सोमवार : अट्ठाईस दिसम्बर
मुम्बई राजनगर खैरगढ़
ग्यारह बजे एसपी यदुनाथ सिंह मैजेस्टिक सर्कल पुलिस स्टेशन पहुँचा जहाँ थानाध्यक्ष इंस्पेक्टर अटल से उसकी मुलाकात हुई।
“क्या खबर है?”—एसपी बोला।
“कोई खास खबर नहीं, सर।”—इंस्पेक्टर ने उत्तर दिया—“एलीशिया टावर वाले फ्लैट का पिछला मालिक तो अभी नहीं मिल सका लेकिन फ्लैट की रजिस्ट्री की रजिस्ट्रार आफिस में उपलब्ध रिकार्ड से पड़ताल हुई है।”
“क्या पता लगा?”
“वो रजिस्ट्री मोहन बाबू पासवान के नाम है जिस पर उसकी जो पासपोर्ट साइज की तसवीर लगी हुई है, वो आपकी कम्पोजिट पिक्चर से कोई खास नहीं मिलती। वजह ये हो सकती है कि वो खानापूरी के लिए खड़े पैर खिंचवाई गयी चलताऊ तसवीर है। राह चलते खिंचवाई गयी ऐसी तसवीर, आप जानते ही हैं कि, कैसी होती है!”
“और?”
“तसवीर पर मोहन बाबू पासवान का जो पता दर्ज है, वो पटना का है और मालूम पड़ा है कि फर्जी है।”
“कैसे मालूम पड़ा?”
“पटना पुलिस को फोन लगाया। पते में दर्ज नाम वाली न वहाँ कोई कालोनी है, न कोई इलाका है, न सड़क है।”
“फिर तो ये आदमी बैंक लुटेरा हो सकता है!”
“वो कैसे?”
“भई, वो कोई जेनुइन आदमी होता, आम शहरी होता तो उसका पटना का पता फर्जी क्यों होता?”
“बात तो आपकी ठीक है!”
“अब सवाल ये है कि ये आदमी मिले तो कैसे मिले?”
“इस बाबत मेरे पास आपके लिए एक न्यूज है।”
“क्या?”
“हैडक्वार्टर में एक गुमनाम काल पहुँची है जिसमें काल करने वाले का कहना है कि अखबार में छपी तसवीरों में से एक खैरगढ़ में सरकुलर रोड पर रहते एक शख्स की हो सकती है।”
“कौन-सी? फ्रेंच कट दाढ़ी मूँछ वाली या क्लीनशेव्ड?”
“क्लीनशेव्ड।”
“उस सूरत वाला आदमी खैरगढ़ में सरकुलर रोड पर रहता है?”
“फोन पर ऐसा ही बोला गया था।”
“सरकुलर रोड पर कहाँ?”
“कोठी नम्बर पन्द्रह में।”
“और ये खैरगढ़ कहाँ है?”
“तारकपुर से बारह किलोमीटर आगे ट्रंक लाइन पर एक कस्बा है, जिसकी चौकी तारकपुर थाने के अण्डर आती है।”
“मैं वहाँ जाना चाहता हूँ।”
“नो प्राब्लम, सर। उधर ट्रेन भी जाती है, रोडवेज की बस भी जाती है। चाहें तो आने जाने की टैक्सी कर सकते हैं।”
“पुलिस व्हीकल का इन्तजाम नहीं हो सकता?”
“थाने से तो ये काम मुश्‍किल है, सर।”
“लोकल रहनुमाई के लिए मुझे एकाध आदमी भी चाहिये होगा।”
“सर, मैंने कल ही बोला था कि इस बाबत आपको हैडक्वार्टर में बात करनी चाहिये।”
“मर्जी तो यही थी लेकिन वक्त रहते मौका नहीं लगा।”
“अब चले जाइये।”
“अब वक्त जाया होगा। एक लीड हाथ आयी है तो उस को चेज करने के लिए मुझे फौरन खैरगढ़ जाना चाहिये। नहीं?”
“बात तो आपकी ठीक है! तो आप ऐसा कीजियेगा न, खैरगढ़ पहुँचकर आप सीधे वहाँ की चौकी का रुख कीजियेगा। आप जो हैल्प चाहेंगे, आपको चौकी से हासिल हो जायेगी।”
“ठीक है।”
“आपने आज का अखबार देखा?”
“नहीं। मौका न लगा। क्यों पूछ रहे हो? कोई खास खबर है उसमें?”
