शनिवार : छब्बीस दिसम्बर
मुम्बई राजनगर खैरगढ़
सुबह के साढ़े सात बजे थे जबकि एक बन्द डिलीवरी ट्रक दहिशर से रवाना होकर वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर दाखिल हो रहा था। ट्रक के दोनों पहलुओं में बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था:
कंसारा फिशरीज
दहिशर
ट्रक बोरीवली और कांदीवली के बीच था जबकि ड्राइवर को सड़क पर तिरछी खड़ी पुलिस की एक जीप दिखाई दी जिसके करीब खड़ा एक सब-इन्स्पेक्टर उसे रुकने का इशारा कर रहा था।
ट्रक करीब पहुँचा तो ड्राइवर ने बाजू में करके उसे रोका।
सब-इन्स्पेक्टर ड्राइवर की साइड में उसके करीब पहुँचा।
“किधर जाता है?”—वो रौब से बोला।
“जुहू जाता है, बाप।”—ड्राइवर विनयशील स्वर में बोला—“सी-व्यू होटल।”
“नहीं जाने का है।”
“क्या बोला, बाप?”
“हाइवे पर आगे नहीं जाने का है।”
“पण काहे?”
“मलाड से पहले बहुत बड़ा एक्सीडेंट हो गया है, टोटल रोड जाम है।”
“ओह!”
“कोई और रोड पकड़।”
“बाप, ये फिक्स्ड टेम डिलीवरी...”
“घोड़बन्दर रोड से जा।”
“टेम पर कैसे पहुँचेगा अगर...”
“ठीक है। इधरीच रुक। जब रोड ब्लाॅक हटे तो जाना।”
“कब तक हटेगा?”
“दोपहर तो हो ही जायेगी!”
“ओह! ठीक है, बाप। बाजू का रास्ता पकड़ता है।”
“ट्रक में क्या है?”
“होटल की सप्लाई है, बाप।”
“क्या?”
“फिश, चिकन, मटन।”
“खोल के दिखा।”
“बाप, ये कंसारा फिशरीज का टिरक है।”
“तो?”
“कोई पुलिस वाला आज तक इसे नहीं रोका। कोई पुलिस वाला पीछू का बक्सा खोलने को नहीं बोला।”
“अभी मैं बोला न!”
“बाप, कंसारा साहब सीधे कमिश्नर को बोलेगा।”
“अभी बोलेगा? अभी है इधर तेरा कंसारा साहब?”
“नहीं, पण...”
“अभी कमिश्नर है इधर?”
“नक्को, पण...”
“तेरा कंसारा साहब जब बोलेगा तब बोलेगा, कमिश्नर साहब जब सुनेगा तब सुनेगा, अभी मैं बोलता है और तू सुनता है। क्या?”
“बाप, काहे खाली पीली...”
“क्यों साला मगज चाट रहा है? अभी मैं तेरा पोल्यूशन भी चैक करेगा।”
“क-क्या?”
“तेरा कागज पर्चा भी चैक करेगा। सप्लाई का माल का वे-बिल भी चैक करेगा। ये भी देखेगा कि कोई एक्साइज या सेल्स टैक्स वाली आइटम तो नहीं ढोता है!”
“अरे, बाप, क्या गजब...”
“ये दो भीड़ू कौन हैं जो तेरे साथ बैठेले हैं?”
“लोडर हैं।”
“तीनों नीचे उतरो।”
“बाप, कोई नजराना माँगता है तो कंसारा साहब देंगा न?”
“तू बन्द होना माँगता है?”
“अरे, नहीं, बाप।”
“तो नीचे उतर। तुम दोनों भी।”
तीनों नीचे उतरे।
“पीछू में चलो।”
तीनों पीछे पहुँचे।
“खोलो।”
ड्राइवर ने बन्द ट्रक का कंटेनर जैसा पिछला दरवाजा खोला।
“भीतर।”
“क्या?”
“तीनों भीतर चलो।”
“पण..”
“सुना नहीं!”
तीनों कंटेनर में, जिसमें कि छत तक प्लास्टिक के क्रेट लगे हुए थे लेकिन फिर भी फ्रंट में जगह थी, सवार हो गये।
“सब क्रेट निकालकर बाहर रखो।”—सब-इंस्पेक्टर ने नया हुक्म दनदनाया।
“क्या?”
“पुलिस को गुमनाम टिप मिला कि कंसारा फिशरीज का डिलीवरी ट्रक नाॅरकाॅटिक्स ढोता है।”
“क्या बोला, बाप?”
“हेरोइन, चरस जैसा नशे का आइटम ढोता है।”
“अरे, बाप, कुछ सोच के तो बोल! कंसारा साहब इतना बड़ा आदमी, ऐसा काम करेगा?”
“मेरे को एक एक क्रेट चैक करने का है, खाली ट्रक चैक करने का है। जल्दी कर।”
“बाप, मेरे को एक फोन लगाने दे।”
“अभी नहीं। पहले मेरा काम। बाद में जो मर्जी करना।”
“ऐसा जुल्म तो मैं पहले कभी नहीं देखा।”
“अभी देखा न! चल, शुरू कर वर्ना ट्रक भी थाने में बन्द और तुम तीनों भी थाने में बन्द।”
“बाप, रहम कर। ये दो घण्टे का काम है और उधर फिक्स्ड टेम डिलीवरी।”
“तू ऐसे नहीं मानेगा। डाकी!”
“बोलो, साहब जी।”—एक हवलदार बोला।
“चक्के पर बैठ और ट्रक को थाने ले कर चल।”
“नहीं, नहीं।”—ड्राइवर जल्दी से बोला—“उतारते हैं किरेट।”
पहला क्रेट सड़क पर पहुँचने तक सब-इंस्पेक्टर, जोकि बोगस था—नाम से भी और वर्दी से भी—ट्रक की ओट में पहुँच गया, उसने मोबाइल पर स्पीड डायलिंग पर सैट एक नम्बर पंच किया और फोन में बोला—“ट्रक काबू में है। दो घण्टे इधरीच होगा।”
ठीक आठ बजे कंसारा फिशरीज का डिलीवरी ट्रक होटल सी-व्यू के पिछले कम्पाउण्ड के आयरन गेट पर पहुँचा।
गार्ड ने ट्रक को पहचान कर गेट खोल दिया।
ट्रक कम्पाउण्ड में दाखिल हुआ और एक सायबान के नीचे जाकर रुका जहाँ पवन डांगले खड़ा था।
ट्रक के ड्राइविंग केबिन में ड्राइवर के साथ दो आदमी थे। खाकी वर्दी पहने और वैसी पी-कैप लगाये ड्राइवर खुद बापू बजरंगी था, उसके साथ उसके जो दो आदमी थे, उन में से एक का नाम अट्टा था और दूसरे का सोमया था। तीनों नीचे उतरे। बजरंगी ने डांगले का आभिवादन किया, उसको माल का चालान थमाया और पीछे जाकर ट्रक का दरवाजा खोला।
उसके दोनों जोड़ीदार भीतर से क्रेट निकाल निकाल कर एक ओर रखने लगे।
उन क्रेटों की भी एक विशेषता थी जिस की बाबत बजरंगी ने वक्त रहते पता लगा लिया था। क्रेट तीन रंगों के थे। हरे क्रेटों में मटन था, पीले क्रेटों में चिकन थे और नीले क्रेटों में फिश थी।
लोडर तीन रंगों के क्रेटों को तीन ढेरों में रखने लगे।
होटल के भीतर की एक खिड़की में इरफान और शोहाब मौजूद थे और दूरबीन के जरिये उन तीनों जनों का मुआयना कर रहे थे जो एक बहुत बड़ी चाल चलने वहाँ पहुँचे हुए थे।
सब सामान उतर गया तो डांगले ने उन्हें दोबारा गिना और गिनती का मिलान चालान पर दर्ज गिनती से किया।
चालान के मुताबिक एक क्रेट ज्यादा था।
“एक क्रेट ज्यास्ती है।”—वो धीरे से बजरंगी से बोला।
“बोले तो है न!”—बजरंगी बोला।
“कौन-सा?”
