टीन एज
1994-1995 - बम्बई
समय अपनी ही लय में बहता है। मानव के लिए समय अक्सर ख़ुद के ख़यालों का अक्स होता है। दुःख के समय में यह दर्द भरा, धीमी गति से रेंगता प्रतीत होता है और सुखद क्षणों को रोशनी की ऱफ्तार से अपने साथ ले जाता है समय। श्रीति ने अगले कुछ महीने अपने प्रेम के पहले एहसास की याद में बिताये, फिर समय के साथ वह दर्द भी बह गया। अब उसकी ज़िदगी फिर आम जिन्दगी वाले ट्रैक पर आ गयी थी। उसके मम्मी-पापा अपने अपने जीवन में डूबे हुए थे।
स्कूल में सिखाये गये पाठों के अलावा उसे जो भी ज्ञान था वह टीवी की बदौलत था। वह अपना अधिकतर समय अपने पसंदीदा टीवी सीरियलों में प्रेम कहानियाँ देखने में बिताती और फिर कल्पनाओं की लहरों में डूब जाती। कल्पना करती अपने प्रेम की, चित्र उकेरती अपने राजकुमार के। टीन-ऐज में आते ही उसने अपने शरीर में हारमोनल बदलाव महसूस किये। अब वह बे़करार होने लगी थी। प्रेम विषयों में उसकी रुचि बढ़ने लगी थी जैसा कि उम्र के इस पड़ाव में हर किशोरी के साथ होता है।
प्रेम ने उसके जीवन पर एक बार फिर दस्तक दी। वह अपने स्कूल के एक छात्र आदर्श की ओर आकर्षित होने लगी जिसने हाल ही में स्कूल में दाख़िला लिया था। इस बार वह कोई भी अवसर गँवाकर फिर वही ग़लती दोहराना नहीं चाहती थी। श्रीति ने उसकी दोस्ती का हाथ बेझिझक थाम लिया और दोनों अच्छे दोस्त बन गये। दोनों एक-दूसरे के साथ समय बिताने लगे। दोनों साथ में कई घण्टों तक अपने पसंदीदा किरदारों पर बातें करते, हँसते-मुस्कराते घण्टों को मिनटों में बदलते देखते, साथ पढ़ते और मूवी देखने जाते। जब श्रीति आसपास उसे नहीं पाती तो सिर्फ़ उसी के ख़यालों में खोयी रहती। उसका किशोर मन कल्पनाएँ गढ़ने लगता। उसे अपने राजकुमार की तरह देखती अपने कल्पना के सुन्दर छोटे महल में। वह अब उसे खोना नहीं चाहती थी फिर चाहे उसे दुनिया से लड़ना ही क्यों न हो। वह इस ख़याल से बेहद ख़ुश थी कि उसे उसका प्यार मिल गया। वह अब इस दोस्ती में प्रेम के मायने ढूँढ़ने लगी।
एक दिन उन्हें एकान्त में समय बिताने का मौ़का मिला। ख़ाली क्लास-रूम में वे अपनी बातें कर रहे थे कि कब बातों का रु़ख मुड़ गया पता ही न चला। बातों ही बातों में आदर्श ने श्रीति से पूछा ‘‘क्या तुम मेरे साथ जिंदगी बिताना पसंद करोगी?’’
