लेखकीय
मेरा नवीनतम थ्रिलर ‘काला नाग’ आपके हाथों में है। उपन्यास किसी स्थापित सीरीज़ का नहीं है इसलिये उसका शुमार ‘विविध’ उपन्यासों में है, क्रॉनोलॉजिकल रिकार्ड के लिए जिनमें इसका क्रम 72 है। यह मेरी कुल प्रकाशित पुस्तकों में 304वां है और हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में तीसरा है। इससे पहले इस प्रकार का उपन्यास कातिल कौन लगभग चार साल पहले मार्च 2016 में प्रकाशित हुआ था और काफी वाहवाही से नवाज़ा गया था। उम्मीद है कि वैसी वाहवाही मौजूदा थ्रिलर काला नाग के हिस्से में भी आएगी। बहरहाल हमेशा की तरह प्रस्तुत उपन्यास के प्रति भी मेहरबान, कद्रदान, गुणग्राहक पाठकों की अमूल्य, निष्पक्ष, बेबाक राय की मुझे प्रतीक्षारहेगी। हमेशा की तरह अर्ज़ है कि पाठकों की राय कैसी भी हो, मेरे सिर माथे होगी, निसंकोच अवगत कराइयेगा।
पूर्वप्रकाशित विमल की दुकड़ी की बाबत पाठकों की राय में जो नई बात थी वो ये थी कि सामूहिक रूप से उपन्यास सबको पसन्द आया – यूँ जैसे कि जाके बैरी सन्मुख जीवै ने क़हर के पाप धो दिये – लेकिन नीलम की मौत अधिकतर को कतई हज़्म न हुई। तीखी प्रतिक्रियाओं की वजुहात जुदा थीं लेकिन गिनती के कुछ पाठकों को छोड़ कर बाकी सबकी राय थी कि लेखक का दिमाग हिल गया था, उसमें सैडिस्ट प्रवृति घर कर गई थी वर्ना सीरीज़ के इतने अहम किरदार को अपनी किसी सनक के, कमअक्ली के हवाले उसने उसके ऐसे भयावह अंजाम तक हरगिज़ न पहुंचाया होता, नीलम सीरीज़ के लिये उतनी ही अहम थी जितना कि विमल खुद था वगैरह! तीखी प्रतिक्रियाओं का ये आलम था कि मेरे कई कमिटिड पाठकों ने कसम खाई कि भविष्य में वो विमल सीरीज़ का उपन्यास हरगिज़ नहीं पढ़ेंगे। नीलम को सीरीज से विदा करके लेखक ने खुद अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारी थी। कितने ही पाठकों ने कहा कि नीलम की मौत के प्रसंग पर पहुंचते ही उनके छक्के छूट गए, किताब खुद ही हाथ से गिर पड़ी, यकीन ही न आया कि अब तक ठीक-ठीक विमल सीरीज़ लिखते आ रहे नादान, बुढ़या गए लेखक ने विमल के कन्धे से कन्धा मिला कर जुल्म का मुकाबला करने वाली नीलम को इतनी आसान मौत दे दी जैसे कि मक्खी मसली। उन्होंने उपन्यास को सिरे तक पढ़ने की कोशिश ही न की और फ़ैसला सुना दिया कि आइन्दा वो विमल सीरीज का ही नहीं, इस नालायक, नामुराद लेखक का कोई भी उपन्यास नहीं पढ़ेंगे।
लेखक को सैडिस्ट करार देती कुछ और चुनिन्दा राय संक्षेप में यहां उद्धृत हैं। सब से पहली राय पर खासतौर से ग़ौर फरमाए :
□ ये क्या किया आपने? मुझसे आगे नहीं पढ़ा जा रहा। अभी 104वां पेज पढ़ते ही पहले आपको ये कहना चाहता हूँ कि मैं इसके लिए आप को कभी माफ नहीं करूंगा, कभी नहीं। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। सारी कापियां वापिस मंगवा लीजिए और ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ को फिर से लिखिए। आपकी कलम जरा भी न लड़खड़ाई ये सब ज़ल्म लिखते वक्त! आप हिम्मत ही कैसे कर पाए ये सब लिखने की? नीलम की मौत लिखकर आपने हर एसएमपियन पर जुल्म ढाया है। मुझे माफ करना सर, इस वक्त मैं अपने आपे में नहीं हैं। मेरी आत्मा रो रही है। पता नहीं उपन्यास को 104 पेज से आगे पढ़ने की हिम्मत जुटा पाऊंगा या नहीं!
(संजीव कुमार)
□ नीलम को मारने की ज़रूरत क्या थी? अगर मकसद विमल को आफत का परकाला बनाना था तो उसके लिए क्या नीलम के साथ हुई बद्फ़ेली काफी नहीं थी? नीलम को मारना विमल को मारना था। 42 साल पुराने किरदार को मारने का हक आपको नहीं है।
(योगेश तनेजा)
□ नीलम की मौत ने झकझोर दिया। रूह कांप गई। बरबस ही आंसू निकल पड़े। नीलम के बिना विमल का तसव्वर भी करने का जी नहीं चाह रहा! अब नीलम के बिना विमल क्या करेगा? ... बल्कि आप क्या करेंगे?
(संजय सिंघई)
□ नीलम की मौत का प्रसंग पढ़ने के बाद कितना ही अरसा कथानक को आगे पढ़ने का मन न हुआ। अब एक ही खयाल मन में आता है कि क्या सूरज का हश्र भी नीलम जैसा होने वाला है क्यों कि नीलम की मौत के बाद तो अब वही विमल के पैरों की बेड़ी बनेगा।
□ नीलम ने आपका क्या बिगाड़ा था? क्या और कोई रास्ता नहीं था जो नीलम को शहीद किए बिना उसके इख्तिताम तक ले जाता? एक बार तो दिल में आया कि अब आगे पढ़ना बेमानी है लेकिन . . . पढ़ा।
(सुहैब फारूकी)
□ नीलम की मृत्यु ने झकझोर दिया। ये पहला उपन्यास है जिसे दोबारा पढ़ने की इच्छा नहीं हुई जब कि आपके सारे उपन्यास मैं कई कई बार पढ़ता हूँ। क्या कर दिया आपने? क़हर टूट पड़ा। दुखद अन्त। नाकबूल।
(हरीश सुन्दरानी)
□ आपने रुला दिया, सर। यूँ लगा जैसे कल्पित पात्र नीलम नहीं, मेरा कोई अजीज मर गया हो। ये आपने ठीक नहीं किया, सर। अपने पात्रों को रचना, चलाना, हटाना यकीनन लेखक की अपनी सोच, अपनी ज़रूरतों के मुताबिक होता है लेकिन इस बार बहुत गलत किया आपने। अन्याय किया अपने पाठकों से। किसी पिछले जन्म का बदला उतारा। तुकाराम, वागले, सुमन बिछुड़ गए, मैं न रोया लेकिन नीलम! नीलम! दाता! दाता!