“इश्‍तिहार है?”
“कैसा इश्‍तिहार?”
“आपके केस से ताल्लुक रखता इश्‍तिहार। जो कि सोने के एनआरआई मालिकान ने छपवाया है। उन्होंने सोने की रिकवरी पर बरामद सोने के बीस फीसदी के या बीस फीसदी सोने के बराबर की रकम के ईनाम की किसी भी उस शख्स के लिए घोषणा की है जो माल पकड़वा सके या माल की बरामदी में सहायक सिद्ध हो सकने वाली कोई ठोस टिप दे सके।”
“बीस फीसदी का ईनाम! सोना पचास करोड़ की फेस वैल्यू का बताया जाता है। यानी कि दस करोड़ का ईनाम! ये तो बहुत बड़ा ईनाम हुआ?”
“माल बरामद हो जाये तो मालिकान को क्या फर्क पड़ता है! सौ फीसदी के नुकसान से बीस फीसदी का नुकसान तो हर हाल में बेहतर है!”
“ठीक कह रहे हो।”
“सर, ये ईनाम आपको भी मिल सकता है।”
“क्या बोला?”
“आप इस केस पर काम कर रहे हैं। दो गिरफ्तारियों को अंजाम दे चुके हैं, आगे एक बड़े क्लू को चेज करने खैरगढ़ जा रहे हैं, इतनी मेहनत आप कर रहे हैं, मुझे तो आपकी कामयाबी की पूरी-पूरी सम्भावना दिखाई देती है। कामयाब हो गये तो ईनाम आपको क्यों नहीं मिलेगा?”
“मैं पुलिस का मुलाजिम हूँ, ऐसा कोई ईनाम मिलेगा तो महकमे को मिलेगा।”
“ओह!”
“मुझे शाबाशी मिलेगी—या बड़ी हद कोई मैडल मिल जायेगा।”
“अच्छा!”
“तुम तो खुद पुलिस वाले हो, तुम्हें ये बात मालूम होनी चाहिये।”
“मालूम ही थी लेकिन...”
“क्या लेकिन? सपने देख रहे थे?”
एसएचओ खेदपूर्ण ढंग से हँसा।
“अब तुम दो कामों में मेरी मदद करो।”
“फरमाइये।”
“कल के बन्दियों को, उस चाचा भतीजी को, मुझे सुनामपुर ले जाना होगा ताकि वहाँ उपलब्ध गवाहों के सामने उन्हें शिनाख्त के लिए पेश किया जा सके। बैंक के कर्मचारियों, बन्धकों और तमाशबीनों और वहाँ के पुलिसकर्मियों की सूरत में गवाह दर्जनों की तादाद में हैं जिन्हें राजनगर नहीं लाया जा सकता इसलिये इन दो को सुनामपुर ले जाना होगा। इस काम के लिए पुलिस की बन्द गाड़ी और कुछ एस्कार्ट दरकार होंगे, उनका कल सुबह तक इन्तजाम करवा के दो।”
“ठीक है, सर। मैं इस बाबत डीसीपी साहब से बात करूँगा। दूसरा काम बोलिये।”
“खैरगढ़ जाने के लिए एक टैक्सी मँगा के दो।”
“ये क्या मुश्‍किल काम है! टैक्सी फोन पर ही आ जायेगी। अभी लीजिये।”
दोपहर के करीब सिमरन सी गार्डन पहुँची।
धीरज परमार उसकी अपेक्षानुसार अपने आफिस में मौजूद था।
“वो आया नहीं।”—सिमरन उसके सामने बैठती बोली।
“कौन? मोहन बाबू?”
“हाँ। इतवार सुबह आने को बोल के गया था, अब तो सोमवार की भी दोपहर हो गयी है।”
“तो क्या हुआ? तुझे विरह सता रहा है?”
“दिमाग खराब है तुम्हारा। अरे, मुझे अन्देशा है कहीं वो भी तो गिरफ्तार नहीं हो गया!”
“ओह!”
“जैसे चौधरी और उसकी भतीजी गिरफ्तार हुए, वैसे उसका भी—लूट के तीसरे साथी का भी—गिरफ्तार हो जाना क्या बड़ी बात है?”
“कोई बड़ी बात नहीं। पुलिस को एक का क्लू हाथ लग सकता है तो दूसरे का भी लग सकता है।”
“और मैं क्या कह रही हूँ?”
“फोन लगाया?”