श्रीति पलकें झुकाये अभी उस पल में य़कीन कर ही रही थी कि उसने श्रीति को अपनी बाँहों में भरकर उसके होंठों को अपने होंठों से गहरा छू लिया। यह श्रीति के होंठो पर पहला चुम्बन था। उसके लिए वक्त जैसे थम-सा गया था। उसे अपने भीतर सरसराहट-सी महसूस हुई। वह उस लम्हे को महसूस कर जीना चाहती थी। इस पल वह सातवें स्वर्ग में थी और दुनिया नये-नये रंगों से सज गयी। पहले तो वह थोडा शरमायी, पर फिर उसने भी उसे अपनी बाँहों में भर लिया जैसा कि उसने अक्सर टीवी पर रोमांटिक सीरियलों मे होते देखा था।
वह इस रोमानी पल में खोयी हुई थी कि अचानक श्रीति ने क्लासरूम के बाहर कुछ आहटें सुनी। उसने दरवा़जे पर जाकर देखना चाहा लेकिन आदर्श ने फिर उसका हाथ पकड़ अपनी ओर खींच लिया। तभी उसे हँसने की आवा़जें आने लगीं। वह खड़ी हुई और दरवा़जे की ओर गयी। दरवा़जा खोलते ही उसने देखा कि आदर्श के कुछ दोस्त दरवा़जे के पास में घेरा बनाकर खड़े हैं। वह हैरान रह गयी। वह समझ नहीं पा रही थी कि वे लोग अचानक क्यों और कैसे आ गये, क्या वे सब उनकी उपस्थिति के बारे में पहले से जानते थे... ये सवाल उसे परेशान करने लगा। उसने अपना बैग उठाया और तुरंत वहाँ से चली गयी।
शाम को उसकी क्लासमेट व सहेली संरचना का फोन आया। संरचना ने उसे बताया कि आदर्श उसे बेव़कू़फ बना रहा था। वह लड़कियों से फ्लर्ट करने के लिए अपने दोस्तों से शर्त लगाता है और उन्हें अपनी गर्लफ्रेंण्ड बनाकर शारीरिक घनिष्ठता बढ़ा लेता है। इस बार श्रीति उसकी शिकार थी और वह शर्त जीत गया। वे सारे लड़के उन दोनों की इस आंतरिक निकटता को देखने के लिए बुलाये गये थे ताकि दोस्त शर्त का सबूत देख सकें।
यह सुनकर श्रीति टूट गयी। उसके सारे सपने चूड़ियों की तरह किरचों में बिखर गये। कल्पनाओं के संसार में ह़की़कत का यह रंग उसकी जिंदगी को ऐसे रँगेगा, उसने सोचा न था। अपनी कल्पना की दुनिया में उसने स्वयं के लिए अच्छे-अच्छे रंग ही चुने थे जैसा कि अमूमन हर इंसान सिनेमा देखने या किताब पढ़ने के बाद करता है। उसने तो उसे तहेदिल से चाहा था और ज़िदगी उसके साथ बिताना चाहती थी और उसने... उसने तो बस अपनी शर्त के लिए उसका इस्तेमाल किया। वह रात के काले कपड़े को आँखों के पानी से भिगोती रही और ख़यालों के अँधेरे जंगल मे घूमती रही - ‘जब हमें किसी इन्सान से प्यार हो जाता है तो हमें लगने लगता है कि हमसे ज़्यादा ख़ुशनसीब दुनिया में कोई नहीं है। ज़िदगी जैसे कि गुल़जार है। हर ची़ज अब हमें ख़ूबसूरत लगने लगती है। पर ये सुख बुलबुले होते हैं, ताश के पत्तों के महल की तरह बिखर जाते हैं। जैसे हर ची़ज का अंत निश्चित है, शायद प्रेम का भी अंत निश्चित होता है। शायद मेरे हाथों में प्यार वाली लकीर ही नहीं है। कहीं सुना था कि प्रेम की त़कदीर में अनदेखा और अनकहा अन्धकार छुपा होता है।'
श्रीति अगले कुछ हफ्तों तक गुमसुम-सी रही। उसका प्रफुल्ल स्वभाव काफी बदल गया था, उसकी लगातार बकबक करने की आदत अब एक शब्द या एक वाक्य के उत्तर तक ही सिमट गयी थी। उसे अब किसी से बेवजह लम्बी बातचीत में कोई रुचि नहीं थी। जब मम्मी ने उसके इस बदले हुए मि़जाज का कारण जानना चाहा तो उसने इसे परीक्षाओं की टेंशन बताकर टाल दिया। उसने ख़ुद से एक वादा कर लिया था अब कभी भी प्रेम न करने का। उसने सोच लिया था अब इस शब्द का उसके जीवन में कोई स्थान नहीं। स्कूल की पढ़ाई इस ज़ख्म का मरहम बन गयी।
