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जुलाई 1980 - बम्बई

बम्बई... सपनों और समन्दर का शहर। इस शहर में अलग कशिश है या फिर यूँ मानो एक चुम्बकीय शक्ति इसमें समायी हुई है जो खींचती है भरसक। एक बार अगर कोई बम्बई को छू ले तो फिर वो बम्बई हो जाता है। शहर बम्बई, भीतर कहीं किसी गहरे छोर में समा जाता है। इंसान अब इंसान नहीं शहर हो जाता है - बम्बई शहर और इसी शहर के आलिंगन में अपना रूप लेती है एक कहानी।

साल 1980 के जुलाई महीने में एक आत्मा ने मानव शरीर का चोला पहना। एक प्यारी-सी, परी-सी बेटी ने एक ब्राह्मण दम्पति शकुंतला शर्मा और इन्द्रसेन शर्मा के घर जन्म लिया जो पिछले कई सालों से यहाँ रहते हुए अब बम्बइया हो चुके थे बम्बई के प्रेम में। तीस वर्षीय इन्द्रसेन बम्बई में एक सरकारी विभाग में कर्मचारी थे और साथ ही ज्योतिष व ग्रह-नक्षत्रों की अच्छी जानकारी भी रखते थे। उनकी सटीक भविष्यवाणी की क्षमता तभी साबित हो गयी थी जब वे दूसरी बार पिता बने। यह उनकी तीसरी संतान थी और उनको सितारों ने बताया था कि उनकी कोई दो संतानें ही इस संसार की गहराइयों को समझने और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए जीवित रहेंगी। कभी-कभी भविष्य की जानकारी होना किसी प्रलय से कम दुःखद नहीं होता। बेटी के जन्म के बाद इन्द्रसेन को विचारों ने घेर रखा था कि उनका ये हुनर अभिशाप है या वरदान।

 

बेटी के जन्म का दिन इन्द्रसेन के लिए खुशियों की सौ़गात के साथ-साथ एक अजीब-सा अज्ञात भय भी ले आया, जैसे बरखा के पहले काले घने मेघ। ये मेघ अगर बरसे तो खेत-खलिहान जी उठेंगे और जो बन बिजली गिरे तो काली भैंसों के ख़त्म हो जाने का डर। कुछ पल ऐसे अबूझ पल होते है कि दिल दोराहे पर खड़ा सोचता है कि उसे खुशियों के जश्न में शामिल होना है या फिर भविष्य के मातम की फ़िक्र में शरी़क। ऐसा ही कुछ हाल था इन्द्रसेन का। वे बेटी के जन्म से आनंदित थे, पर उस नन्ही कली के खिलते ही उसके सितारे भविष्य में होने वाले कंटीले उतार-चढाव की ओर साफ इशारा कर रहे थे।

उन्होंने इस परी-सी बेटी को नाम दिया श्रीति और स्नेह से उसे स्माइली पुकारते। अंक ज्योतिष के अनुरूप नाम रखकर वे उसके सितारों के नकारात्मक भावों को कुछ कम करना चाहते थे। यह नाम एक प्रयास भर था और शुरूआत थी सितारों से उलझने की। फिर भी मन में किसी कोने में यह बात घर कर रही थी कि उसके सितारों ने उसके लिए एक भटकाव लिखा है, ख़ुशियों के लिए एक संघर्ष तहरीर किया है।

 

अन्य नवजात बच्चों की तरह श्रीति ने भी संसार में रोते हुए ही क़दम रखा पर अगले कुछ महीनों तक वह आम बच्चों के मु़काबले कुछ अधिक रोयी। इन्द्रसेन का चार वर्ष का बेटा संस्कार अपने पिता से पूछता,

‘‘पापा! स्माइली इतना रोती क्यों है?’’

‘‘बेटा सोचो, अगर आप चल नहीं सकते, खा नहीं सकते, पी नहीं सकते, तो क्या करोगे?’’ इन्द्रसेन ने प्रेमपूर्वक पूछा।

‘‘तो मुझे रोना आयेगा।’’ संस्कार ने उत्तर दिया।

‘‘बस इसीलिए ये हमेशा रोती है।’’ इंद्रसेन ने कम शब्दों में समझाया।

वे नहीं जानते थे कि एक चार साल के बालकमन को क्या और कैसे समझाएँ कि कहा जाता है कि जब किसी का जन्म होता है तो वह पिछले जन्म की मृत्यु होने के कारण रोता है।