“कई बार। घण्टी बजती है, जवाब नहीं मिलता।”
“जा के पता कर।”
“अच्छा। शहजादा सलीम है वो?”
“तू ही कौन-सी अनारकली है?”
“अरे, अगर कोई पुलिस का चक्कर निकला तो वो लोग मुझे वहीं बिठा लेंगे।”
“हूँ। मेरी बहन खैरगढ़ रहती है। मैं उसको फोन लगाता हूँ।”
उसने फोन करीब घसीट कर एक नम्बर डायल किया।
जवाब न मिला तो लाइन काट कर फिर नम्बर डायल किया।
काफी देर वो यूँ ही फोन से उलझा रहा।
आखिरकार उसने रिसीवर क्रेडल पर रखा और फोन परे सरकाया।
“बहन, बहनोई दोनों नौकरी करते हैं।”—वो बोला—“दिन में घर नहीं होते। उनका लड़का घर होता है जो पता नहीं इस वक्त कहीं चला गया है या फोन खराब है।”
सिमरन खामोश रही।
“तू फिक्र न कर। कभी तो फोन मिलेगा! थोड़े अरसे बाद मैं फोन फिर ट्राई करूँगा और मोहन बाबू की खबर निकलवाऊँगा। ओके?”
सिमरन ने सहमति में सिर हिलाया।
शोहाब और इरफान विमल के पास पहुँचे।
“तेरी एक चिट्ठी आयी है।”—इरफान विमल से बोला।
विमल के जेहन में तत्काल नीलम का अक्स उबरा।
“मेरी?”—वो बोला।
“हाँ। लेकिन हैरानी है कि वो चिट्ठी यहाँ के या चैम्बूर के पते पर न आयी।”
“तो कहाँ आयी?”
“कोलीवाड़े। सलाउद्दीन के होटल मराठा के पते पर। अभी उसका बड़ा लड़का जावेद देकर गया।”
“कमाल है! मराठा के पते पर मुझे कौन चिट्ठी लिखेगा?”
“सोच।”
“है क्या चिट्ठी में?”
“मुझे क्या मालूम?”
“तूने खोली नहीं?”
“अरे। तेरी चिट्ठी मैं क्यों खोलूँगा भला?”
“कहाँ हैं? दिखा।”
इरफान ने उसे छ: गुणा नौ इंच का बन्द लिफाफा सौंपा।
विमल ने चिट्ठी का मुआयना किया।
उस पर भेजने वाले का और पाने वाले का पता टाइपशुदा था।
पाने वाले का नाम अरविंद कौल था जिसके नीचे ब्रैकट में केयर आफ मुहम्मद सलाउद्दीन दर्ज था और उसके नीचे मराठा का पोस्टल एड्रेस दर्ज था।
भेजने वाले की जगह गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन का कस्तूरबा गाँधी मार्ग, नई दिल्ली का पता दर्ज था।
“ओह!”—विमल बोला—“ये तो गैलेक्सी से चिट्ठी है जहाँ कि मैं जब दिल्ली रहता था तो नौकरी करता था।”
“सलाउद्दीन के पते पर क्यों आयी?”
“क्योंकि गैलेक्सी के मालिक और अपने एम्प्लायर शिव शंकर शुक्ला को मैंने वो ही पता दर्ज कराया था। तब मेरा कहीं कोई ठिकाना कहाँ था? तब वो ही पता भरोसे का था।”
“गैलेक्सी की नौकरी से”—शोहाब बोला—“आपका नाता टूटे तो एक अरसा हो गया है...”
“ये बात या मैं जानता हूँ”—विमल बोला—“या गैलेक्सी के मालिकान जानते हैं। दुनिया को दिखाने के लिए मैं आज भी गैलेक्सी का मुलाजिम हूँ। कोई वहाँ अरविंद कौल की बाबत सवाल करेगा तो जवाब में मेरी बतौर एकाउण्टेंट वहाँ की मुलाजमत की तसदीक होगी और बोला जायेगा कि मैं कम्पनी के काम से मुम्बई गया हुआ था।”
“बढ़‍िया।”
“फिर भी”—इरफान बोला—“वहाँ से चिट्ठी क्यों आयी?”
“चिट्ठी खोलते हैं। अभी मालूम पड़ता है कि क्यों आयी!”