“नीला। बाहर लोबस्टर लिखेला है।”
“ठीक।”
डांगले ने चालान की कापी साइन करके उसे दी।
फिर उसने चार सिक्योरिटी गार्ड्स को करीब बुलाया।
“तुम वो”—वो बोला—“पीले और हरे क्रेट चैक करो, नीले क्रेट मैं खुद चैक करता हूँ।”
सहमति में सिर हिलाते चारों गार्ड काम करने लगे।
दस मिनट वो सिलसिला चला।
उतना अरसा बजरंगी अपने साथियों के साथ थोड़ा परे ठिठका खड़ा रहा।
फिर क्रेट भीतर ले जाये जाने लगे।
बजरंगी ने चैन की साँस ली।
फिर वो तीनों पूर्ववत् ट्रक में सवार हो गये।
बजरंगी ने ट्रक को सायबान के नीचे से निकाला, उसे कम्पाउण्ड में घुमाकर उसका रुख आयरन गेट की तरफ किया और एक बार हौले से हार्न बजाकर उसे आगे बढ़ाया।
उस घड़ी पौने नौ बजे थे।
आधा घण्टा!—सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाते बजरंगी ने मन ही मन सोचा—बस आधा घण्टा और।
गार्ड ने गेट खोल दिया।
ट्रक कम्पाउण्ड से बाहर निकल गया।
बाहर दो कारें मौजूद थी जिन में से एक में बुझेकर और पिचड़ सवार थे और दूसरी में परचुरे और मतकरी मौजूद थे।
ट्रक के पीछे लगने के लिए दो टीमें इसलिये तैयार की गयी थीं ताकि किसी वजह से एक कार पीछे न लगी रह पाती तो वो काम दूसरी कार सँभाल लेती। वो पोजीशन बदल-बदल कर पीछे लगते तो ट्रक को हमेशा एक ही कार पीछे न दिखाई देती।
सारे क्रेट किचन के स्टोर में पहुँच गये तो आनन-फानन नीले क्रेटों को खोला गया।
सबमें से आरडीएक्स बरामद हुआ। हर क्रेट में डिटोनेटर के साथ अपनी टाइम क्लॉक थी और सब पर सवा नौ का टाइम दर्ज था।
तत्काल डिटोनेटर, घड़ियों और आरडीएक्स को अलग किया गया।
“तौबा!”—शोहाब बोला—“आरडीएक्स डेढ़ सौ किलो से कम नहीं होगा।”
“इन लोगों की सलाहियात भी तो कमाल की है”—विमल बोला—“जो खड़े पैर इतना आरडीएक्स इकट्ठा कर लेते हैं!”
“इस्पेशल क्रेट भी तो खोलो!”—इरफान बोला।
बाहर लोबस्टर लिखे क्रेट को डांगले ने खोला।
भीतर से हजार हजार रुपये के नोटों में और डालर के पचास पचास के नोटों में ढाई करोड़ रुपया चौकस बरामद हुआ।
तभी मारवाड़े का पुण्डालिक नाम का मातहत वहाँ पहुँचा।
“बुरी खबर है।”—वो दबे स्वर में बोला।
सबने सशंक भाव से उसकी तरफ देखा।
“मारवाड़े साहब।”—वो और भी दबे स्वर में बोला—“फिनिश।”
“क्या हुआ?”—विमल ने पूछा।
“कल रात किसी वक्त मुम्बई पूना रोड पर कार का एक्सीडेंट हुआ। एक ट्रक ने सीधी टक्कर मारी। पुलिस बोलती है न कार का कुछ बचा न मारवाड़े साहब का। बड़ी मुश्किल से शिनाख्त हो पायी। ट्रक चोरी का था। एक्सीडेंट वाली जगह से पाँच किलोमीटर परे खड़ा मिल गया था।”
“जरूर एक्सीडेंट स्टेज किया गया था।”
“जाहिर है।”—इरफान बोला।
“इधर खबर कैसे पहुँची?”—विमल ने सवाल किया।
“हाइवे पैट्रोल का एक सब-इन्स्पेक्टर आया।”—पुण्डालिक बोला—“शिनाख्त के लिए किसी को साथ ले जाना माँगता है।”
“लाश और कार अभी हाइवे पर ही है?”
“कार मुलुँड थाने में है और लाश वहीं के सरकारी अस्पताल की मोर्ग में है।”
विमल ने शोहाब की तरफ देखा।
“मैं जाता हूँ।”—तत्काल शोहाब बोला—“पहले उसकी बेगम को न्यूज ब्रेक करता हूँ और फिर उसे भी साथ ले कर जाता हूँ। चल, पुण्डालिक।”
वो दोनों चले गये।
तभी एक सिक्योरिटी गार्ड वहाँ पहुँचा।
“कंसारा फिशरीज का एक और डिलीवरी ट्रक आ गया है, साहब।”—वो डांगले से बोला—“आयरन गेट पर रोक के रखा है। क्या बोले?”
डांगले ने विमल की ओर देखा।
“असली ट्रक होगा!”—विमल बोला।
“आने दो।”—इरफान बोला—“क्योंकि फिश तो आयी ही नहीं।”
“मैं देखता हूँ।”—डांगले बोला।
वो सिक्योरिटी गार्ड के साथ हो लिया।
दफेदार मोबाइल हाथ में लिये बैठा था।
साढ़े नौ बजे चुके थे।
मोबाइल नहीं बजा था।
ये मुबारक खबर उसे सुनने को नहीं मिली थी कि होटल सी-व्यू नेस्तानाबूद हो चुका था।
दस बजे वो खुद जुहू के लिए रवाना हुआ।
साढ़े दस बजे वो होटल सी-व्यू के आगे से गुजरा।
होटल सी-व्यू आसमान की ओर सिर उठाये शान से खड़ा था।
दगा!
