनवा दिया और उसने आनन-फनन अपने डिफेंस में एक कहानी गढ ली जो कि, उसकी खुशकिश्मती थी कि, वहां बिरादरी भाइयों में क्लिक कर गयी ।”
“मुझे क्या करना चाहिये था ?”
“आपको टेप का जिक्र भी करने से पहले तमाम बिरादरी भाइयों से - तमाम से, अकेले झामनानी से नहीं - एक जनरल सवाल करना चाहिये था कि क्या सोहल ने किसी से सम्पर्क करने की कोशिस की थी ! साहब, झामनानी ऐसे किसी सम्पर्क की कभी हामी न भरता । तब आप उसे टेप सुनवाते तो उसकी हालत ऐसी होती जैसे कोई चोर रंगे हाथों पकड़ा गया हो ।”
गुरबख्शलाल कुछ क्षण सोचता रहा और फिर एकाएक फट पड़ा - “साले ! ये राय तू मुझे अब दे रहा है !”
“लाल साहब, इतनी मामूली बात की बाबत मैं आपको क्या राय देता ?”
“यानी कि ढके-छुपे ढंग से तू ये कहने की कोशिश कर रहा है कि गुरबख्शलाल में कोई मामूली-सी बात भी समझ सकने लायक अक्ल नहीं ?”
“मेरी ऐसी मजाल भला हो सकती है ?”
“साले, तुझे बोलना चाहिये था ।”
“मैं बोला था तो देखा नहीं था आपने कि मेरी क्या गत बनी थी ! खुद आपके भी हाथों !”
“मुझे चुपचाप बोलना था ।”
उस घड़ी चित भी मेरी पट भी मेरी जैसी जिद पर अड़े अपने बॉस के सामने खामोश रहने में ही कुशवाहा को अपनी भलाई दिखाई दी ।
“खैर !” - गुरबख्शलाल कुछ क्षण बाद बोला - “जो हुआ सो हुआ । अब तू ये बता कि क्या सिन्धी भाई सच बोलता हो सकता है ? उसका ये कहना सच हो सकता है कि उसने सोहल को भरमाने के लिये मेरे खिलाफ जहर उगला ?”
“मुझे यकीन नहीं ।” - कुशवाहा निसंकोच बोला ।
“यानी कि असल मंशा उसकी ये ही है कि गुरबख्शलाल की लाश गिरे और वो सोहल की आरती उतारे, उसे इक्कीस तोपों की सलीमी दे ?”
“हां ।”
“उसने बिरादरी भाइयों के सामने कहा था कि सोहल उसके रूबरू हुआ तो उसका सिर कलम करके मेरी नजर करेगा ?”
“कहने से क्या होता है ? वो कह देगा कि सोहल कभी उसके रूबरू नहीं हुआ ?”
“लेकिन असल में ऐसा होगा ?”