विमल ने वो लिफाफा खोला तो भीतर से एक और बन्द लिफाफा निकला और साथ में गैलेक्सी के लैटर हैड पर हाथ से लिखी एक चिट्ठी निकली।
बन्द लिफाफे पर अरविंद कौल का नाम था और गैलेक्सी के आफिस का पता था। भेजने वाले की जगह दर्ज था: मोहन बाबू, पन्द्रह सरकुलर रोड, खैरगढ़।
मोहन बाबू!
कौन था मोहन बाबू?
पहले उसने लैटर हैड पर लिखी चिट्ठी की ओर तवज्जो दी।
लिखा था :
डियर मिस्टर कौल,
शुक्ला साहब का कत्ल हो जाने की वजह से एक अरसा ऑफिस न खुल सका इतलिये पता नहीं तुम्हारे नाम की संलग्न चिट्ठी कब ऑफिस में पहुँची। आखिरकार उनकी क्रिया के बाद जब ऑफिस खुला था तो इतनी डाक जमा हो गयी हुई थी कि तुम्हारी संलग्न चिट्ठी उसी में दफन होकर रह गयी थी। आज मैनेजर चान्दवानी के हाथ ये चिट्ठी लगी जोकि तुम्हारा नाम पढ़ के उसने मुझे सौंपी। शुक्ला साहब की पसर्नल डायरी में मुझे तुम्हारा ‘मराठा’ का पता दर्ज मिला था जिस पर कूरियर से मैं ये चिट्ठी भेज रही हूँ क्योंकि तुम्हारा और कोई पता मुझे मालूम नहीं और तुम्हारी आमद के इन्तजार में चिट्ठी को दिल्ली रखे रहना मुझे मुनासिब नहीं लगा। उम्मीद है कि चिट्ठी तुम तक पहुँच जायेगी। मेरी उम्मीद पूरी हो तो पावती की खबर करना।
मिसेज शोभा शुक्ला
फिर विमल ने बन्द लिफाफा खोला।
भीतर से एक विस्तृत पत्र बरामद हुआ जो कि हाथ से लिखे तीन फुलस्केप पृष्ठों पर दर्ज था और भेजने वाले का नाम—विमल सख्त हैरान हुआ—जगमोहन था।
जगमोहन!
जगमोहन ने उसे चिट्ठी लिखी थी।
गैलेक्सी, दिल्ली के पते पर।
उसे कैसे मालूम था कि वो गैलेक्सी की मुलाजमत में था और वहाँ उसका नाम अरविंद कौल था।
उसने लिफाफे पर अरविंद कौल लिखा था लेकिन चिट्ठी की शुरुआत ‘मेरे अजीज दोस्त विमल’ से की थी।
“क्या हुआ?”—इरफान बोला।
“ढाई साल से बिछुड़े साथी ने”—विमल बोला—“जिंदगी में एक मर्तबा मुझे चिट्ठी लिखी जोकि कूरियर से भेजी होने की वजह से बड़ी हद एक या दो दिन में मिल जानी चाहिये थी लेकिन आज एक महीने बाद मिली।”
“क्यों भला?”
“क्योंकि तकदीर को ऐसा मंजूर था। चिट्ठी दिल्ली पहुँची जहाँ कि मैं अब होता नहीं, एक अरसा वहीं पड़ी रही तो सलाउद्दीन के पास पहुँची। वहाँ से भी यहाँ पता नहीं वक्त पर पहुँची या नहीं!”
“नहीं पहुँची। पाँच दिन ‘मराठा’ में पड़ी रही। चिट्ठी पहुँचाने आया जावेद खुद ऐसा बोला। सलाउद्दीन सूरत गया हुआ था और चारों लड़कों में से किसी को मालूम नहीं था कि तू मुम्बई में कहाँ पाया जाता था! पाया जाता भी था या नहीं! आज सलाउद्दीन लौटा तो उसने फौरन ये चिट्ठी तुझे यहाँ भिजवाई।”
“ओह!”
“अब देख तो सही चिट्ठी में क्या लिखा है! किसी ने इतनी लम्बी चिट्ठी लिखी तो कोई खास ही बात लिखी होगी।”
“हाँ, वो तो है।”
विमल ने चिट्ठी को पढ़ना शुरू किया।
बापू बजरंगी ने सगर्व अपने चार नये प्यादों से हासिल रिपोर्ट इनायत दफेदार को पेश की।
“बढ़‍िया।”—दफेदार बोला—“बहुत बढ़‍िया। इतनी जल्दी इतना उम्दा नतीजा निकलने की उम्मीद मुझे नहीं थी। अब तू अपने उन नवें भीड़ूओं तक ये हिदायत पहुँचा कि वो यूँ हैदर का पीछा छोड़े कि हैदर को खुशफहमी हो कि उसने अपनी चिल्लाकी से, अपनी श्‍यानपन्ती से उन से पीछा छुड़ाया।”
“ऐसा, बाप?”