जाने कितनी बार नीलम के साथ बीती पढ़ते-पढ़ते सब्र का बांध टूटा, कई बार मार्कर लगाकर नावल रखा। अनायास आंसू निकल आते थे, पोंछता था तो फिर निकल आते थे।
ठीक नहीं किया, सर, आपने ठीक नहीं किया।
(शरद कुमार दुबे)
□ उपन्यास पूरे सौ नम्बर से पास मगर नीलम का जाना मन को बहुत दुखी कर गया। आखिर तक लगा, अभी लौट आएगी; बस, अभी लौट आएगी। लेकिन नहीं आई। एक बार तो ऐसा लगा कि आप शायद नीलम की जगह जसमीत माने को मरा बताएंगे जिस को कि आपने नीलम जैसा बताया था। लेकिन कोई चमत्कार न कर पाए आप। नतीजतन खून का चूंट पी के रह जाना पड़ा।
(सूर्यकान्त सुभाष सांबले)
□ दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि नीलम का मरना कतई पसन्द नहीं आया। बड़ा झटका लगा दिल को और एक दिन के लिये पढ़ना ही रोक देना पड़ा। यही सोचता रहा कि काश नीलम न मरी हो, शायद मेड मरी हो। लेखक अपने पात्रों को अपने हिसाब से पेश करता है लेकिन माफी के साथ कहना चाहता हूँ कि नीलम को मारे बिना भी आप कहानी को आगे बढ़ा सकते थे, ऐसा करना आपके बाएं हाथ का खेल होता। अफसोस है कि पाठकों के नीलम से जुड़ाव को आपने कम करके आंका, नीलम को मार के गलत किया। आप कहेंगे नीलम के मरे बिना कहानी आगे नहीं बढ़ सकती थी तो मेरा आपसे सहमत होना ममकिन न होगा। आप जैसे अल्फाज के जादगर के लिए नीलम को शहीद किए बिना भी कहानी आगे बढ़ाना कोई कठिन काम न होता।
(महेश सिंह)
□ नीलम की हाहाकारी मौत के प्रसंग के बाद अन्दर से कुछ टूट सा गया। उस प्रसंग पर मैंने आपको जी भर कर कोसा और यही सोचा कि आप को ये नॉवल लिखना ही नहीं चाहिए था। विमल महागाथा के कई अमर पात्र मेरे दिल के करीब थे लेकिन सब से ऊपर नीलम थी। नीलम की मौत का प्रसंग पढ़कर मैं इतना हिल गया था कि उस रात अपनी पत्नी से लिपट कर सोया। काश आप मुबारक अली को कुरबान कर देते, फ्रान का कत्ल करवा देते लेकिन आपने तो पूरी नृशंसता से नीलम को निशाना बनाया ताकि रीडर्स रोएं और अपनी कलम की जादूगरी के सदके आप सब जायज़ करार दें, ज़रूरी करार दें।
(परमजीत सिंह)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ मैंने रिकॉर्ड टाइम में पढ़ा और अत्यन्त क्रुद्ध अवस्था में आपको पत्र लिख रहा हूँ। मैं कसमिया कहता हूँ कि शायद आपको ये मेरी आखिरी मेल हो। आपसे ऐसी आशा मैं बिल्कुल नहीं करता था। आपने तो विमल की आत्मा को ही नेस्तनाबूद कर दिया। आप परदुखअभिलाषी हैं, सैडिस्ट हैं जो सीरीज पर एकाधिकार बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। शायद आपको गमान हो कि लोग पढ़ कर भूल जाते हैं, घटना कितनी भी दारुण हो, आई गई हो जाती है। लेकिन नीलम की मौत के सन्दर्भ में मेरे साथ ऐसा नहीं होने वाला। लेखक जी, नीलम की मौत से भड़का मैं अपना विमल सीरीज का मुकम्मल कलैक्शन कब्रिस्तान में दफ़न कर के आऊंगा और ताजिन्दगी कभी आपका उपन्यास नहीं पढूंगा। मैं कल से रोटी का एक निवाला मुंह से नहीं डाल पाया। लगता है घर में मातम हो गया। ज़ार-ज़ार रोने का दिल चाहता है। कोई पूछे कौन मर गया तो क्या बताऊं? मेरी पसन्दीदा सीरीज़ का एक किरदार मर गया!