पाँच करोड़ रुपया मिट्टी।
तभी मोबाइल की घण्टी बजी।
लाइन पर बापू बजरंगी था।
“कहाँ मर गया था?”—वो गर्जा।
“बाप, वेट करता था।”—जवाब मिला।
“किस बात का? कमेटी का रुक्का जारी होने का कि होटल खत्म हो गया?”
“बाप, मैं सोचा घड़ियों में कोई गड़बड़। मास्टर क्लॉक पर एक घण्टा आगे का टेम सैट हो गया। इस वास्ते एक घण्टा और इन्तजार किया। पण...”
“क्या पण?”
“बाप, वो साला पवन डांगले धोखा दे गया।”
“मजे से रोकड़ा हज्म कर गया?”
“ऐसीच हुआ।”
“अब थाम उसे।”
“बोले तो वो भी मुमकिन नहीं दिखाई देता।”
“काहे?”
“होटल में है। अगर वो सच में दगा किया तो मेरे को नहीं लगता वो अकेले बाहर निकलेगा।”
“फोन लगा।”
“लगाया न! जो नम्बर वो मेरे को दिया, जैसे वो बोला, वैसे उस पर फोन लगाया पण कोई बात नहीं कराता। जितने टेम फोन किया एकीच जवाब मिला; इधर नहीं है।”
“होगा भी तो अब क्यों तेरे से बात करेगा!”
“बाप, वो...”
“तू ही साला बड़ा बोल बोला कि वो भीड़ू ऐन फिट था। तू साला उसको ऐन फिट नहीं किया, वो साला तेरे को ऐन फिट किया। तेरे को साला पाँच खोखा का मुर्गी बनाया। क्या!”
“अभी तो ऐसीच लगता है।”
“क्या लगता है?”
“उस भीड़ू की, पवन डांगले की, पटने की कोई मर्जी हैइच नहीं थी। वो भी साला अपने बॉस जैसा ही ढीठ था। तभी ज्यादा से ज्यादा रोकड़ा खींचने में दम लगाया। मेरे पीठ फेरते ही जाकर बॉस लोगों को सब बक दिया।”
“यानी कि आज सुबह जब तू स्पैशल डिलीवरी के साथ होटल पहुँचा था तो वो तेरे इस्तकबाल के लिए उधर तैयार बैठे थे?”
“ऐसीच जान पड़ता है।”
“फिर तू कैस बच गया?”
“क्या बोला, बाप?”
“उधर से सेफ कैसे निकल आया?”
“क-कैसे निकल गया?”
“मेरे से पूछता है?”
“कोई मेरे पीछू?”
“अभी आया भेजे में कुछ। वो लोग तेरे को इसी वास्ते उधर से चला जाने दिया क्यों कि वो लोग तेरे को मेरे तक पहुँचने का जरिया बनाना माँगता था।”
“पण, बाप, मेरे को किधर मालूम तुम किधर है?”
“उन को भी किधर मालूम कि तेरे को नहीं मालूम?”
“ओह!”
“कभी तो मेरे को तेरे से रूबरू मिलना माँगता होयेंगा, कभी तो तू कहीं मेरे पास पहुँचेगा! तभी क्या होगा?”
“कुछ नहीं होगा, बाप।”
“क्या करेगा?”
“मेरे को कोई साला पीछे लगा दिखाई दिया, मैं साला उसको डाज नहीं देगा, बुलेट देगा।”
“बजरंगी, कुछ भी करना, कोई तेरे पीछे लगा मेरे तक पहुँचा तो उसका पता नहीं क्या होगा, तू नहीं बचेगा।”
“बाप, फिक्र नक्को, मैं...”
“अभी कट कर।”
दोपहर के करीब मेहरोत्रा मैजेस्टिक सर्कल पर स्थित एक सरकार से मंजूरशुदा मनीचेंजर के ऑफिस में पहुँचा।
उसका पिछला दिन इतना मसरूफ गुजरा था कि वो मनीचेंजर तक फेरा लगाने का पहले टाइम नहीं निकाल सका था।
“यूरो का क्या रेट चल रहा है?”—उसने बाहरी ऑफिस में बैठे क्लर्क से पूछा।
“बावन-पचास।”—जवाब मिला।
बढ़िया! बढ़िया।
“मैंने तो बावन-पिचहत्तर सुना है!”—फिर भी वो बोला।
“कल तक था। अभी बावन-पचास है। और नीचे जायेगा।”
“भई, बावन-पिचहत्तर ही लगाओ।”
“कितने हैं आपके पास?”
“दस हजार।”
“बावन-साठ लगा दूँगा।”
“भई, पिचहत्तर...”
“नहीं। पैंसठ भी नहीं।”
“ठीक है। पेमेंट कैसे दोगे?”
“जैसे आप चाहें।”
“हजार के नोटों में।”
“हो जायेगा।”
मेहरोत्रा ने बीस नोट उसके सामने रखे।
“ये तो पाँच सौ के नोट हैं!”—क्लर्क बोला।
“तो क्या हुआ? इनके पाँच सौ के होने में कोई प्राब्लम है?”
“नहीं, नहीं। कोई प्राब्लम नहीं।”
“तो?”
“कुछ नहीं। मैं वाउचर बनाता हूँ, रुपये ले के आता हूँ। पाँच मिनट लगेंगे।”
“कोई बात नहीं।”
वो उठकर भीतरी ऑफिस में चला गया।
भीतर एजेंसी का प्रोपराइटर मौजूद था।
“पाँच सौ यूरो के एक ही सीरियल के नोटों की बाबत पुलिस के महकमे से जो फैक्स आया था”—क्लर्क बोला—“वो कहाँ है?”
“क्यों?”—प्रोपराइटर ने सवाल किया।
क्लर्क ने उसके सामने नोट रखे।
“बीस हैं।”—वो बोला—“एक ही सीरियल के हैं। बिल्कुल नये हैं।”
“ये तो पुलिस के फैक्स वाले ही नम्बर हैं!”
“पक्की बात?”
“अरे, वो फैक्स मैंने यहाँ अपने सामने टेबल ग्लास के नीचे लगाया हुआ है। वही नम्बर हैं। कौन लाया ये नोट?”
“कस्टमर लाया।”
“कहाँ है?”