“उम्मीद तो है । हर बात टेलीफोन पर ही तो नहीं की जा सकती ।”
“तू ठीक कह रहा है । कुशवाहा, झामनानी पर नजर रख । अगर उसकी सोहल से मुलाकात होती है तो वो हमसे छुपी नहीं रहनी चाहिये । न सिर्फ मुलाकात छुपी नहीं रहनी चाहिये, तुझे कोई ऐसा भी इन्तजाम करना चाहिये, कि जब जहां इन दोनों की मुलाकात हो तब वहीं दोनों जहन्नुम रसीद हो जायें ।”
“इसके लिये तो” - कुशवाहा दबे स्वर में बोला - “बहुत बड़े पैमाने पर इन्तजाम करना पड़ेगा ।”
“कर ।”
“बहुत लोग मारे जायेंगे ।”
“परवाह नहीं । लेकिन मरने वालों में झामनानी और सोहल जरूर होने चाहियें ।”
“ठीक है ।”
“और सोहल के आफिस में या उसके घर पर भी उस पर हमले की कोई-न-कोई जुगत जारी रखनी है । और” - कुशवाहा को मुंह खोलता पाकर गुरबख्शलाल तीखे स्वर में बोला - “खबरदार जो धोबियों के दबदबे का हवाला दिया ।”
कुशवाहा ने होंठ भींच लिये । हकीकतन वो वही कहने जा रहा था ।
***
ओरीगेमी की कला को जापान से सीखकर आये व्यक्ति का नाम गुहा था जिसके चितंरजन पार्क में स्थित आफिस में मुबारक अली और अशरफ मौजूद थे । गुहा एक उम्रदराज मरघिल्ला सा बंगाली था जिसे अपने सिर पर सवार मुबारक अली साक्षात यमराज लग रहा था ।
मुबारक अली की एक ही घुड़की से गुहा पत्ते की तरह कांपने लगा था । उसने गुहा को रोहतक मैडिकल कॉलेज में पढती और वहां होस्टल में रहती उसकी लड़की उठवा लेने की धमकी दी थी तो ये ही करिश्मा था कि गुहा का तभी हार्ट फेल नहीं हो गया था ।
“क्या चाहते हो ?” - गुहा ने थर-थर कांपते हुए पूछा ।
जवाब में मुबारक अली बड़े प्यार से उसे समझाने लगा कि वो क्या चाहता था ।
***
पूर्वनिर्धारित समय पर विमल फिर योगेश पाण्डेय के आफिस में उसके सामने मौजूद था ।
“तुम्हारे लिये गुड न्यूज है ।” - पाण्डेय बोला - “मेरे लिये भी ।”
“क्या ?” - विमल बोला ।
“मेरे लिये ये कि मेरे आदमी ने मुझे धोखा नहीं दिया था । उसने काम किये बिना नहीं कह दिया था कि काम हो गया था ।”
“यानी कि उसने रिकार्ड से मेरे फिंगर प्रिंटस गायब कर दिये थे ?”
“हां । जो कि तुम्हारे लिये गुड न्यूज है । आज की तारीख में दिल्ली पुलिस दके रिकार्ड में जो तुम्हारे फिंगर प्रिंट्स उपलब्ध हैं वो तुम्हारे नहीं हैं । मैंने खुद इस बात की तसदीक की है । क्या समझे ?”
“लेकिन वो चार्ट जो लूथरा ने मुझे दिखाया था...”
“फर्जी था ।”
“लेकिन उस पर की उंगलियों के निशान मेरे उन निशानों, से हू-ब-हू मिलते थे जो उसने अपनी क्रैश हैलमेट पर से उठाये थे ।”
“उसने क्रैश हैल्मेट से उठाये निशानों वाला जो प्रिंट तुम्हें दिखाया था उस पर कोई सरकारी सनद लगी थी ? किसी नोटरी ने सर्टीफाई किया था उसे ?”
“क्या मतलब ?”
“तुम्हें क्या पता वो फिंगर प्रिट्स तुम्हारे थे ? उसने कहा कि वो उसने क्रैश हैल्मेट पर से उठाये थे और तुमने मान लिया !”
“लेकिन उसने वो फिंगर प्रिंट्स मुझे पहले भी दिखाये थे ।”
“तब पहली बार निशानी के तौर पर क्या तुमने उन पर अपने साइन किये थे ? तुम्हें क्या पता कि वही निशान थे जो तुम्हें पहले भी दिखाये गये थे ?”