लेखक साहब, किरदार सिर्फ किरदार नहीं होते, दिलदार बन जाते हैं, जेहन पर छा जाते हैं, दिल में घर बना लेते हैं। लिहाज़ा अपने पाठकों की आप को जरा भी कद्र है, जरा भी लिहाज़ है तो कैसे भी हो, नीलम को जिन्दा कीजिए। कुछ चमत्कार कीजिए – जो मैं जानता हूँ आप कर सकते हैं- नीलम को ज़िन्दा कीजिए।
(आशीष पटेल)
□ तीन दिन हो गए ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ पढ़े, मन अभी भी त्रस्त है। ‘कहर’ पहले भाग का टाइटल था लेकिन हम लोगों पर क़हर आपने दूसरे भाग में ढाया। ऐसा लग रहा है जैसे कि कोई अपना सदा के लिए चला गया। नीलम का प्रारब्ध ऐसा होगा, कभी सोचा न था। नीलम ऐसी मौत की हकदार कतई नहीं थी। इस सदमे से अभी तक नहीं उबर पाया हूँ।
(विशाल सक्सेना)
□ जो हुआ, अच्छा नहीं हुआ। मेरा इशारा नीलम की मृत्यु की ओर है। सीरीज़ का एक अति महत्वपूर्ण किरदार इस तरह खत्म हो गया, काफी निराशा हुई। आप ही किरदार को जन्म देते हो, इसलिये आपको पूरा हक है उसे खत्म करने का। पर मुझे ये विमल की हार लगी। विमल हमारा हीरो है, दीन के हित में लड़ने वाला, अन्याय के खिलाफ बुलन्द आवाज़ उठाने वाला, एक लार्जर दैन लाइफ किरदार, एक महानायक, पर अफसोस, अपना घर न बचा सका।
(राहुल हाड़ा)
□ ‘कहर’ में नीलम के साथ जो कछ हुआ, उसकी रू में ये तो कहीं न कहीं अपेक्षित लगरहा था कि नीलम और सरदार जी कासाथ अब ज्यादा लम्बा नहीं चल पाएगा लेकिन वो समय प्रस्तुत उपन्यास में ही आ जाएगा, इसकी अपेक्षा शायद ही किसी विमल प्रेमी को होगी। वो नीलम जो हर बार बड़े-बड़े सूरमाओं के यहां से मौत को धता बताकर मौत के दरवाज़े से वापिस लौट आयी, उसे दो कौड़ी के दिल्ली के भड़वों के हाथों जान से जाते देखना बहुत दखद रहा।
(वेंकटेश येमलावार)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ अभी पढ़ कर खत्म किया। उम्मीद नहीं थी कि कहानी ऐसे चलकर इस मुकाम तक पहुंचेगी। विमल अब फिर जहाज़ का पंछी है लेकिन इस अन्तर के साथ कि अब नीलम उसके साथ नहीं है, कभी नहीं होगी। जिस नीलम का बखिया, इकबाल सिंह, गजरे, उन सबका मुकम्मल निजाम कुछ न बिगाड़ पाया, उसे दिल्ली के सफेदपोश, बाजारी गुण्डों ने हलाक कर दिया। कहानी नीलम के हौलनाक अंजाम के बिना भी आगे बढ़ाई जा सकती थी। नीलम का अंजाम पढ़ने के बाद एक बार तो ऐसा लगा कि नीलम की मौत वाले प्रसंग पर पहुंचते-पहुंचते आप अपना दिमागी तवाजन खो बैठे थे और कहीं आप विमल को भी नीलम सरीखे अंजाम तक न पहुंचा दें।
(हरीश चन्द गुप्ता)
□ उपन्यास लाजवाब लगा। सब कुछ बेहतरीन और सन्तुलित है लेकिन नीलम की मौत मैं हज़्म नहीं कर पा रहा हूँ। अजीब-सा शून्य है, जैसे लगता है कोई अपना चला गया। उस पर से तुर्रा ये कि जसमीत को भी मरा दिखा के आपने नीलम के जिन्दा रहने की बची खुची उम्मीद भी तोड़ दी। जुल्म किया।
(राजीव राज)
□ इस उपन्यास ने मेरा दिल तोड़ दिया। अब आपका दर्जा उस रक्त पिपासु लेखक का बन गया है जो कि पहले तोपात्र गढ़ता है, उस पात्र से पाठकों का दिली लगाव कराता है और फिर कहानी की मांग की दुहाई देकर निर्ममता से वीभत्स हत्या करा देता है। आपने सुमन, तुकाराम, वागले, जगमोहन इत्यादि जैसे कई पात्रों को खत्म कराया पर नीलम का कत्ल अन्दर तक झकझोर गया। अगर ऐसा किए बिना आपकी कहानी आगे नहीं बढ़ती थी या उपन्यास का नाम सार्थक नहीं होता था तो आपकी कहानी नीलम को गम्भीर रूप से घायल बताने से भी तो आगे बढ़ सकती थी-आखिर विमल की घर वापिसी तक वो जिन्दा थी।
कैसी विडम्बना है कि जो नीलम ‘कम्पनी’ के टॉप बासेज़ के निज़ाम के वक्त न मरी, वो मरी तो गली-मौहल्ले के छुटभइये उचक्कों के हाथों निहायत मामूली तरीके से, जिन्होंने जैसे नीलम को न मारा, ईद पर कुर्बानी का बकरा काटा।
(राजेश पराशर)
□ नीलम की मौत के प्रसंग पर आते-आते दिल की धड़कन रुकती महसूस हई। पहला ख़याल जो दिल में आया, वो यही था – ये क्या किया आपने! जिस नीलम को बखिया न मार सका, जिसने खुद विमल की कई बार जान बचाई, वो नीलम खत्म! जिसने कभी विमल का हाथ न छोड़ा, वो नीलम खत्म! और वो भी चार ऐसे मवाली लोगों के हाथों जिन की सोहल के सामने एक मच्छर जितनी औकात नहीं!’
(रजत कुमार)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ शौक से पढ़ा। विमल सीरीज़ का उपन्यास एक अरसे बाद हाथ आने का संतोष, परमसुख, तृप्ति सब कुछ परम शोक की भेंट चढ़ गया।
क्यों मार डाला?
क्या बिगाड़ा था उसने आपका?
कॉलगर्ल बनाया, सामूहिक बलात्कार का शिकार बनवाया, एक नेक और ममताभरी पत्नी और मां बनाया और खल्लास कर दिया। लगा कि कोई अपना न रहा। घर में कोई मौत हो गई।
शुरूआत में मुझे लगा कि नीलम का कत्ल एक भ्रमजाल था और अन्त आते-आते वो सही सलामत, जीती जागती कहीं से प्रकट हो जाएगी। ऐसा न होना दिल दुखी कर गया।
(संदीप शुक्ला)
□ आप का नया नॉवल पढ़ा। नीलम की मौत के प्रसंग पर पहुंचा तो सहसा दिल की धड़कन रुकती महसूस हुई। उम्मीद के खिलाफ उम्मीद की कि आगे सब ठीक हो जाएगा। एक चमत्कार की तरह – ऐसे चमत्कार विमल सीरीज़ में होते ही रहते हैं – नीलम जिन्दा वापिस लौट आएगी लेकिन आप तो उसका दाह संस्कार भी दिखा चुके थे। ऐसा शॉक ट्रीटमेंट आप को पाठकों को नहीं देना चाहिए था। नावल तो जैसे-तैसे पूरा पढ़ लिया लेकिन आंखें नम ही रहीं, खाना भी न खाया गया। अभी भी मातम के हवाले हैं।
(विनीत कुमार चौबे)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ पढ़ के आप से इतना नाराज हूँ कि नाराजगी को बाकायदा कलमबद्ध करके आपको प्रेषित कर रहा हूँ:
जनाब, आपसे इतनी क्रूरता की उम्मीद नहीं थी।
क्या विमल की जिन्दगी में उसके चाहने वालों का, उस पर जान दे देने वालों का वाकई जान देना जरूरी होता है?