“पेमेंट के इन्तजार में बाहर बैठा है।”
“उसे जाके बातों में लगाओ, ठण्डा-वण्डा पिलाओ, मैं पुलिस को फोन करता हूँ।”
“ठीक है।”
खैरगढ़ पुलिस चौकी पर एक ही टेलीफोन कनैक्शन था जो कि चौकी इंचार्ज भगवती सिंह डोभाल चौकी में मौजूद हो तो उसके ऑफिस में बजता था और अगर वो चौकी में न हो तो उसकी लम्बी तार के सदके उसे बाहर बरामदे में रख दिया जाता था। उस घड़ी क्योंकि डोभाल चौकी में मौजूद था इसलिये फोन बजा तो वो उसने अपने ऑफिस में खुद उठाया।
“हल्लो!”—वो माउथपीस में बोला, वो इतना मोटा था कि फोन उठाकर कान से लगाने की प्रक्रिया में ही हाँफता जान पड़ता था।
“दारोगा जी।”—आवाज आयी—“सिपाही किशोर लाल बोलता हूँ सरकुलर रोड से।”
“बोल, भई।”
“साहब जी, अच्छी खबर है।”
“क्या?”
“हमारा पंछी लौट आया है।”
“अच्छा! कब लौटा?”
“अभी पाँच मिनट पहले। फौरन आप को इत्तला की है।”
“ये वाकेई अच्छी खबर है। समझ ले इसने तेरे पाप धो दिये। पहले बुधवार को राजनगर में तेरे से जो कोताही हुई थी, समझ ले अब वो पूरी तरह से माफ हो गयी।”
“साहब जी, मैं तो पहले भी पूरा चौकस...”
“अब पसर नहीं। उस पर निगाह रख। अगर वो फिर खिसकता जान पड़े तो गिरफ्तार कर लेना।”
“खिसकता जान पड़े?”
“मुझे अन्देशा है कहीं वो अपना साजोसामान समेटने न आया हो!”
“ओह! मैं समझ गया, साहब जी।”
“कोई मिलने जुलने वाला उसके पास पहुँचे तो उसकी भी खबर करना।”
“ठीक है, साहब जी।”
“रात तक तूने वहाँ से हिलना नहीं है।”
“साहब जी, रात तक?”
“हाँ, रात तक। यहाँ हैडक्वार्टर से कोई आला अफसर आने वाला है इसलिये मैं चौकी से नहीं हिल सकता। वो आये न आये, रात आठ बजे तक मुझे चौकी पर उसकी बाट जोहने का हुक्म है। इसलिये आठ बजे से पहले मैं सरकुलर रोड का रुख नहीं कर सकता। समझ गया?”
“समझ तो गया, साहब जी, लेकिन बीच में रामजस को इधर भेज देते तो...”
“आज ऐसा नहीं हो सकता। तू आज अकेला उधर चौकसी कर, आगे मैं सोचूँगा तेरी सख्त ड्यूटी की बाबत।”
“अच्छा, साहब जी।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया।
मनीचेंजर के ऑफिस में मेहरोत्रा को आनन फानन हिरासत में लिया गया, उसके यूरो के नोट सीज किये गये और उसे मैजेस्टिक सर्कल पुलिस स्टेशन पर एसएचओ इंस्पेक्टर अटल के ऑफिस में पहुँचाया गया।
जहाँ भीतर तक हिले हुए मेहरोत्रा ने हकीकत यूँ बयान की जैसे कि पुलिस उन नोटों की दास्तान सुनने को उतनी उत्सुक न हो, जितना कि वो सुनाने को मरा जा रहा हो।
“हूँ।”—एसएचओ बोला—“तो दिलीप चौधरी नाम है उस शख्स का जिसने फ्लैट की बैलेंस पेमेंट के तौर पर आपको ये नोट सौंपे?”
“जी हाँ।”
“आपने इस बात की तसदीक की कि वो वही है जो अपने आपको बताता है?”
“बराबर की, साहब।”
“कैसे? कैसे की?”
“उसका ड्राइविंग लाइसेंस देखा। जिस पर उसका नाम था, तसवीर थी और इकबालपुर की मिश्रा कालोनी का पता था, उसने क्योंकि अभी फुल पेमेंट नहीं की थी इसलिये फ्लैट की रजिस्ट्री अभी उसके नाम होना बाकी है। जब रजिस्ट्री का वक्त आयेगा तो उसे और भी काफी कुछ अपने बारे में दाखिलदफ्तर कराना पड़ेगा।”
“तो मूल रूप से वो इकबालपुर का रहने वाला है?”
“हाँ।”
“उसने ये न बताया यूरो के नोट उसके पास कहाँ से आये?”
“नहीं बताया, साहब।”
“पूछा होता!”
“पूछा था। जवाब देने की जगह भड़क गया। बोला, जहन्नुम से आये।”
“आप कहते हैं उसके साथ एक नौजवान लड़की भी है?”
“जी हाँ।”
“वो कौन है?”
“भतीजी बताता है।”
“बताता है?”
“जी हाँ।”
“असल में कुछ और हो सकती है?”
मेहरोत्रा ने एक क्षण सोचा और फिर इंकार में सिर हिलाया।
“हूँ। उस शख्स के बारे में या भतीजी के बारे में कोई और बात हो जो आप हमें बताना चाहते हों?”
उसने फिर इंकार में सिर हिलाया।
“हूँ।”—इस बार एसएचओ ने पहले से लम्बी हुँकार भरी।
कुछ क्षण खामोशी रही।
“अब मैं जा सकता हूँ?”—मेहरोत्रा आशापूर्ण स्वर में बोला।
“क्या?”—एसएचओ तनिक हड़बड़ाया—“नहीं। अभी आप यहीं रहेंगे।”
“मैं क्या अपने आपको गिरफ्तार समझूँ?”
“मेहमान समझिये।”
“लेकिन...”
“जब तक आप के बयान की तसदीक नहीं हो जाती, तब तक आप यहाँ से नहीं जा सकते।”
“लेकिन मैंने क्या किया है?”
“मालूम करेंगे। आपके पोजेशन में फारेन करेंसी पायी गयी है जिसका सोर्स अगर स्थापित नहीं होगा तो प्राब्लम होगी। आपको।”
मेहरोत्रा अवाक् एसएचओ का मुँह देखने लगा।
“सब-इन्स्पेक्टर के साथ जाइये।”
वो उठा तो उसके पहलू में खड़े सब-इन्स्पेक्टर ने उसकी बाँह थाम ली और उसे अपने साथ लिवा ले गया।
पीछे एसएचओ ने उस सर्कल के एसपी को फोन लगाया जिसके तहत सुनामपुर थाना आता था।
उसे पहले से मालूम था कि एसपी का नाम यदुनाथ सिंह था।
काफी देर बाद आखिरकार उसकी एसपी यदुनाथ सिंह से बात हुई।
उसने तमाम वाकया बयान किया।
“ये बहुत बड़ी लीड है।”—एसपी यदुनाथ सिंह उत्तेजित भाव से बोला—“जिसको फालो करने के लिए मैं खुद राजनगर आना चाहता हूँ। इंस्पेक्टर, मैं कल सुबह से पहले राजनगर नहीं पहुँच सकता।”
“ऐसा?”