श्रीति के जन्म के कुछ समय पश्चात् ही इन्द्रसेन की छह साल की बड़ी पुत्री का टाइफाइड से निधन हो गया। सारा परिवार शोकाकुल था मानो एक भरा-पूरा बा़ग उजड़ गया हो। इन्द्रसेन को भलीभाँति पता था कि उसकी छोटी बेटी का भाग्य ही उसकी बड़ी बहन की मृत्यु का कारण बना है, परंतु वह सिर्फ देख सकते थे, उसे बदलने की क्षमता नहीं रखते थे। श्रीति की कुण्डली इन्द्रसेन से कहती थी कि श्रीति की आयु अच्छी रहेगी पर इसे कभी भी भाई-बहनों का सुख नहीं मिलेगा।

नव-ग्रहों की गति को समझकर अपने आस-पास की दुनिया की समस्याओं को सुलझाने वाला स्वयं अपनी संतान की कुण्डली देखकर उदास हो गया। ज़िन्दगी जैसे एक उधेड़बुन में थी ख़ुद के रहस्यों को सुलझाने की; समझने की एक अनसुलझी पहेली, जिसे जितना सुलझाओ उतना ही उलझ जाती। मन में उठ रही सवालों की तरंगें इन्द्रसेन को खींच लायीं समन्दर की ओर। यही तो खूबसूरती है बम्बई की। एक भागते दौड़ते कभी न सोने वाले शहर में आपका दर्द सुनने के लिए किसी के पास समय हो या न हो पर ये नीली लहरों वाला समन्दर हमेशा आपके लिए खड़ा होता है, विशाल बाँहें फैलाये एक दोस्त जो अपने जादू भरे मरहम से आपका दर्द कम कर देता है। इन्द्रसेन अपने अनसुलझे मन के साथ अक्सर यहाँ आता और घण्टों बातें करता रहता समन्दर की लहरों के साथ। समन्दर भी एक कवि के लिए पहेली ही रहा है, एक अनसुलझी पहेली। कभी तो एकदम शांत कोमल स्त्री के स्त्रीत्व गुणों को समझाती हैं ये लहरें और कभी गम्भीर, खूँखार शेरनी की तरह दहाड़ती हैं ये नमकीन पानी की तरंगें। शायद यह भी जीती हैं एक जीवन और जी रही है दर्द-ख़ुशियाँ, उतार-चढ़ाव और प्रस्तुत करती रहती हैं एक पहेली।

समन्दर के लिए हर आदमी के मन में एक अलग धारणा है। एक कवि के लिए अनकही कल्पना, जो कभी नरम धूप-सा है, तो कभी गर्म ब़र्फ-सा। एक गाँववासी जब बम्बई शहर देखने आता है तब उसे अपनी कल्पना वाला आसमानी रंग के पानी का रेगिस्तान देखना होता है जो उसने सुना है कहानियों-क़िस्सों में या देखा है चित्रों और सिनेमा में। पर शांत सो रहे समन्दर को देख उसकी कल्पना काँच की तरह चटक जाती है और मायूस मन लेकर गाँव लौटता है। एक साधारण आदम मन क्या जाने कि इसमें ग़लती लहरों की नहीं, समन्दर का कोई खेल नहीं... ये तो ख़ुद मासूम है जो गिरहों में बँधा है चाँद की। वो आँखें तो सिर्फ लहरों की अठखेलियाँ देखना चाहती हैं... इसका बँधा होना नहीं जानतीं कि ये गिऱफ्त में है चाँद के प्रेम में। ऐसी ही उलझी पहेली है ज़िंदगी भी। हम जीते हैं क्योंकि हम सि़र्फ जीना जानते हैं। जीवन को पढ़ पाना एक साधारण मन के हिस्से में नहीं, हम बस जीते जाते हैं। सहन कर जाते हैं ग़म और जी लेते हैं खुशी। पार कर जाना होता है चक्रव्यूह उतार और चढ़ाव का। पर इसके तमाम दर्द औ ज़ख्मों के ज़िम्मेदार न हम होते हैं और न ही ये जीवन; पर एक गिऱफ्त, जैसे चाँद क़सूरवार है लहरों के बदलते जीवन का, वैसे ही हमारा जीवन हमारे स्वयं के पास कहाँ होता है, यह तो सिर्फ सितारों की साज़िशों का एक शिकार मात्र है। ये सब तो ग्रहों-नक्षत्रों का निराला खेल है जो हमें चलाता है, कभी हँसाता है तो कभी रुलाता है और हम सिर्फ जीना जानते हैं क्योंकि यही नियम है। इन तारों-सितारों का क्या लेना देना एक साधारण मन से। हमारे जीवन का कौन-सा पल न जाने किस सितारे की शरारत है हम इससे अनजान ही रहते हैं ताउम्र।