और मौत भी कैसी? वीभत्स! क्रूरतापूर्ण! रोंगटे खड़े कर देने वाली! पाठक साहब, सच मानियेगा मैं अभी भी ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा हूँ कि कहीं कोई भेद होगा, कहीं फिर कोई चमत्कार होगा और नीलम-विमल की जोड़ी बनी रहेगी।
(विपिन कुमार शर्मा)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ एक बार हस्तगत हुई तो तभी रुका जब नीलम की मौत वाला प्रसंग शुरू हुआ। विश्वास नहीं हुआ कि नीलम, जो विमल की परछाई थी, इतनी जल्दी दूसरी दुनिया में पहुंच जाएगी। पढ़ कर अनायास आंखों से आंसू टपकने लगे, निगाह धुंधला गई, मजबूरन नावल पढ़ना बन्द करना पड़ा। बार-बार यही सोचता रहा कि क्यों... क्यों सर ने ऐसा कहर ढ़ाना कुबूल किया, वो कुछ और भी दिखा सकते थे तो नीलम की मौत ही क्यों! मुझे इतना गुस्सा और दुख हुआ कि 7-8 दिन तक बाकी कथानक पढ़ने के लिए मैंने उपन्यास को हाथ न लगाया। पढ़ना तो आखिर था, नीलम की मौत का मातम मनाते पढ़ा।
(दुर्गेश कुमार बंसल)
भीषण आक्रोश उजागर करती ऐसी कितनी ही मेल और भी हैं, स्थानाभाव के कारण जिनको यहां उद्धृत करना सम्भव नहीं।
ग़ौरतलब बात ये है कि, उपरोक्त सरीखे जिन पाठकों ने भी लेखक को भरपूर कोसा, उन तमाम पाठकों ने इस एक शिकायत को लेकर अपने मन की भड़ास निकाल चुकने के बाद उपन्यास की भरपूर तारीफ की। मसलन :
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ ने अवाक कर दिया। स्तब्ध कर दिया। शानदार, स्तब्धकारी उपन्यास। ये अकेला उपन्यास बखिया सीरीज़ के बराबर का है।
(मनीष पाण्डेय)
□ नीलम की मौत के बाद विमल का वापिस मम्बई जाना किसी नये कारनामे की तरफ इशारा है जिसका स्वागत है। उपन्यास पूरे नम्बरों से पास।
(संजय कुमार पारीक)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ बहुत शानदार लगा। नीलम की मृत्यु से दुख तो बहुत हुआ लेकिन लगा कि विमल सीरीज़ को आइन्दा प्रवाह देने के लिए ये मोड़ आवश्यक था। बहुत तेज़रफ्तार, थ्रिल से भरपूर। उम्दा मनोरंजन। पैसा वसूल।
(नीलेश पवार)
□ दोनों भाग शानदार, बेमिसाल, लाजवाब, बेहतरीन। तारीफ के लिए और अलफाज़ होते तो वो भी लिखता।
(संजय सिंघई)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ बेहद शानदार। इमारतों में ताजमहल और हीरों में कोहनूर जैसा। इतने रोचक और तेजरफ्तार चार-छः ही और होंगे आपके मुकम्मल उपन्यासों में से।
(दयानिधि वत्स)
□ विमल हमेशा की तरह अपने लब्बोलुआब (!) पर था। नीलम की मौत ने बुरी तरह से चौंकाया पर तुरन्त ही दिल ने कहा कि अगर विमल हर बन्धन से आजाद किया गया है तो आने वाले समय में लेखक कुछ ऐसा अजीमुश्शान करनामा जरूर पेश करने वाला है जिसे सोच पाना मेरे जैसे अदना पाठक के बस का नहीं।
पूरे कथानक को 100 में से 101 नम्बर।
(जितेन्द्र माथुर)
□ नीलम का जाना भले ही आपका कोई मास्टर स्ट्रोक हो लेकिन लेखक महोदय जरूर पाठकों की हेट मेल के लिए - निर्दयी, परपीड़क, सैडिस्ट, सिनाइल – पहले से ही तैयार होंगे। कथानक की तरफ मुंह मोड़ता हूँ तो मुंह से वाह निकलती है। तेजतर्रार कथानक। ज़बरदस्त भाषा शैली। बेहतरीन लेखन, शानदार लेखन, असरदार लेखन। फिर भी लगता था कि विमल के विस्फोटक संसार में आगे कुछ लिखे जाने, गढ़े जाने की सम्भावना नहीं बची है; लेकिन मैं कितना अज्ञानी हूँ, मूढ़ हैं, एक बार फिर से साबित हो गया।
(पराग डिमारी)
□ नीलम की दर्दनाक मौत के अलावा निरन्तर आगे बढ़ती सोहल की महागाथा से कतई कोई शिकायत नहीं, जो पिछले कुछ कारनामों से थी, वो अब हवा में उड़ गई। दुकड़ी फुल फुल पास। सौ में से सौ नम्बर।
(शरद कुमार दुबे)
□ पूरा कथानक दूरंतो ट्रेन की तरह फास्ट था जो मूल स्थान से रवाना होती है तो मंजिल पर पहुंच कर ही रुकती लेकिन जिसके सफर के बीच में टैक्नीकल स्टॉप होते। इतनी फास्ट स्टोरी में लम्बे सम्वाद आते थे तो दुरूह लगते थे-जैसे कि किसी सस्पेंस फिल्म में एकाएक गाने आ जाएं तो कोफ्त होती है। लेकिन जब दोबारा पढ़ा तो उन सम्वादों की कीमत पता चली। सर, ऐज़ ए राइटर यू स्टैण्ड अलोन
(गुरप्रीत सिंह)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ बेहद रोचक, तेजरफ्तार, इवेंटफुल और कसावट से भरा लगा। मास्टर शेफ द्वारा तैयार की ऐसी लज़ीज़ डिश की तरह लगा जिसके सारे इंग्रेड़ियेंट एकदम नाप तोल के सही मात्रा में मिक्स थे। नीलम की मौत से झकझोर के रख दिया, दिमाग हिला दिया लेकिन कहानी के हिसाब से ऐसे हाहाकारी वाकये से कोई शिकायत न हुई। जो हुआ, होना लाज़मी लगा।
अल्तमश की जुबान से निकले उसके अलफ़ाज़ बेहद जज्बाती कर गए – ‘आज मैं जद में हूँ, खुशगुमा न होना; चराग सबके बुझेंगे, हवा किसी नहीं।’ दोहरा कर कहता हूँ, विमल का नया शाहकार मुझे इन्तहाई पसन्द आया।
(राघवेन्द्र सिंह)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ मेरी उम्मीदों से भी बढ़ कर निकला। भरपूर मनोरंजन के साथ ही समय-समय पर आंखें भिगो देने वाले पलों से साबका पड़ा। ‘कहर’ में नीलम के साथ जो कुछ हुआ, उसकी रू में ये तो कहीं न कहीं अपेक्षित लग रहा था कि नीलम और सरदार जी का साथ अब ज्यादा लम्बा नहीं चल पायेगा लेकिन वो समय प्रस्तुत उपन्यास में आयेगा इसकी अपेक्षा शायद ही किसी विमल प्रेमी ने की होगी।
(वेंकटेश येमलावार)
□ उपन्यास लाजवाब। सब कुछ बेहतरीन और सन्तुलित। गजरे सीरीज़ के बाद पहली बार विमल सोहल जैसा लगा।
(राजीव)
□ नीलम की मौत के प्रसंग पर सख्त ऐतराज के बावजूद कहानी तेजरफ्तार थी। मज़ा आ गया। खासकर अल्तमश के मरने के समय के सम्बाद ने मुझे बहुत आन्दोलित किया।
(विकास अग्रवाल)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ पसन्द आया। अच्छा लिखा है। नीलम को आपने मक्ति दे दी, बहत अच्छा किया। ये आप को बहत पहले ही कर देना चाहिए था। अब भगवान के लिए उसको फिर से ज़िन्दा मत कर देना। विमल अब बेड़ियों से आज़ाद है। अब उसे नीलम की याद में या सूरज से मिलने के लिए तड़पता न दिखाना।
(मनजीत सिंह पंधेर)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवे’ धीरे-धीरे इत्मीनान से पढ़ी। यदि एक ही शब्द में उसका मूल्यांकन करना पड़े तो वह शब्द है – गज़ब!