“हाँ। मैं रूबरू शिनाख्त के लिए उस शख्स को साथ लाना चाहता हूँ, तुम्हारे द्वारा सीज किये गये यूरोज का जो असली मालिक है। वो शख्स मुझे हाथ के हाथ उपलब्ध नहीं हो सकता। उसके साथ मैं सुबह ही पहुँच पाऊँगा।”
“तब तक हम क्या करें?”—एसएचओ ने पूछा—“दिलीप चौधरी नाम के उस शख्स को और उसकी भतीजी को हिरासत में ले लें?”
“अभी नहीं। अभी सिर्फ उन पर निगाह रखी जाये। लेकिन अगर वो फरार होने की कोशिश करते लगें तो उन्हें फौरन गिरफ्तार कर लिया जाये।”
“अभी ही क्यों नहीं?”
“आप लोग उन्हें पहले गिरफ्तार कर लेंगे तो एलीमेंट आफ सरपराइज की जो एडवांटेज हम लेना चाहते हैं, वो हमें नहीं मिल सकेगी। मैं एकाएक जाकर उन दोनों के सामने खड़ा होना चाहता हूँ और उन के सिर पर ये बम फोड़ना चाहता हूँ कि क्रिसमस ईव को यहाँ के गार्जियन बैंक की डकैती के मुजरिमों के तौर पर उनकी शिनाख्त हो चुकी हैं और फिर देखना चाहता हूँ कि एकाएक हुए इस रहस्योद््घाटन की उन पर क्या प्रतिक्रिया होती है!”
“जो आप बेहतर समझें। हमें जो हुक्म होगा, हम करेंगे।”
“आप उन पर वाच रखिये और मेरे राजनगर पहुँचने का इन्तजार कीजिये।”
“राइट, सर।”
सी-गार्डन बार के पिछवाड़े में स्थित धीरज परमार के वैभवशाली ऑफिस में सिमरन ने कदम रखा तो उसके बैठने से भी पहले परमार बोला—“गया?”
“हाँ।”—सिमरन एक विजिटर्स चेयर पर ढेर होती बोली—“सुबह जाने का था, अभी शाम को गया।”
“शाम को भी कलेजे पर पत्थर रख के गया होगा!”
“वो तो है।”—सिमरन कुटिल भाव से बोली।
“तू साली है ही ऐसी। जादू कर देती है।”
“वो तो है!”
“अब तफसील से बता, क्या बोला?”
सिमरन ने बताया।
“तो अब”—वो खामोश हुई तो परमार बोला—“खुल जा सिमसिम का दर्जा रखने वाली चमत्कारी आइटम दिलीप चौधरी के कब्जे में है?”
“हाँ। नेवीगेटर। जिसे उससे छीन लेना कोई मुश्किल काम तो न होगा?”
“वो तो मामूली काम है, लेकिन इस्तेमाल करना तो हमें नहीं आता! वो तो चौधरी को ही आता होगा!”
“तो फिर?”
“फिर ये कि उसे वो ही इस्तेमाल करेगा। हम उस पर वाच रखेंगे, जब माल उसके काबू में आ जायेगा तो झपट लेंगे।”
“हम में कौन-कौन शुमार हैं?”
“मैं, तू और मनकोटिया। मनकोटिया किसलिये, तेरे को मालूम ही है।”
“मोहन बाबू?”
“पागल हुई है! मुर्गी खायी जाती है, खाना शेयर करने के लिए दस्तरखान पर साथ नहीं बिठाई जाती।”
“हूँ।”
“स्टीमर किनारे लगा होता तो अभी तक उन लोगों को जहन्नुमरसीद हुए”—परमार ने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली—“सैंतीस घण्टे हो चुके होते।”
“इस बात की तसदीक की कि चाचा भतीजी कूपर रोड पर हैं।”
“हाँ। ‘अलकतारा’ की पाँचवीं मंजिल पर उनका दो बैडरूम का फ्लैट है जोकि उन्होंने हाल ही में खरीदा है। खरीदा है, इसका मतलब है कि वो जल्दी वहाँ से नहीं टलने वाले।”
“गुड।”
“लेकिन एक बात है।”
“क्या?”
“मैंने खुद वहाँ का चक्कर लगाया था। मुझे लगा था कि कुछ लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।”
“कौन लोग?”
“क्या पता कौन लोग! हो सकता है मोहन बाबू ने उनकी निगरानी का कोई इन्तजाम किया हो!”
“नहीं किया।”
“पक्की बात?”
“हाँ। जब निगरानी की जरूरत महसूस करेगा तो या वो आकर खुद करेगा या इस बाबत तुमसे ही बात करेगा।”
“वो बोला ऐसा?”
“हाँ। साफ बोला।”
“तो फिर वो लोग कौन होंगे जो मैंने निगरानी पर देखे थे?”
“पुलिस वाले।”
“पुलिस ऐसी निगरानी भला क्यों करेगी? उन्हें किसी पर शक होता है तो वो उसे हिरासत में लेते हैं और अपनी जरूरत के मुताबिक डण्डा परेड करते हैं।”
“निगरानी भी किसी वजह से उन की जरूरत होगी। अभी मेरा सवाल ये है कि अगर पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया तो हम क्या करेंगे?”
“हम क्या करेंगे! एक सुनहरा, वन्स इन मैनी लाइफ टाइम्स वाला, मौका हाथ से निकल गया होने का मातम मनायेंगे और क्या करेंगे?”
“हमें उन की निगरानी का अपना इन्तजाम करना चाहिये।”
“फायदा?”
“फायदा देखेंगे। जैसा मौका पेश होगा, उसके मुताबिक फायदा देखेंगे।”
“हूँ। अभी यहाँ मनकोटिया आने वाला है, वो बड़ा आदमी है, उसके साधन बड़े हैं; उसे आने दे, फिर उससे मशवरा करते हैं कि आगे हमें क्या करना चाहिये।”
सिमरन ने दृढता से इंकार में सिर हिलाया।
“क्यों?”—परमार हैरानी से बोला—“क्या हुआ?”
“तुमने उसे नेवीगेटर के बारे में बताया है?”
“अभी नहीं। जब दिन में उससे बात हुई थी तो मैंने उसे दो घण्टे बाद फोन लगाने को बोला था जोकि उसने नहीं लगाया था। फिर मैंने उसे फोन किया था तो वो बोला था सिग्नल क्लियर नहीं था, ठीक से कुछ सुनायी नहीं दे रहा था, वो शाम छ: बजे यहाँ आयेगा।”
“मतलब ये कि नहीं बताया?”
“हाँ।”
“अब बताना भी मत। उसको सिर्फ इतना बोलना कि सोना समुद्र में डूब गया और ये पता लगाने का कोई जरिया नहीं कि वो कहाँ डूबा!”
“ऐसा क्यों?”
“मुझे उस शख्स पर एतबार नहीं। जैसा धोखा वो मोहन बाबू के साथ करने की तैयारी किये बैठा था, वैसा वो तुम्हारे साथ भी कर सकता है।”
“मेरे साथ? अरे, नहीं।”
“क्यों? तुम आसमान से उतरे हो?”