विमल खामोश रहा ।
“मैं बताता हूं तुम्हें कि उस पुलसिये ने क्या किया होगा ? हैल्मेट से उठाये तुम्हारे फिंगर प्रिंट्स का मिलान उसने रिकार्ड में उपलब्ध सोहल के प्रिंट्स से तो जरूर करवाया होगा लेकिन जब वो प्रिंट्स उसने मिलते न पाये होंगे तो उसने फिंगर प्रिंट्स का सबूत - जो कि तूम्हारे खिलाफ इकलौता अकाट्य सबूत है - गढ लेने का फैसला कर लिया होगा । उसने फिंगर प्रिंट्स का एक कोरा चार्ट लेकर उस पर कोई से भी - कोई बड़ी बात नहीं कि अपने ही - उंगलियों के निशान बनाये होंगे, चार्ट पर सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल के पर्टीकुलर्स लिखे होंगे फिर वैसे ही निशानों का हैल्मेट से उठाये जैसे निशानों की किस्म का एक फोटोप्रिंट बना लिया होगा और वो दोनों गढे हुए निशान तुम्हारे सामने पेश कर दिये होंगे । अपनी पड़ताल से तुमने सिर्फ ये तसदीक की थी कि वो निशान आपस में मिलते थे, ये तसदीक नहीं की थी कि वो निशान तुम्हारी उंगलियों के निशानों से मिलते थे । राइट ?”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
“यूं उस शातिर पुलसिये ने बड़ी खूबसूरती से तुम्हें उल्लू बना लिया ।”
“ओह !”
“कहने का मतलब ये है कि तुम्हारे खिलाफ उसका वो सबसे बड़ा सबूत कोई सबूत ही नहीं है ।”
“ये मेरे लिये कोई बड़ी तसल्ली नहीं । इतने से ही मेरी जान सांसत से नहीं निकल जाती । मैंने पहले ही कहा था कि मेरे ऊपर फोकस होना भी...”
“मुझे याद है । लेकिन तुम खातिर जमा रखो, उसका भी इन्तजाम हो जायेगा ।”
“कैसे ?”
“जैसे मैं करूंगा ।”
“तुम क्या करोगे ?”
“मैं वो ही पुड़िया उसे चखाऊंगा जो उसने तुम्हें दी है ।”
“मैं समझा नहीं ।”
“भई, वो कहते नहीं हैं कि शठे शाठ्यम् समाचरेत ।”
“क्या मतलब ?”
“मैं शठ के साथ शठ जैसा व्यवहार करूंगा । सेर को सवा सेर का मजा चखाऊंगा ।”
“ओह !”
“पुलसिये से कोई पुलसिया ही निपट सकता है, मेरे भाई अब तुम देखना मैं क्या करता हूं !”
“लेकिन कब ? कब ?”
“बस ये ही एक मुश्किल सवाल है । उसने तुम्हें सिर्फ कल सुबह तक का वक्त दिया है जबकि कल सुबह तक उसके खिलाफ अपनी किसी स्कीम की कामयाबी की मैं कोई गारन्टी नहीं कर सकता । मैं कल सुबह से पहले भी कामयाब हो सकता हूं लेकिन ऐसी कोई गारन्टी नहीं कर सकता ।”
“तो क्या बात बनी ?”
“कल सुबह की मोहलत खत्म होते ही वो तुम्हारे खिलाफ नहीं हो जायेगा तुम उससे और वक्त मांगना ।”
“वो नहीं देगा । और वक्त की जरूरत उसे समझाना मुश्किल होगा । बीस लाख रुपया वो मेरे लिये ऐसी मामूली रकम समझता है जिसे कि मैं चुटकियों में मुहैया कर सकता हूं । इसलिए उससे और वक्त मांगने में रकम के इन्तजाम का हवाला नहीं चलने वाला । मैं फिर भी और वक्त मांगूंगा तो वो यकीनी तौर से ये ही नतीजा निकालेगा कि मेरा रकम देने का कोई इरादा नहीं था और मैं उस जाल को तोड़ने की कोई तिकड़म भिड़ा रहा था जिसमें कि उसने मुझे फंसाया हुआ था और इसीलिए मैं और वक्त हासिल करना चाहता था ।”
“एकाध दिन के लिये कहीं गायब हो जाओ ।”
“नर्सिंग होम में भरती बीवी को पीछे छोड़ के ? ”
“ओह !” - पाण्डेय कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “यानी कि अगर तुम गायब भी हो जाओगे तो वो तुम्हें तुम्हारी बीवी के जरिये ढूंढ सकता है ?”