‘कहर’ ने क़हर ढ़ाया था (कोई यूँ ही तो बैस्टसैलर लिस्ट में नम्बर वन नहीं आ जाता) तो जाके बैरी सन्मख जीवै’ ने तो गज़ब कर दिया। एक अध्यापक की तरफ से सौ में से सौ मार्क्स। (चेतन मुनि, श्री अवधूत आश्रम, करुक्षेत्र)
(लेखक साधुरूप धारण करने से पहले बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और हैड ऑफ डिपॉर्टमेंट थे। उनका नायाब आशीर्वाद है कि अभी भी मेरे उपन्यास पढ़ने के लिए समय निकाल लेते हैं जबकि अब उनका जीवन प्राणिमात्र की सेवा और परमपूज्य सद् गुरु अनन्त श्री ऋषभदेव अवधूत महाराज को समर्पित है।)
□ ‘जाके बैरी सन्मुख जीवै’ पढ़ के दो दिन बाद नीलम की मौत के सदमे से उबरा तो लगा कि आपने अगल से बान्ध के रखा है जो माल बढ़िया है’। उपन्यास को शुरू से ही मैंने टॉप गियर में पाया। विमल सीरीज़ का हर वो इंग्रेडियेट, जो सीरीज़ को मकबूल बनाता है, हर वो मसाला जो इसे लज़ीज़ बनाता है, हर वो फुदना जो इसे आकर्षक बनाता है, इसमें मौजूद था।
और इन सबसे ऊपर मोती जैसे सुन्दर, सटीक, सरस, सरल शब्द, यमुना के अविरल प्रवाह की तरह भाषा और भावनाओं के समन्दर के उतार चढ़ाव। लेकिन नीलम की मौत की सूरत में आपने खीर में ऐसी मक्खी डाली कि परोसे जाते ही अहसास ने सताया कि नीलम की मौत अब सोहल के जलाल और जलवे को आधा कर देगी, सीरीज़ का रुतबा कम कर देगी।
(संदीप शुक्ला )
अब दो, सिर्फ दो, असंतोषी मेल मुलाहजा फ़रमाइये :
□ ‘जाके बैरी सन्मख जीवै’ पढ़कर बिल्कुल मज़ा नहीं आया। आपने नीलम को मार दिया, इससे लगता है आप विमल सीरीज़ ख़त्म करना चाहते हैं। कुल जमा ‘जाके बैरी ... .’ ऐसी च्युगम की तरह लगी जो कई बार चबाई जा चुकी है, उसमें कोई नयापन नहीं है।
(संजय शर्मा ‘पराषर’)
□ ‘जाके बैरी के बारे बहत कम शब्दों में कोई प्रतिक्रिया देनी हो तो मुबारक अली के हमशक्ल भांजों अली, वली का पैट डायलॉग दोहराना चाहूँगा - ‘मामू, मज़ा नहीं आया।’
(अरविन्द कुमार शुक्ला)
अब अन्त में यूअर्स ट्रली कुछ कहने की इजाजत चाहता है :
नीलम की मौत पर पाठकों में जो तीव्र प्रतिक्रिया हुई, उससे आपका लेखक विचलित नहीं है, सन्तुष्ट है, आत्ममुग्ध है। ऐन यही चाहता था मैं–पाठकों को एकाएक यूँ झकझोर देना जैसे गहरी नींद से जागे हों। फिर यकीन न आना कि ऐसा भी हो सकता था, ऐसा ही हुआ था। मेरे तकरीबन तमाम पाठक ये तसलीम करने को तैयार नहीं थे कि नीलम का जाना ही सीरीज़ को आगे चलाए रखने का मूलमन्त्र था। सीरीज़ जिस मुकाम पर थी उसके तहत लेखक के पास दो ही चायस थीं या नीलम ख़त्म या सीरीज़ख़त्म।
पाठक खुद फैसला करें उन्हें क्या मंजूर होता!