परीक्षाओं के दौरान वह अपनी सहेली सुलक्षणा के साथ पढ़ाई किया करती थी। दोनों के पिता एक ही द़फ्तर में नौकरी करते थे और अच्छे दोस्त भी थे। सुलक्षणा, श्रीति के घर रुक जाया करती थी और परीक्षाओं के लिए दोनों साथ में ही तैयारी करती थीं। एक दिन सुलक्षणा ने अपनी निजी बातें श्रीति को बतायीं। वह भी प्रेम में एक बार हार चुकी थी, उसके दिल में भी एक नाकाम रिश्ते की चोट का ज़ख्म था। इस तरह से अपना दर्द बाँटने पर उन दोनों में आत्मीयता बढ़ने लगी और दोनों बेहद अच्छी सहेलिया बन गयीं।
दोनों ही उम्र के कुछ ऐसे पड़ाव पर थीं कि जिज्ञासा, आकर्षण और ज़िद के किनारे पर ठहरी थीं। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो हार्माेनल परिवर्तन की गिऱफ्त में। जिसके असर ने सुलक्षणा को कुछ नये अनुभवों से आलिंगन करवाया था। एक पत्रिका से उसने हस्तमैथुन के बारे में जाना था और प्रेम में विफल हो जाने के दु:ख ने उसका ध्यान इस ओर आकर्षित किया। इस दु:ख ने उसके जानने और प्रयोग करने की लालसा को और अधिक बढ़ावा दिया और इससे मिलने वाले सुख की संतुष्टि ने भी उसे मोह लिया।
उसने श्रीति से यह सब साझा किया कि अच्छा महसूस करने के लिए हमें किसी पर निर्भर होने की ज़रूरत नहीं होती, सुख अपने शरीर के भीतर ही छुपा हुआ होता है। तब श्रीति ने पहली बार हस्तमैथुन के बारे में सुना और प्रयोग किया। उसकी इस प्रथम कामोन्माद की अनूभूति ने उसे सातवें आसमान में पहुँचा दिया था जहाँ अब उसे जाना अच्छा लगने लगा था। बाली उमर का असर ही कुछ ऐसा था।
सुलक्षणा ने उसे बताया कि लोगों को सेक्स करते समय ठीक ऐसा ही महसूस होता है। यह हर मामले में सेक्स से बेहतर है क्योंकि सेक्स के दौरान आदमी औरत की भावनाओं का ध्यान सिर्फ़ इसलिए रखता है ताकि वो सेक्स का आनंद ले सके। अगर सेक्स न हो तो आदमी के लिए औरत की भावनाएँ कुछ मायने नहीं रखती हैं। जैसा कि उम्र की बचकानी सोच नदी की तरह वही बहती चलती है जहाँ आसानी से रस्ता मिल जाए। प्रेम में हाथ लगी निराशा ने जिस बात और अनुभव में सुख ढूँढ़ लिया बस उसी ओर सोच बह चली।
सुलक्षणा के जाने के बाद श्रीति सोचने लगी कि ‘इस ब्रह्माण्ड में कितनी अद्भुत ची़जें छिपी हुई हैं खोजने, जानने और करने के लिए। दुनिया ख़ुशी की खोज में दुनिया घूमती रहती है पर असल में ख़ुशी हमारे अन्दर की दुनिया में ही मिलती है। हमें किसी पर निर्भर होने की ज़रूरत नहीं है फिर भी आख़िर क्यों लोग इन सांसारिक रिश्तों और नश्वर चीजों में अपनी ख़ुशी तलाश करते हैं किसी ने सच ही कहा है कि ख़ुशी हमारे हाथ में ही है, पर क्या हम उनकी आपस में तुलना कर सकते हैं। मम्मी कहती है कि सही और ग़लत में बहुत फ़र्क होता है, उतना ही जितना ज़मीन और आसमान में, जितना होने और न होने में। हर अच्छी लगने वाली ची़ज सही नहीं भी हो सकती है। ठीक उसी तरह से जैसे कि जो ची़ज बुरी लगे ज़रूरी नहीं कि वह गलत ही हो। हमारा चुनाव ही हमारी ज़िदगी का प्रतिबिम्ब है। नैतिकता ने सिखाया है कि हमें हमेशा सही रास्ता चुनना चाहिए और ग़लत रास्ते को ऩजरअंदा़ज करना ही सही है तभी हमारी ख़ुशी टिकाऊ होगी। पर कुछ प्रश्न परेशान करने को हमेशा तैयार रहते हैं। सही रास्ते पर चलकर भी हमें ख़ुशी क्यों नहीं मिलतीं, फिर हमारे फैसला करने का आधार क्या होना चाहिए? जीवन हमें सुख भी देता है तो दु:ख भी। मैं दर्द के सहारे ख़ुशी पाने की कोशिश कर रही हूँ, ये सही है या ग़लत? या फिर ये पाप है? हे ईश्वर! ये सब समझने में मेरी मदद करो प्लीज।'