“नहीं, आसमान से तो नहीं उतरा लेकिन...”
“तुम उसके माँ जाये हो जोकि मोहन बाबू नहीं है?”
“वो तो ठीक है लेकिन...”
“एक बार जो आइडिया उसके भेजे में घर कर गया, वो क्या आसानी से निकल जायेगा? एक बार मुँह को लहू लग जाये तो कहीं छूटता है?”
“तू तो मुझे फिक्र में डाल रही है!”
“मनकोटिया से किनारा करने से बड़ी हद माल हाथ से जायेगा, न किनारा करने से जान और माल दोनों हाथ से जायेंगे।”
“ये बड़ा प्रोजेक्ट है, हम इसे कैसे हैंडल करेंगे?”
“करेंगे किसी तरीके से। पहले इस बात का मन तो बनाओ कि इसे हमीं ने हैंडल करना है!”
“हूँ।”
“फिलहाल हमने चाचा भतीजी की निगरानी का इन्तजाम करना है, क्या वो भी बहुत मुश्किल काम है तुम्हारे वास्ते?”
“नहीं, उसका इन्तजाम तो मैं बाखूबी कर लूँगा लेकिन जब मोहन बाबू भी आकर यही कुछ करने लगेगा तो हमारी लाइनें क्रॉस नहीं होंगी?”
“वो अकेला चौबीस घण्टे ये काम नहीं करता रह सकता। इस बाबत तुम्हारे से दरखास्त उसे लगानी पड़ेगी।”
“न लगाई तो? अपनी ही सलाहियात जुटाने में लग गया तो?”
“वो ऐसा नहीं करेगा। जब मैं कहती हूँ वो ऐसा नहीं करेगा तो नहीं करेगा। जब मैं कहती हूँ वो इस बाबत तुमसे बात करेगा तो तुम से बात करेगा।”
“हूँ। बहरहाल तेरी बात का कुल जमा मतलब ये हुआ कि अगर हमने दो मुसीबतों में से एक को चुनना है तो हमें छोटी मुसीबत को, मोहन बाबू को, चुनना चाहिये।”
“अभी आयी बात समझ में।”
“ठीक है, मैं...”
तभी मनकोटिया ने वहाँ कदम रखा।
नौ बजे खैरगढ़ चौकी इंचार्ज भगवती सिंह डोभाल सरकुलर रोड पहुँचा।
उस पर निगाह पड़ते ही सिपाही किशोर लाल कहीं ओट से निकला और उसके करीब पहुँचा।
“भीतर है?”—डोभाल ने पूछा।
“हाँ, साहब जी।”—किशोर लाल बोला।
“कोई आया गया?”
“कोई नहीं।”
“खुद वो कहीं गया हो?”
“कहीं नहीं गया। जब से आया है, भीतर है। बरामदे तक में नहीं निकला।”
“ठीक। देखता हूँ साले को।”
“साहब जी, अब मैं जाऊँ?”
“अभी नहीं।”
“अभी भी नहीं?”
“रामजस को मैं इधर पहुँचने को बोल के आया हूँ, उसके आने तक रुक।”
“साहब जी, उसे साथ लेके आना था!”
“क्यों मरा जा रहा है? आता ही होगा वो। बड़ी हद आधे घण्टे की बात है।”
“अच्छी बात है।”
डोभाल ने कोठी के कम्पाउण्ड में कदम रखा और बरामदे में जाकर कालबैल बजायी।
भीतर कालबैल की आवाज सुनकर जगमोहन सकपकाया।
सिमरन के आगे उसकी जिद फिर नहीं चली थी नतीजतन खैरगढ़ सुबह पहुँचने की जगह वो शाम को पहुँचा था और उस रात जल्दी सो जाने का तमन्नाई था जबकि पहले ही विघ्न आ गया था।
उसने दरवाजा खोला।
“दारोगा जी, आप!”—वो खिन्न भाव से बोला।
“नमस्ते, मोहन बाबू।”
“अब क्या है?”
“कुछ नहीं है। होना क्या है...”
“इधर से गुजर रहे थे इसलिये सोचा मिलते चलें?”
“हा हा। आप तो अन्तर्यामी है! कैसे मन की बात भाँप लेते हैं! आप को तो पुलिस में होना चाहिये था!”
“अच्छा!”
“हाँ। अब जरा बाजू तो हटिये।”
“मैं सोने की तैयारी कर रहा था।”
“अरे, मोहन बाबू अभी तो नौ बजे हैं!”
“मैं थका हुआ हूँ।”
“जरूर लम्बे सफर से लौटे होंगे!”
“ऐसी बात नहीं है।”
“बढ़िया। आप तैयारी ही तो कर रहे हैं सोने की, सो तो नहीं गये हैं?”
“आपको मैं सोया हुआ लगता हूँ?”
“जरा भी नहीं। मैं ज्यादा टाइम नहीं लूँगा और चाय पिलाने को तो बिल्कुल नहीं बोलूँगा। अब हटिये।”
तीव्र अनिच्छापूर्ण भाव से जगमोहन एक तरफ हटा।
दोनों ड्राईंगरूम में पहुँचे।
डोभाल एक सोफाचेयर पर ढेर हुआ।
“दाढ़ी क्यों मूँड दी?”—वो बोला।
“क्या?”
“फ्रेंचकट दाढ़ी! अच्छी लगती थी आपको। मूँड क्यों दी? मूँछ भी?”
“मैंने कब रखीं फ्रेंच कट दाढ़ी-मूँछ?”
“रखीं तो बराबर।”
“एक दो दिन मैंने शेव नहीं की थी, आपने सोचा होगा कि...”
“शेव न करने पर दाढ़ी सारे मुँह पर होती हैं, सिर्फ ठोढ़ी पर नहीं।”
“आप नाहक...”
“दाई से पेट छुपाने वाला काम कर रहे हो, मोहन बाबू। ये पुलिस वाले की निगाह है, मुँह पर मफलर लपेट लेने से गुमराह नहीं होती।”
तौबा! कैसा घाघ था? हर बात ताड़ लेता था!
“अरे, दारोगा जी”—वो जबरन हँसा—“क्यों बात का बतंगड़ बना रहे हो? समझ लो शौक से रखी, शौक पूरा हो गया, साफ कर दी।”
“इतनी-सी बात को झुठलाने की कोशिश भी शौक ने करवाई?”
“अब आप तो बात के पीछे ही...”
“खैर। खैर। अब बताइये किस का शौक? आप का या माशूक का?”
“क्या?”
“आशिकी में ऐसे शौकों की तरफ ज्यादा तवज्जो जाती हैं। माशूक ने कहा होगा फ्रेंच कट दाढ़ी मूँछ आपको अच्छी लगेगी, आपने रख ली, अब कहा होगा आप क्लीनशेव्ड ही अच्छे लगते थे, आपने मूँड दी। नहीं?”