नीलम की मौत से भड़के अपने सुबुद्ध पाठकों से मैं सवाल करता हूँ कि नीलम का क्या रोल विमल की ज़िन्दगी में बाकी रह गया था? विमल के साथ अमूमन वो कभी न रही, फिर बच्चे से भी दूर रही। अब क्या नीलम की सलामती, उसकी ज़रूरत विमल के साथ चुहलबाजी के लिए और स्मार्ट टॉक के लिए थी? नीलम को उसके जिन करतबों के लिए याद किया जाता है, क्या वो पहले कई-कई बार दोहराए नहीं जा चुके! ये वाकया क्या पहले ही बहुत बार दोहराया नहीं जा चुका जब कि नीलम ने विमल की जान बचाई या दुश्मनों ने नीलम को विमल के खिलाफ हथियार बनाया। ये दोहराव आइन्दा फिर सामने आता तो वही पाठक, जो अब नीलम की मौत पर तड़प कर दिखा रहे हैं, सीरीज़ पर दोहराव के इलज़ाम लगा रहे होते।
निवेदन है कि सुबुद्ध पाठक नीलम के सन्दर्भ में सिर्फ उन बातों को याद करता है जिन्हें वो पढ़ चुका होता है, इस बात की कोई भनक उसे नहीं होती, नहीं हो सकती, कि आइन्दा के लिए लेखक के मन में क्या पनप रहा है लेकिन लेखक ने उस बाबत बाकायदा अपना कोई अगला कदम – कई अगले कदम – निर्धारित किया होता है। सीरीज़ की भविष्य की गुंजायशें देख कर, उसे पहले से योजनाबद्ध करके ही चलाया जा सकता है। आप सीरीज़ लिखते हैं तो प्यास लगने पर ही कुंआ नहीं खोदते, प्यास बुझाने का इन्तज़ाम पहले से करके रखते हैं।
और अगर आपको मेरे पर भरोसा है तो यकीन जानिए कि वो इन्तज़ाम मेरे पास है। नीलम की मौत के बाद अब सीरीज़ में नयी गुंजायशें निकल आई हैं जिन्हें कि मैं सीरीज़ के आगामी उपन्यास में कैश करूंगा और शुरूआत के लिए सूत्र वहीं से पकडंगा जहां कि पिछली दकड़ी का समापन हुआ था, भले ही ऐसा कर पाने में मुझे कितना ही वक्त लगे।
यहां ये भी गौरतलब है कि पाठक मानते हैं कि नीलम विमल के पांव की बेड़ी बनी हई थी लेकिन जब वो बेड़ी काट दी गई पाई तो भड़क गए, कुबूल करने को तैयार ही न हुए कि 14000 पृष्ठों में फैले वृहद कथानक की आइन्दा परवाज़ को बनाए रखने के लिए अब नीलम को विदा करने का वक्त आ गया था। तो क्या लेखक को लकीर का फकीर ही बना रहना चाहिए था? कुछ बड़ा, कुछ सनसनीखेज, कुछ करिश्माई कर दिखाने से परहेज करना चाहिए था? नाराज़ पाठक हिंट क्यों न ले पाए कि वो बड़ा, वो चमत्कारी जो लेखक के ज़ेहन में था, वो नीलम को रुखसत किए बिना मुमकिन नहीं होने वाला था।
कितने ही नाराज़ और असंतुष्ट पाठकों के आलेख से साफ सिद्ध होता था कि आदमजात जज़्बात – अक्सर बेजा, बेबुनियाद – के हवाले हो कर अपने अलफ़ाज को कागज़ पर उकेरता है तो आगा पीछा नहीं सोचता। जज़्बात के हवाले उसे एक और सिर्फ एक बात अहम जान पड़ती है - नीलम को क्यों मारा?
वो ये सोचने की ज़हमत नहीं करता कि विमल सीरीज़ के नाम से जानी जाने वाली महागाथा (न भूतो, न भविष्यति) में लेखकीय ज़रूरत के मुताबिक किरदार आते जाते रहते हैं, सीरीज़ चलती रहती है – 44 तक पहुंची न! – ऐन वैसे ही जैसे वास्तविक जीवन में बन्धुबान्धव आते जाते रहते हैं, ज़िन्दगी चलती रहती है। प्राणीमात्र की ज़िन्दगी ने यूँ ही चलना होता है जैसे कि इस फानी दुनिया में कोई ब्रेकफास्ट के लिए रुकता है, कोई लंच के बाद रुखसत पाता है, किसी की ज़िन्दगी का समापन शाम की चाय पर होता है तो कोई डिनर के बाद ही नहीं, ‘नाइट कैप’ के बाद अपने बनाने वाले की देहरी पर हाजिरी भरता है। लिहाज़ा यँ किसी एक किरदार की चलचल के आगे दुनिया खत्म नहीं हो जाती।
साहबान, न एक फूल के खिलने से बहार आती है, न एक फूल के झड़ने से बहार जाती है। यकीन जानिए नीलम का प्रस्थान मैंने बहुत सोच-विचार के अनुसार निर्धारित किया था। उसके जाए बिना ये महागाथा अब आगे नहीं चल सकती थी, इस अहम बात का अहसास नाराज पाठकों को खुद होना चाहिए – कुछ को हुआ भी – मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हर वो काम जो नीलम इस महागाथा के लिए कर चुकी थी, कई-कई बार कर चुकी थी। अब महज़ डेकोरेशन के लिए नीलम की हाजिरी बनाए रखना क्या जायज़ बात होती!