इन्ही सवालों से घिरे इन्द्रसेन के मन को अचानक ही एक शरारती लहर ने छुआ, मानो उनके कान में चुपके से कहा हो कि जीना इसी का नाम है और जब जीना ही है तो मुस्कराहटों के साथ क्यों नहीं। इन्द्रसेन अब घर लौट चले थे समन्दर की अथाह शक्ति का एक हिस्सा अपने साथ लिये। इंद्रसेन ने सोच लिया था कि वह अपनी पत्नी या किसी को भी सितारों के इस खेल के बारे में भनक भी नहीं लगने देंगे और जो भी होगा उसे अपना भाग्य समझ स्वीकार करेंगे।

इन्द्रसेन देर रात में ज्योतिष की एक किताब पढ़ रहे थे, तभी विभिन्न प्रकार के विचार साँप की तरह उनके मन में फिर से रेंगने लगे। वह असमंजस में थे कि ये भविष्य जानने की क्षमता को वे क्या कहें- वरदान या अभिशाप। इंसान को हमेशा एक उत्सुकता घेरे रखती है। पर ज़िंदगी का रोमांच तभी तक रहता है जब तक वह एक अनिश्चित सफर हो। जिस पल हमें यह ज्ञात होता है कि जीवन में आगे क्या होने वाला है या क़िस्मत के पिटारे में क्या छिपा हुआ है, उस पल से न रोमांच रह जाता है और न ही उत्सुकता। ज़िंदगी फीकी चाय हो जाती है... बेस्वाद।

   य़कीनन यह दुविधा और अनिश्चितता ही तो है जो हमें एक बेहतर कल की आशा में पूरे ईमान व लगन से मेहनत करने को प्रेरित करती है। ज्ञान सदैव एक वरदान नहीं होता। कहा गया है कि जितनी बड़ी सत्ता, उतनी ही बड़ी ज़िम्मेदारी। एक सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं और यही पहलू हमें हमेशा विकल्प देते हैं... महत्त्व रखता है तो वह है चुनाव। हम चा़कू से सब़्जी काटें या किसी को लहूलुहान करें यह हमारे चुनाव पर निर्भर करता है। विकल्प हमेशा मौजूद रहते हैं हमारे चुनाव की प्रतीक्षा में। या तो हम हर घटना में कुछ अच्छा तलाश सकते हैं या फिर ग़लत पहलुओं पर ही ध्यान देकर अपनी ज़िंदगी बद से बदतर बना सकते हैं। ग्रहों-नक्षत्रों की अच्छी समझ ईश्वर का वरदान है मुझे। कुछ ऐसी दैवीय शक्ति है जिससे मुझे दूसरों की क़िस्मत पढ़ने और भविष्यवाणी करने की प्रेरणा मिलती है। ऐसे लोग जो अपने क़ीमती समय तथा ऊर्जा को बेकार कामों में बरबाद कर चुके हैं, मैं उनके हालात सुधार सकता हूँ अपने ज्ञान से उनके जीवन में एक मशाल बनकर। फिर भी इन सब चा़rजों के होने का क्या फ़ायदा जब मैं स्वयं अपनी बेटी को मृत्यु से नहीं बचा पाया। पर चाहे कुछ भी हुआ हो फिर भी मैं हार नहीं मानूँगा। यह एक विद्या है जो ईश्वर ने मुझे वरदान में दी है। जो हो गया उसे स्वीकार कर भविष्य को बेहतर बनाने का प्रयास करते रहना ही सही मानवीय धर्म है।

ईश्वर के किये से तर्वâ-वितर्वâ करना मूर्खता है। मुझे जीवन को उसके हर रूप में स्वीकार कर हर सम्भव कोशिश करनी होगी जिससे मेरे बच्चों का जीवन बेहतर हो जाए। अनुभव यह कहता है कि हम अपने अच्छे कर्मों से ग्रहों का अच्छा असर बढ़ा कर ग़लत असर कम कर सकते है। मैं अपनी विद्या से निराश न होकर उसे आलिंगन कर अपनी बेटी की राह आसान बनाऊँगा और उसे सिखाऊँगा कि इन चुनौतियों का सामना कैसे करना है। मैं उसे इतना योग्य और म़ज्बूत बना दूँगा कि वह बुरे से बुरे हालात का सामना करने में सक्षम होगी।