“मेरी क्लीनशेव्ड शक्ल से आपको परेशानी है तो मैं दाढ़ी फिर रख लेता हूँ।”
“अरे नहीं, मुझे क्या परेशानी होगी। मैं तो यूँ ही सोच रहा था कि बुधवार आप गये तो दाढ़ी-मूँछ में गये, लौटे तो क्लीनशेव्ड लौटे। वैसे कहाँ गये थे?”
“राजनगर।”
“राजनगर तो गये थे, वहाँ के बाद कहाँ गये थे?”
“कहीं नहीं। सारा अरसा वहीं था।”
“वहाँ तो नहीं थे! एक बार गायब होने के बाद...”
“गायब। गायब होने के बाद?”
“...न तो आप ‘सी-गार्डन’ में दिखाई दिये थे और न लिंक रोड अपने प्रेम घरौंदे पर पहुँचे थे।”
“आपको कैसे मालूम?”
“आपको मालूम ही है कैसे मालूम!”
“तो आप कबूल करते हैं आपने मेरे पीछे अपने आदमी लगाये हुए हैं?”
“हाँ।”
जगमोहन हड़बड़ाया, उसने अपलक डोभाल की तरफ देखा।
“इसी वजह से जानता हूँ”—इस बार डोभाल बोला तो लहजे से वो पहले जैसा मिलनसार नहीं लग रहा था, अब वो खास पुलिसिया लहजे में बोल रहा था—“कि बुधवार राजनगर में आपने जानबूझकर मेरे आदमी को डाज दी थी ताकि आप पुलिस की जानकारी में आये बिना किसी नयी वारदात को अंजाम दे पाते।”
“नयी वारदात?”
“जी हाँ, नयी वारदात। जोकि आपका कारोबार है।”
“क्या!”
“जो आप अब तक बारह बार अंजाम दे चुके हैं। तीन-तीन, चार-चार के ग्रुप में अपने जैसे ग्यारह साथियों के साथ। अभी तक आप जो करोड़ों रुपया पीट चुके हैं, उस में अँगूर के एक दाने का भी दखल नहीं है। अब मुकर कर दिखाइये इस बात से।”
जगमोहन के मुँह से बोल न फूटा, वो भौंचक्का-सा डोभाल का मुँह देखता रहा।
“क-कैसे”—आखिरकार उसके मुँह से निकला—“कैसे...ज-जाना?”
“वैसे ही जैसे पुलिस जानती है। दाई से पेट कहीं छुपता है!”
“इसी वजह से पीछे पड़े थे?”
“और क्या?”
“कैसे जाना?”
“तूने ही बताया, भैया।”
“म-मैंने?”
डोभाल ने जेब से एक तहशुदा कागज निकाला और उसे खोलकर जगमोहन की नाक के सामने लहराया।
“ये लिस्ट देख।”—फिर वो कर्कश स्वर में बोला—“देख और पहचान।”
जगमोहन ने देखी। पहचानी।
“मेरी गैरहाजिरी में मेरे घर में घुसे?”—वो बोला।
“लेकिन ओरिजिनल को नहीं छेड़ा। ओरिजिनल अपनी जगह सलामत है। बेशक जा के तसदीक कर ले। ये फोटोकापी है।”
जगमोहन खामोश रहा।
“अब मैं इस लिस्ट में दर्ज लूट के तेरे बारह कारनामों का ही जामिन नहीं हूँ मैं ये भी जानता हूँ कि तेरा असली नाम जगमोहन है और तू पटना से चार खून करके भागा हुआ इश्तिहारी मुजरिम है।”
“ये जान चुकने के बाद मेरे सामने बैठे हो?”
“हाँ। तेरी हिम्मत हो तो मेरी उँगली का एक नाखून भी छू के दिखा।”
“तुम्हारा ये बड़ा बोल ही साबित कर रहा है कि तुम्हारे जोड़ीदार बाहर मौजूद हैं—एक को तो मैंने देखा था बाहर मँडराता जो राजनगर तक मेरे पीछे लगा था, किशोर लाल नाम था शायद—अब जरूर कई होंगे!”
वो हँसा।
“क्या चाहते हो?”
“ये भी कोई पूछने की बात है?”
“है तो सही।”
“माल निकाल।”
“माल?”
“जो करोड़ों में है। इस लिस्ट का टोटल यही चुगली कर रहा है। बोल, कहाँ है माल?”
“खर्च कर दिया।”
“क्या बकता है?”
“कुछ खर्च कर दिया, कुछ दान दे दिया।”
“खर्च कर दिया तो समझ में आया, दान किसे दे दिया?”
“सोहल को।”
“किसको?”
“सोहल को।”
“जो इश्तिहारी मुजरिम है?”
“जो दाता है। दीन का बन्धु है। गरीबों, बेसहारों का आसरा है।”
“तूने सब माल उसको दे दिया?”
“हाँ।”
“कैसे दिया?”
“उसको चिट्ठी लिखी, वो आया और ले गया।”
“कहाँ से? यहाँ से या राजनगर से?”
“राजनगर से।”
“क्योंकि माल माशूक के पास रखता है?”
“मेरी कोई माशूक नहीं।”
“तू समझता है तेरा सब झूठ, कोरी बकवास चल जायेगी?”
“मैंने कोई झूठ नहीं बोला।”
“झूठ ही झूठ बोला। साले, यूँ तेरी जान साँसत से नहीं निकलने वाली।”
“ये जुल्म है जो...”
“जुल्म अभी तूने देखा कहाँ है? एक मिनट में माल निकाल के मेरे सामने रख वर्ना मैं दिखाता हूँ।”
“मेरे पास कुछ नहीं है।”
“अच्छा? कुछ नहीं है?”
“मेरा मतलब है मोटा माल नहीं है। जैसे माल के तुम सपने देख रहे हो, वो मेरे पास नहीं है, चाहो तो यहाँ की तलाशी ले तो।”
“वो तो मैं ले चुका।”
“क्या!”
“माल कहीं और है और तू मुझे अभी बतायेगा कि वो कहाँ है?”
“कैसे बताऊँगा जबकि...”
“देख, मैं तेरा लिहाज करने को तैयार हूँ।”
“लिहाज?”
“मैं माल तेरे हलक में हाथ दे के निकलवा सकता हूँ फिर भी मैं फिफ्टी-फिफ्टी के लिए तैयार हूँ। अब बोल, क्या कहता है?”
“मैंने जो बोलना था, बोल दिया।”
“क्या मतलब हुआ इसका? अब आइन्दा तेरे को बोलने से भी परहेज है?”
जगमोहन खामोश रहा।
“मैंने तो गूँगे बुलवाये हुए हैं, तू तो है क्या चीज!”