“न सिर्फ ढूंढ सकता है, वो मेरी बीमार के जरिये मुझ पर दबाव डाल सकता है । जायज भी और नाजायज भी । नाजायज दबाव डालने के तो दर्जनों तरीके हैं, वो ये एक जायज दबाव भी डाल सकता है कि वो ये कहकर मेरी बीमार, लाचार, बेसहारा, गर्भवती बीवी को हिरासत में ले सकता है कि वो एक फरार, इश्तिहारी मुजरिम की बीवी है और उससे हासिल मालूमात मुजरिम को गिरफ्तार करने के काम आ सकती है ।”
“तो पहले बीवी को गायब कर दो ।”
“क्या ?”
“कोई ऐसा जुगाड़ करो कि तुम्हारी बीवी तक उसकी पहुंच न हो सके ।”
“वो कैसे होगा ?”
“सोचो कोई तरकीब । इतने बड़े-बड़े कारनामों को अंजाम दे चुके हो, एक छोटी-सी प्राब्लम का हल नहीं ढूंढ सकते ?”
“ठीक है । मैं ढूंढूंगा कोई हल ।”
“फटाफट ।”
“जाहिर है । फटाफट ही ढूंढ पाया तो हल किसी काम का होगा ।”
“ढूंढ सकोगे ?”
“उम्मीद तो है बशर्ते कि...”
“बशर्ते कि क्या ?”
“तकदीर ही न दगा दे जाये । नीलम सच में ही इतनी बीमार न पड़ जाये कि उसे नर्सिंग होम से मूव करना उसके लिये जानलेवा साबित हो सकता हो ।”
“ईश्वर से प्रार्थना करो कि ऐसा न हो ।”
“वही कर रहा हूं । आज तक तो वाहेगुरू ने निराश नहीं किया । उम्मीद है कि इस बार भी लाज रखेगा ।”
“गुड । फिर तो समझ लो कि इस ब्लैकमेलर पुलसिये का हो गया काम । अब उसकी हालत उस शख्स जैसी होगी जो नौ नगद को छोड़कर तेरह उधार के पीछे भागता है और नौ नगद से भी हाथ धो बैठता है । तुम्हें गिरफ्तार करता तो भारी यश का भागी बनता और वो इनाम भी पाता जो तुम्हारी गिरफ्तारी पर मुकर्रर है । अब दोनों तरफ से जायेगा ।”
विमल खामोश रहा ।
दाता ! उसने मन-ही-मन दोहराया - जिसके सिर ऊपर तू स्वामी वो दु:ख कैसे पावे !
***
फोन की घण्टी बजी तो लूथरा ने रिसीवर उठाकर कान से लगाया और बोला - “हल्लो ।”
“लूथरा साहब ?” - “आवाज आयी ।
“हां । कौन ?”
“रावत बोल रहा हूं, साहब ।”
“महाजन नर्सिग होम से ही न ?”
“जी हां । वहीं से ।”
“क्या बात है ?”
“साहब उस हामला औरत की तो यहां से छुट्टी हो रही है ।”
“अच्छा ! लेकिन वो तो बहुत बीमार बताई जाती थी ?”
“अब तो अच्छी-भली लग रही है । स्ट्रेचर पर भी नहीं है ।”
“चल-फिर रही है ?”
“चल-फिर तो नहीं रही । व्हील चेयर पर है और एम्बूलेंस की जगह कार पर ही उसे घर ले जाये जाने के आसार दिखाई दे रहे हैं ।”
“प्रेग्नेंट औरत की तबीयत का पता नहीं लगता । घड़ी में सुधर जाती है, घड़ी में बिगड़ जाती है । लेकिन रावत, उसकी तबीयत सुधरे या बिगड़े, वो नर्सिंग होम में हो या घर में, तुम लोगों ने उसका पीछा नहीं छोड़ना है । ”
“बिल्कुल नहीं छोड़ना है साहब ! अपनी नीयत छुपानी न पड़े तो फिर पीछे पड़ना क्या मुश्किल होता है ?”