याद कीजिए कि तुकाराम की मौत पर भी इसी तरह पाठकों ने कितना हो हल्ला मचाया था! तुकाराम अपनी टूटी टांग की दुश्वारियों से जूझता चारपाई पर पड़ा था और वागले उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी के तहत चारपाई के पाये से बन्धा था। ऐसा तुका विमल के, मेरी कहानी के किस काम आ सकता था? लिहाज़ा लेखक को एक बड़े ड्रामाई अन्दाज़ से उसे रुखसत करना पड़ा।
मेरा सवाल है – क्या आज किसी विमल सीरीज़ प्रेमी पाठक को तुका-वागले की कमी खलती है? क्या इन दोनों इनडिस्पैंसेबल समझे जाने वाले पात्रों की जगह बाखूबी इरफान और शोहाब नहीं ले चुके? यूँ ही आइन्दा भी ऐसा कुछ होगा – अगर आपका अपने लेखक पर अकीदा है तो वो करके दिखाएगा – कि नीलम की कमी किसी को नहीं खलेगी। वक्त असल ज़िन्दगी में बड़े-बड़े ग़म भुला देता है, ये सब तो फिर फिक्शन है, कपोल कल्पित है।
फिर अनायास न भड़क उठे कुछ पाठक समझ भी तो गए हैं कि नीलम की मौत आइन्दा एक नए धमाके की बुनियाद बनने वाली है। एक ऐसा धमाका जो किसी चमत्कार से कम न होगा।
कुछ पाठकों ने नीलम के जाने की तुलना शरलॉक होम्ज़ से की है जो कि गलत है। नीलम विमल सीरीज़ की बुनियाद नहीं थी जब कि होम्ज़ की कहानियाँ बतौर प्रमुख पात्र उनकी बुनियाद थीं। जमा, होम्ज़ के प्रणोता सर आर्थर कॉनन डॉयल होम्ज़ की बेतहाशा मशहूरी और मांग से परेशान थे क्योंकि होम्ज़ जैसी लोकप्रिय कहानियाँ उनके गम्भीर लेखन में बाधा थीं इसलिए वो हीरो की मौत के बहाने सीरीज़ से पीछा छुड़ाना चाहते थे। इसके विपरीत नीलम की मौत चित्रित ही इस मकसद के तहत की गई है कि सीरीज़ आगे चले।
पुस्तकों के विलक्षण संसार में आपको एक बार फिर ले जाने के उपक्रम में नीचे लिखे पर गौर फरमाइये :
जेम्स जॉयस के उपन्यास यूलीसिस से मुझे उम्मीद है कि हर पुस्तकप्रेमी वाकिफ होगा। 740 प्रिंटिड पेजिज़ का ये उपन्यास इंग्लैंड की शेक्सपियर एण्ड कम्पनी द्वारा सर्वप्रथम सन् 1922 में प्रकाशित किया गया था जबकि उसका प्रिंट ऑर्डर सिर्फ एक हज़ार प्रतियों का था। बुक एण्ड कलैक्टर नामक पत्रिका ने पुस्तक व्यापारियों के अपने एक सर्वे के आधार पर ‘यूलीसिस’ को बीसवीं सदी का सबसे ज़्यादा कीमती प्रथम संस्करण उपन्यास ठहराया था जबकि एक प्रसिद्ध आलोचिका का कहना था कि उसने ऐसा ‘वाहियात’ उपन्यास कभी नहीं पढ़ा था।
ज्ञातव्य है कि लेखक ने हज़ार में से केवल 100 प्रतियों को अपने हस्ताक्षरों से नवाज़ा था। उक्त पत्रिका ने अपने आकलन से लेखक द्वारा हस्ताक्षरित फर्स्ट एडीशंस की कीमत एक लाख पाउन्ड (लगभग तिरानवे लाख रुपये) ठहराई थी।
यानी ऐसी एक हस्ताक्षरित प्रति की कीमत हज़ार पाउन्ड सन् 1922 में, पुस्तक के प्रकाशन वर्ष में।
लेकिन ब्यासी साल बाद सन् 2004 में लेखक द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रति न्यूयॉर्क में हुई नीलामी में एक लाख साठ हज़ार पाउन्ड (लगभग डेढ़ करोड़ रुपये) में बिकी थी। इस असाधारण रूप से बड़ी कीमत के पीछे उक्त पत्रिका के सम्पादक जोनाथन स्कॉट ने जो वजह बताई थी वो ये थी कि 82 साल गुज़र चुके होने के बावजूद वो दर्लभ प्रति ‘एक्सीलेंट कंडीशन’ में थी और वैसी ही 82 साल पुरानी लेखक द्वारा हस्ताक्षरित, नई जैसी दूसरी प्रति मिल पाना असम्भव था और वो उपलब्धि एक ‘लिटरेरी लैण्डमार्क’ था।
इसलिए नीलामी में फाइनल बोली 1,60,000 पाउन्ड।
खेद है कि मैं पुस्तक की ओरीजिनल प्राइस से वाकिफ नहीं पर 82 साल पहले किसी साढ़े सात सौ पेज के उपन्यास की क्या कीमत रही होगी, इस की कल्पना आप सहज ही कर सकते हैं।
मेरे खयाल से बड़ी हद एक पाउन्ड।
ताकीद है कि आज पाउन्ड की कीमत 92.88 रुपये है और डॉलर की कीमत 71.76 रुपये है। 82 साल पहले भारत पर अंग्रेज के राज में डॉलर और रुपये की एक ही कीमत होती थी।
यानी एक डॉलर बराबर एक रुपया।
इस लिहाज़ से सन् 1922 में ‘यूलीसिस’ की अहस्ताक्षरित एक प्रति की कीमत : डेढ़ रुपया या दो रुपये।
दूसरे नम्बर पर शरलॉक होम्ज़ के प्रणेता सर आर्थर कानन डॉयल का उपन्यास ‘दि हाउन्ड ऑफ बास्करविलेस’ आता है जिसके प्रथम संस्करण की दर्लभ डस्ट जैकेट वाली प्रति की कीमत अस्सी हज़ार पाउन्ड (लगभग साढ़े सात करोड़ रुपये) ठहराई गई थी। ये उपन्यास मूल रूप से सन् 1902 में छपा था और ये बात किसी करिश्मे से कम नहीं कि 117 साल पहले छपा एक जासूसी उपन्यास आज भी लोकप्रिय है और यँ पढ़ा जाता है जैसे हाल ही में लिख गया हो। अकेले हिन्दी में दर्जनों प्रकाशक उसके सैंकड़ों एडीशन कर चुके हैं जिस वजह से हिन्दी में ये उपन्यास न कभी आउट ऑफ प्रिंट हआ है और न भविष्य में कभी होता लगता है। उपन्यास का हिन्दी में प्रमाणिक अनुवाद ‘आतशी कुत्ता’ के नाम से हुआ था और इसी पर पूरी तरह से आधारित वहीदा रहमान, बिस्वजीत अभिनीत फिल्म ‘बीस साल बाद बनी थी जो कि सन् 1962 में रिलीज़ हुई थी और खूब चली थी।
ऐसी टॉप टैन पुस्तकों में एक और जासूसी उपन्यास का भी शुमार है जिसका नाम ‘माल्टीज़ फाल्कॉन’ है, जिसके लेखक डैशिल हैमेट (DASHIELL HAMMETT) हैं और जो सन् 1929 में पहली बार प्रकाशित हुआ था।