डोभाल उछलकर खड़ा हुआ, उसने जेब से गन निकालकर जगमोहन की तरफ तान दी।
“उठ के खड़ा हो।”—वो हिंसक भाव से बोला।
“तुम्हारी गोली चलाने की मजाल नहीं हो सकती।”—उठता हुआ जगमोहन बोला।
“अच्छा!”
“हाँ।”
“एक खूनी ने, एक डकैत ने गिरफ्तारी से बचने के लिए पुलिस के दारोगा पर हमला कर दिया जिसकी वजह से दारोगा को गोली चलानी पड़ी, ये बहुत बड़ी मजाल की बात है?”
जगमोहन से जवाब देते न बना।
“मैडल मिलेगा मेरे को जब तेरी असलियत उजागर होगी। घूम के खड़ा हो। मेरी तरफ पीठ कर।”
जगमोहन ने हिचकते हुए आदेश का पालन किया।
“हाथ पीठ पीछे।”
जगमोहन ने हाथ पीठ पीछे किये तो डोभाल ने आगे बढ़कर उनमें हथकड़ियाँ भर दी।
फिर मुँह में रूमाल ठूँस दिया।
फिर एक फुट लाइट को छोड़कर वहाँ की सारी बत्तियाँ बुझा दीं।
“इधर देख।”
जगमोहन घूमा।
“माल मेरे हवाले करता है या नहीं?”
जगमोहन का सिर स्वयमेव इंकार में हिला।
“ठीक है, बेटा। अब देख दरोगा भगवती सिंह डोभाल क्या करता है!”
उसने अपनी पतलून में से चमड़े की बैल्ट खींच ली और जगमोहन को धुनना शुरू कर दिया।
सुबह से शाम हो गयी थी।
तब तक बापू बजरंगी, कंसारा फिशरीज के नकली ट्रक से पीछा छुड़ा चुका था, एक पुरानी फियेट कार अपने कब्जे में कर चुका था और अपने पीछे लगी दो टीमों को पहचान चुका था जिन में से एक के हवाले एक सफेद ओमनी थी और दूसरी एक ग्रे इंडिका में सवार थी।
नौ बजे वो चर्चगेट स्टेशन पर पहुँचा। उसने अपनी फियेट पार्किंग में खड़ी की और स्टेशन में दाखिल हुआ। बुकिंग से उसने दादर का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर पहुँचा। दो मिनट में लोकल प्लेटफार्म पर पहुँची तो वो उसमें सवार हो गया।
अपने पीछे उसने एक बार भी झाँकने की कोशिश नहीं की थी, क्योंकि बिना झाँके भी उसे गारण्टी थी कि कोई न कोई उसके पीछे लगा हुआ था।
दादर स्टेशन पर वो उतरा और बाहर निकल कर कार पार्किंग में पहुँचा। वहाँ पार्किंग में कितनी ही कारें मौजूद थीं जिनमें से एक जेन को उसने बड़ी आसानी से खोल लिया और फिर उसका इग्नीशन भी ऑन कर लिया। उसने डैश बोर्ड में लगे बक्से को खोला तो भीतर कार की सर्विस बुक, रजिस्ट्रेशन और इंश्योरेंस की फोटोकापी मौजूद पायी। उसने चर्चगेट की पार्किंग से मिली कार की पर्ची को अपनी उँगलियों में सरकाया और कार आगे बढ़ायी। निकासी का रास्ता आने से पहले ही उसने ड्राइविंग साइड की खिड़की का शीशा नीचे गिराया और पर्ची वाला हाथ बाहर खड़े पार्किंग अटेंडेंट की ओर हिलाता उच्च स्वर में बोला—“अक्खे दिन का टोकन है, अभी लौट के आने का है।”
जवाब में अटेंडेंट के कुछ बोल पाने से पहले वो वहाँ से बाहर था और कार मेन रोड की ओर दौड़ी चली जा रही थी।
आगे एक चौराहा आया तो उसने कार को बायीं ओर केलकर रोड पर मोड़ा।
आगे उसका लक्ष्य शिवाजी पार्क होकर दादर सी फेस था।
अब सफेद ओमनी और ग्रे इंडिका वैसे ही उसके पीछे लगी थीं जैसे कि वो दिनभर उन्हें पीछे लगी देखता रहा था। कभी इंडिका आगे निकल जाती थी तो ओमनी पीछे रह जाती थी तो कभी उसका उलट हो जाता था।
सावरकर मार्ग का चौराहा पार करके उसने कार को एक कदरन अन्धेरी और उजाड़ सड़क पर डाला।
उस घड़ी उसके पीछे ओमनी थी और आगे इंडिका कहीं दिखाई नहीं दे रही थी।
एकाएक उसने पूरी ताकत से कार को ब्रेक लगाई। ब्रेकों की घरघराहट से वातावरण गूँजा, कार बुरी तरह से डगमगाई और फिर बड़ी मुश्किल से स्थिर हुई।
पीछे आती ओमनी उससे टकराने से बाल बाल बची।
बजरंगी ने फुर्ती से कार को रिवर्स गियर में डाला और स्टियरिंग पर पाँव का पूरा दबाव डाला तो शैतानी रफ्तार से बैक होती कार धड़ाम से जाकर ओमनी से टकराई। खुद बजरंगी के शरीर को भीषण झटका लगा जिसे वो सीट बैल्ट की वजह से झेल गया। उसने फुर्ती से सीट बैल्ट से खुद को मुक्त किया और गन हाथ में लिये पीछे ओमनी की तरफ झपटा।
इससे पहले कि ओमनी में बैठे बुझेकर और पिचड़ उस इरादतन किये गये एक्सीडेंट से उबर पाते, ओमनी का पैसेंजर सीट का दरवाजा खुला और फिर एक गन उन्होंने अपनी तरफ तनी पायी।
“सुबह से पीछे लगे हो।”—बजरंगी कहरभरे लहजे में बोला—“पीछा छुड़ाने का ये भी एक तरीका है कि तुम दोनों को यही ढेर कर दूँ और फिर तुम्हारे इंडिका वाले जोड़ीदारों की खबर लूँ। क्या!”
“क्या माँगता है?”—ड्राइविंग सीट और स्टियरिंग के बीच फँसा बुझेकर कठिन स्वर में बोला।
“पीछा छोड़। यहीच माँगता है।”
“अब तो छूट ही गया! गाड़ी ठोक दी। पता नहीं दोबारा चलेगी या नहीं!”
“इंडिका वालों को भी बोल। अभी कोई मेरे पीछे दिखाई दिया तो ठोक दूँगा। क्या!”
कोई कुछ न बोला।
“अपने साहब लोगों को अक्कल देना, जिस भीड़ू को मालूम कोई उसके पीछू उसके पीछू कोई लगा नहीं रह सकता। ये भी बोलना मौत छू के गुजर गयी।”
उसने खामखाह एक गोली उन दोनों के बीच झोंक दी और फिर सड़क छोड़कर फुर्ती से शिवाजी पार्क के विशाल मैदान में कहीं गुम हो गया।
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