“तो उसका हसबैंड... कौल... उसके साथ है ?”
“जी हां । वही तो बीवी की छुट्टी कराके उसे घर ले जा रहा है !”
“उसे तुम्हारी खबर है ?”
“खूब खबर है । घूर रहा था मुझे । भाले, बार्छियां बरसा रहा था आंखों से । लेकिन मैंने जरा परवाह नहीं की साले की ।”
“कोई जरूरत नहीं परवाह करने की । उसे मालूम होना ही चाहिये कि उसकी बीवी तुम्हारी निगरानी में है ।”
“इसी लिये तो काम आसान है ।”
“फोन क्यों किया ?”
“यही खबर करने के लिये किया कि कौल की बीवी नर्सिंग होम से छुट्टी पाकर घर जा रही है और मैं और युद्धवीर वगैरह पीछे जा रहे हैं ।”
“बढिया ।”
***
“ये ले ।” - गुरबख्शलाल ने सौ-सौ के नोटों की दस गड्डियां अपने सामने बैठे लट्टू की तरफ उछालीं और बोला - “तेरा स्पेशल इनाम ! चार्ली और सहजपाल की लाशें गिराकर समझ ले कि तूने अपना कल का वो गुनाह भी बख्शवा लिया जो तूने ढक्कन का लिहाज करके किया था ।”
“शुक्रिया ।” - लट्टू तत्काल नोट बटोरता हुआ बोला - “शुक्रिया, लाल साहब ।”
“पहाड़गंज और डिफेंस कालोनी दोनों ही जगह आज बहुत दिलेरी दिखा दी तूने । तेरे से ऐसी दिलेरी की उम्मीद मैंने नहीं की थी । हैरानी है कि जिससे उम्मीद थी - मैं ढक्कन की बात कर रहा हूं - वो कुछ भी न कर पाया और जिससे उम्मीद नहीं थी, उसने दिल बाग-बाग कर दिया मेरा । शाबाश !”
लट्टू ने बड़े कृतज्ञ भाव से खीसें निपोरीं ।
“मुझे ढक्कन की मौत का अफसोस था लेकिन तूने ढक्कन की कमी पूरी कर दी । लट्टू तू, ढक्कन की जगह लेगा । समझ ले कि ले चुका है ।”
“शुक्रिया !” - लट्टू खुशी से फूला न समाया, कल की फटकार के बाद कहां उसे अपना सारा भविष्य ही अन्धकारमय दिखाई दे रहा था और कहां अब उसका रुतबा बुलन्द हो रहा था । वो ढक्कन की जगह ले रहा था । वो बॉस का और भी करीबी हो गया था - “शुक्रिया लाल साहब ।”
“अब ऐसी ही दिलेरी से तू उस कौल के बच्चे की लाश गिराकर दिखाये तो मैं तुझे पांच लाख रुपये दूंगा ।”
“पांच - लाख - रुपये !” - लट्टू के नैत्र फैले ।
“और भी जो कुछ तू चाहे ।”
“और भी जो कुछ मैं चाहूं ?” - लट्टू विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां । तुझे पता है कि इसी काम के लिये ढक्कन की फीस पचास हजार रुपये मुकर्रर हुई थी पता है न ?”