ये हकीकत काबिलेगौर है कि डैशिल हैमेट को रेमंड चैंडलर (फेयरवैल, माई लवली) और जेम्स एम. केन (पोस्टमैन आलवेज़ रिंग्स ट्वाइस) नामक दो अन्य अमेरिकन रहस्यकथा लेखकों के साथ प्राइवेट डिटेक्टिव जेनर के उपन्यासों का जनक माना जाता है। यानी जिस किसी भी देशी-विदेशी लेखक ने अपने मिस्ट्री नावल का हीरो प्राइवेट डिटेक्टिव – पीडी – चुना, इन तीन महारथियों के बाद चुना। रहस्य कथा लेखन की, विदेशी जुबान में कहें तो पल्प फिक्शन की, विल्की कॉलिंस (जिसका 19वीं सदी का नावल ‘मूनस्टोन’ पहला मिस्ट्री नावल माना जाता है) से शुरू हुई सवा सौ साल से ज़्यादा की हिस्ट्री में इन तीन महानुभावों से पहले प्राइवेट डिटेक्टिव को अपने उपन्यास का हीरो बनाने का ख़याल कभी किसी को नहीं आया था।
‘माल्टीज़ फाल्कॉन’ की लोकप्रियता को ये बात भी मोहरबन्द करती है कि इस पर इसी नाम से सन् 1941 में बनी फिल्म इंगलिश की ऑल टाइम टॉप 100 फिल्म्स’ में 23वें नम्बर पर जाती है। यानी जो दर्जा सौ में से पहली पांच ऑल टाइम्स सुपर क्लासिक फिल्मों को (1. सिटीजन केन – 1941, 2. गॉडफादर – 1972, 3. कासाब्लांका 1942, 4. गॉन विद दि विंड – 1938, 5. ऑन दि वाटर फ्रंट - 1954) हासिल है, वही एक ‘बी’ ग्रेड जासूसी उपन्यास पर बनी फिल्म ‘माल्टीज़ फाल्कॉन’ को भी हासिल है जिसमें कासाब्लांका’ के अत्यन्त प्रसिद्धि प्राप्त हीरो हम्फ्री बोगाई ने प्राइवेट डिटेक्टिव साम स्पेड़ का रोल अदा किया था और पीड़ी हीरो की परिकल्पना को अमर कर दिया था।
‘क्लैक्टर्स प्राइड’ फर्स्ट एडीशंस के टॉप टैन में आने वाले बाकी नाम हैं :
□ डी.एस. लॉरेंस (लेडी चरटर्लीज लवर फेम) का सन् 1922 में प्रकाशित उपन्यास ‘सेवन पिलर्स ऑफ विज़डम’
‘यलीसिस’ की तर्ज में कीमत : 60,000 पाउन्ड (लगभग 56 लाख रुपये) गौरतलब है कि उपन्यास की जब उपरोक्त कीमत आंकी गई थी तब प्रथम संस्करण की आठ प्रतियां उपलब्ध थीं जिन में से अब छ: का ही अस्तित्व है।
□ एफ. स्काट फिट्ज़जीराल्ड का सन 1925 में प्रकाशित उपन्यास में दि ग्रेट गैट्सबी’ (जिसके हालिया इंगलिश फिल्म संस्करण में महानायक अमिताभ बच्चन ने भी अभिनय किया था)
कीमत : 50,000 पाउन्ड (लगभग छियालीस लाख रुपये)
□ बीट्रिक्स पॉटर का सन् 1901 में प्रकाशित बाल उपन्यास, जो कि बीसवीं सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना माना जाता है, ‘दि टेल ऑफ पीटर रैबिट’।
कीमत : 50,000 पाउन्ड (लगभग छियालीस लाख रुपये)
□ नोबल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हैमिंग्वे का सन् 1926 में प्रकाशित शाहकार ‘दि सन आलसो राइज़िज़’।
□ ग्राहम ग्रीन द्वारा सन् 1938 में रचित ‘ब्राइटन रॉक’
कीमत : 25,000 पाउन्ड (लगभग तेइस लाख रुपये)
गौरतलब है कि ग्राहम ग्रीन खालिस साहित्यकार थे लेकिन मिस्ट्री नावल्स भी लिखते थे, जैसे कि ‘मिनिस्ट्री ऑफ फियर’, कंफीडेंशल एजेन्ट।
□ अर्नेस्ट हैमिंग्वे की ही सन् 1923 की रचना ‘थ्री स्टोरीज़ एण्ड टैन पोयेम्स’
कीमत : 25,000 पाउन्ड (लगभग तेइस लाख रुपये)
□ विरजीनिया वोल्फ द्वारा रचित ‘नाईट एण्ड डे’।
कीमत : 25,000 पाउन्ड (लगभग तेइस लाख रुपये)
उपरोक्त प्रकार के गौरव को प्राप्त एक कदरन हालिया पुस्तक भी है जिसको जोनाथन स्कॉट ने ‘जवान’ कीमती संस्करण का दर्जा दिया है और जिसका सौ किताबों में क्रमवार स्थान 28वां है। वो पुस्तक है जे.के. रॉलिंग की ‘हैरी पॉटर एण्ड फिलॉस्फर्स स्टोन’ जो सन् 1997 में जब पहली बार प्रकाशित हुई थी तो उसकी कीमत 10.99 पाउन्ड (लगभग हजार रुपये) थी। जब कि इसके चुस्त दुरुस्त हालात वाले - मिंट कंडीशन में – प्रथम संस्करण की कीमत 15,000 पाउन्ड (लगभग चौदह लाख रुपये) आंकी जा चुकी है।
अब लाख रुपये का सवाल है कि क्या कभी भारत में हिन्दी के किसी मकबूल लेखक की मकबूलियत को उपरोक्त सरीखा दिन देखना नसीब होगा! क्या कभी ‘चन्द्रकान्ता’ य ‘गबन’ के प्रथम संस्करण की चुस्त दुरुस्त, लेखक द्वारा हस्ताक्षरित प्रति नीलामी में लाखों – या करोड़ों? – रुपये में बिकेगी! क्या कभी किसी पाठक के लिए ऐसी किसी किताब का मालिक होना फन का बायस बनेगा! जैसे लोगबाग ओल्ड, रेयर व्हिस्की की बोतल के मालिक होने पर फख से फूले नहीं समाते, वैसे क्या वो कभी इस बात को फन का मुद्दा बनाएंगे कि उनके पास ‘गीतांजलि’ के प्रथम संस्करण की स्वयं गुरुदेव द्वारा हस्ताक्षरित प्रति है जो, जाहिर है, कि हीरे जवाहरात के तोल के बराबर बेशकीमती है, जो उन्होंने नीलामी की बोली में कई कद्रदानों को पछाड़ का इतने लाख रुपयों में कब्ज़ाई।
क्या कभी आप के खादिम जैसे किसी मिस्ट्री राइटर की कोई पुस्तक किसी चौबीस कैरेट साहित्यकार की पुस्तक के समकक्ष ठहराई जाएगी?
मेरी ज़िन्दगी में तो नहीं!
आपकी ज़िन्दगी में भी नहीं।
सच पूछे तो कभी भी नहीं।
‘काला नाग’ के प्रति आपकी बेबाक राय की प्रतीक्षा में और नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ,
दिल्ली – 110051
26.12.2019
विनीत
सुरेन्द्र मोहन पाठक