“ज-जी हां । जी हां । मेरे सामने ही तो उस रोज सहजपाल कौल की खबर लाया था ।”
“यानी कि तेरे उस्ताद की फीस से तेरी फीस दस गुणा ज्यादा ।”
खुशी के अधिक्य से लट्टू थर-थर कांपने लगा ।
“मैं जाता हूं लाल साहब ।” - वो बड़ी कठिनाई से बोल पाया - “और अब तभी आपको मुंह दिखाऊंगा जब मेरे पास आपको सुनाने के लिये उस बाबू की मौत की खबर होगी ।”
“अभी कहां जाता है ! पहले कौल का कोई अता-पता तो जान ले ।”
लट्टू के जोश को ब्रेक लगी ।
“कुशवाहा, इसे कौल के घर का और आफिस का पता समझा ।”
कुशवाहा ने आदेश का पालन किया ।
“बाबू को पहचानेगा कैसे ?” - गुरबख्शलाल बोला ।
“पहचान लूंगा ।” - लट्टू पूरे विश्वास के साथ बोला ।
“शाबाश ! अब जा और जाके कुछ हाथ-पांव चला ।”
लट्टू यूं वहां से रुख्सत हुआ जैसे जमीन पर पांव न पड़ रहे हों ।
कुशवाहा उलझनपूर्ण निगाहों से गुरबख्शलाल को देखता रहा । दो बार उसने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन दोनों ही बार बन्द कर लिया ।
“मैं जानता हूं तू क्या कहना चाहता है ।” - गुरबख्शलाल गम्भीरता से बोला - “तू ये कहना चाहता है कि मैंने छोटे आदमी के लिये बड़े इनाम की घोषण कर दी ।”
“सच पूछिये तो” - कुशवाहा बोला - “कहना तो मैं ये ही चाहता था ।”
“मुझे मालूम है । लेकिन तू एक बात नहीं समझता ।”
“क्या ?”
“छोटे आदमी की औकात बनानी पड़ती है । उसे अपनी औकात बनती दिखाई देती है तो तभी उसमें वो जुनून पैदा होता है जो उसे सर की बाजी लगाकर सर उतारने के लिये उकसाता है । तेरा क्या ख्याल है जिस काम के लिये गये हमारे दर्जन से ज्यादा आदमी मुंह की खा के लौट आये, उसे लट्टू कर लेगा ?”
कुशवाहा का सिर स्वयंमेव ही इनकार में हिला ।
“कर ले तो क्या करिश्मा नहीं होगा ?”
“बिल्कुल होगा ।”
“फिर ! जो आदमी करिश्मा कर दिखाये, उसके लिये पांच लाख का इनाम ज्यादा है ?”
“नहीं ।”
“अब तू भगवान से प्रार्थना कर कि वे कामयाब हो के लौटे । ये भी फेल हो गया तो कुछ कर दिखाने के मामले में फिर अगला नम्बर तेरा ही होगा और मेरा यकीन जान, कुशवाहा, कि तेरा नुकसान मैं बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा ।”
यूं सहज ही कही गयी बात की ओट में जो धमकी थी, वो कुशवाहा से छुपी न रही ।
एकाएक उसे अपना दिल बैठता गया ।
***
लूथरा डिफेंस कालोनी थाने पहुंचा और वहां के एस एच ओ से मिला ।
“सहजपाल हमारे थाने का आदमी था” - उसने बताया - “इसलिये आना पड़ा । क्या राय कायम की आपने इस वारदात के बारे में ?”
“भई” - एस एच ओ बोला - “पैट्रन तो साफ-साफ प्रोफेशनल किलिंग वाला है और इसी वजह से हमें ये राय कायम करनी पड़ रही है कि वो किसी और के धोखे में मारा गया है ।”
“वो उस गली में क्या कर रहा था ?”
“क्या पता क्या कर रहा था !”
“मेरा मतलब है पूछताछ से कुछ मालूम नहीं हुआ ?”
“नहीं ।”
“पूछताछ की तो गयी होगी ?”
एस एच ओ ने घूरकर लूथरा को देखा ।
“पूछताछ की तो गयी होगी आस-पड़ोस से ?” - लूथरा जिद-भरे स्वर में बोला ।
“हां, भई, की गयी थी लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला है । लगता है वो महज उस गली से गुजर रहा था जबकि किसी और के धोखे में गोलियों से भून डाला गया ।”
“वारदात की रिपोर्ट किसने की थी ?”
“इलाके के ही एक आदमी ने जिसने गोलियों की आवाज सुनकर अपने घर की दूसरी मंजिल की पिछवाड़े की एक खिड़की खोलकर गली में झांका था तो सहजपाल को गली में पड़ा पाया था ।”
“उसने हमलावरों को भी देखा था ?”
“नहीं ।”
“कोई चश्मदीद गवाह ?”
“नहीं है ।”
“यानी कातिल के पकड़े जाने की कोई उम्मीद नहीं ?”
“क्या बात है, भई ! ये प्रैस वालों की जुबान क्यों बोल रहा है ?”
“जनाब, मेरी मंशा अपने थाने के आदमी के कत्ल के केस की तफ्तीश करने में महज आपकी मदद करने का है ।”
“करो भई, मदद । मदद से कौन रोक रहा है ?”
“मैं मौकायवारदात पर एक निगाह डालने की इजाजत चाहता हूं ।”
“ठीक है ।”
***
लट्टू गोल मार्केट पहुंचा ।
कोविल मल्टीस्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स का चौकीदार रामसेवक जैसे वहां कदम रखने वाले हर शख्स के साथ पेश आता था, वैसे ही लट्टू के साथ पेशा आया ।
“सातवीं मंजिल वाले कौल साहब से मिलना है ।” - लट्टू बोला ।
“वो घर पर नहीं हैं ।” - रामसेवक बोला ।
“कब लौटेंगे ?”
“मालूम नहीं ।”
“तू समझ तो रहा है न मैं किस कौल साहब की बाबत पूछ रहा हूं ?”
“हां, हां । समझ रहे हैं । सातवीं मंजिल पर एक ही कौल साहब रहते हैं । अरविन्द कौल साहब ।”
“सूरत से पहचानता है उन्हें ?”
“लो ! भला कैसे नहीं पहचानेंगे । हम तो यहां के सब साहब लोगों को पहचानते हैं । पक्के चौकीदार होते हैं हम यहां के ।”
“हूं ।”
“आपको क्या काम है कौल साहब से ?”
“देख, मैं सरकारी आदमी हूं । जयपुर से आया हूं । वहां के कोर्ट में एक केस है जिसमें कौल साहब की गवाही है । मेरे पास कौल साहब के लिए समन है...”
“सामान है तो हमको दे दो । हम कौल साहब को दे देंगे ।”
“सामान नहीं, समन ।” - लट्टू बड़े सब्र से बोला - “समन । सरकारी परवाना । जो मजिस्ट्रेट जारी करता है । गवाह के लिये कोर्ट में हाजिर होने का हुक्मनामा है । समझा ?”
रामसेवक ने बड़े संदिग्ध भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“वो समन - परवाना, पर्चा - मैंने कौल साहब को ही थमाना है । वो किसी और को नहीं दिया जा सकता । ऐसा ही सरकारी हुकम है । अब मेरी मुश्किल ये है कि एक तो जैसे कि तू कह रहा है कौल साहब घर पर नहीं हैं । दूसरे, मैं उन्हें पहचानता नहीं । वो यहां आ के चले भी गये तो मुझे खबर नहीं होगी ।”
“वो तो है ।”
“अब चाचा, तू बाहर से आये इस परदेसी की ये मदद कर कि मुझे कौल साहब पहचनवा ।”
“हम क्या करें ?”
“पहले तो ये” - लट्टू ने उसे एक सौ का नोट थमाया - “ये बड़ा वाला पत्ता काबू में कर ।”
रामसेवक ने सौ का नोट देखा । उसके नेत्र फैले ।
“मदद के लिये ।” - लट्टू ने नोट के गिर्द जबरन उसकी उंगलियां बन्द की और मुट्ठी थपथपाई - “परदेसी की मदद के लिये । और कुछ नहीं ।”
“लेकिन ये...”
“कुछ नहीं है । चाय पानी का पैसा है । सरकारी मिलता है । जयपुर से यहां आने का जो मेरे को मिला है, उसी का छोटा-सा हिस्सा है । चाचा, तू यूं समझ कि एक काम के लिये जो कुछ सरकारी नजराना मिला, वो हमने मिल-बांट लिया । कुछ काम मैंने किया, कुछ तूने किया । तूने मुझे बन्दा पहचनवाया, मैंने उसे सरकारी कागज थमाया । ये कुछ नजराना” - उसने फिर रामसेवक की मुठ्ठी थपथपाई - “तूने ले लिया, कुछ मैंने रख लिया । ठीक ?”
रामसेवक ने सहमति में सिर हिलाया और फिर बोला - “यानी कि आप चाहते हैं कि अब कौल साहब आयें तो हम आपको बता दें कि ये कौल साहब हैं ?”
“हां । लेकिन चुपचाप । इशारे से ।”
“वो किसलिये ?”
“ताकि मैं उन्हें एकदम से ये कागज थमा सकूं । ऐसा ही सरकार हुक्म है । सरकार कहती है कि कोर्ट का परवाना - समन - लेने वाले के हाथ में आये तो उसे खबर लगे कि उसके हाथ में क्या आया है ।”
रामसेवक के चेहरे पर उलझन के भाव आये ।
“चाचा, ये सरकारी कामकाज के सरकारी तौर-तरीके हैं । तू नहीं समझेगा इन्हें ।”
“हमको क्या करना होगा ?”
“खास कुछ भी नहीं । वो सामने काले शीशों वाली काली गाड़ी नहीं खड़ी ?”
“खड़ी है ।”
“सरकारी गाड़ी है । इसी काम के लिये मिली है । ड्राइवर समेत । मैं जाके उसमें बैठता हूं । जब कौल साहब यहां पहुंचे तो चाचा, तू एक बार, बस एक या दो सैकेंड के लिये अपना हाथ अपने सिर से ऊंचा उठा देना । यूं” - लट्टू ने उसे अपना हाथ अपने सिर से ऊंचा उठा के दिखाया - “बाकी मैं खुद समझ जाऊंगा । ठीक ?”
“कौल साहब अकेले न लौटे तो ? उनके साथ और साहब लोग हुए तो ? तो आपको कैसे पता लगेगा कि उनमें से कौल साहब कौन हैं ?”
“वो पता मैं चला लूंगा । मैं उन्हीं से पूछ के चला लूंगा कि कौल साहब कौन थे ? ऐसे साहब लोग दो-चार ही होंगे न ? कोई सौ-पचास तो होंगे नहीं ! क्यों ?”
मन-ही-मन लट्टू सोच रहा था कि कौल की हाजिरी पक्की होनी चाहिये थी, वो सभी को मार गिरायेगा, इस साले चौकीदार को भी ।
रामसेवक ने सहमति में सिर हिलाया ।
“बस चाचा” - लट्टू बोला - “इस सौ के पत्ते के बदले में तूने सिर्फ इतना करना है कि कौल साहब के यहां कदम रखने पर तूने यूं” - लट्टू ने फिर करके दिखाया - “जरा-सा अपना हाथ ऊंचा कर देना है ठीक ?”
“कौल साहब इधर पहुंचेंगे तो हम एक बार अपना हाथ ऊंचा कर देंगे । एक बार । अब आप उसे देखें या न देखें ?”
“मंजूर । बस इतना-सा तो काम है । हो जायेगा न ?”
“हो जायेगा । हाथ ही तो खड़ी करनी है कौल साहब के आने पर । कर देंगे ।”
“बढिया । सौ बरस जियो, चाचा ।”
लट्टू जा के कार में बैठ गया ।
‘मौत का रास्ता’ में जारी