“हाँ।”
“गुस्ताखी माफ, बाप, सोच के बोल रयेला है न?”
“बरोबर। पण तेरे भेजे में जाला। अरे, घौंचू जब उसको मालूम पड़ेगा कि उसके पीछे कोई नहीं, तो वो गोली का माफिक किधर का रुख करेगा?”
“बोले तो, काठमाण्डू का।”
“बोले तो नक्को। वो उधरीच पहुँचेगा। अभी क्योंकि हमें मालूम वो उधरीच पहुँचेगा इस वास्ते हमको उसके पीछू नहीं आगे लगने का है।”
“मैं समझ गया, बाप।”
“क्या समझ गया?”
“उसकी आमद से पहले उधर उसके इस्तकबाल का इन्तजाम कर के रखना है।”
“ये बहुत मुश्‍किल काम तेरे वास्ते?”
“नक्को, बाप। वो या पिलेन से जायेगा या रोड से जायेगा, दो ही रास्तों पर निगाह रखना होगा न?”
“फिर भी निगाह में न आया तो?”
“तो वो भैरव तुलाधर करके भीड़ू है न जो बोलेगा हाजी अशरफ किधर पाया जाता है और हाजी अशरफ बोलेगा अपना डेविड परदेसी उर्फ सफदर अली खां किधर पाया जाता है!”
“बरोबर। अगर तू उन दोनों बिरादरान को एक दूसरे की मौजूदगी में इकट्ठा खल्लास करने का इन्तजाम करे तो मेरे को खुसी। तो तेरे को बड़ा ईनाम।”
“बाप, मैं काबू में करेगा न बड़ा ईनाम!”
एसपी यदुनाथ सिंह खैरगढ़ पहुँचा।
स्थानीय पुलिस चौकी का रुख करने की जगह उसने पहले खुद ही सरकुलर रोड जाने का फैसला किया।
“इलाके से वाकिफ हो?”—उसने टैक्सी ड्राइवर के पूछा।
“वाकिफ हूँ।”—ड्राइवर बोला—“पहले इधर ही रहता था।”
“गुड। यहाँ से सरकुलर रोड करीब है या पुलिस चौकी?”
“सरकुलर रोड।”
जो कि और भी अच्छा था। फैसला खुद ही हो गया था। पहली जगह पहले।
“सरकुलर रोड चलो।”
टैक्सी सरकुलर रोड पहुँची तो उसे पन्द्रह नम्बर कोठी तलाश करने में कोई दिक्कत न हुई।
लेकिन कोठी उजाड़ पड़ी थी।
कोई भी तो बात ऐसी नहीं थी जो कि उसके आबाद होने की चुगली करती।
फिर भी उसने काल बैल बजाई।
जैसा कि अपेक्षित था, कोई जवाब न मिला।
तभी सड़क पर दायीं ओर वहाँ से तीन कोठी आगे उसे एक कार रुकती दिखाई दी। तत्काल वो फ्रंट यार्ड से बाहर निकला।
बाईं ओर की बाल्कनी पर एक किशोर खड़ा था जो कि उसे ही देख रहा था, पहले उसने उसी से बात करने का खयाल किया लेकिन फिर उसने उस उम्रदराज शख्स को इस बाबत तरजीह दी जो कि रुकती कार की ड्राइविंग सीट पर बैठा था।
वो कार की तरफ बढ़ा।
एक पेड़ की ओट से सिपाही किशोर लाल बाहर निकला।
वो टहलता हुआ टैक्सी के करीब पहुँचा और उसका अगला दरवाजा खोल कर ड्राइवर के पहलू में बैठ गया।
“क्या है?”—ड्राइवर अप्रसन्न भाव से बोला।
“किधर से आया है?”—किशोर लाल ने पूछा—“पैसेंजर कौन है?”
“तुमसे मतलब?”
“है न!”
“क्या?”
“अबे, मैं पुलिस वाला हूँ।”
ड्राइवर की सूरत ने न लगा कि उसे यकीन आया था।
“ये मेरा आई-कार्ड देख।”—किशोर लाल बोला।
तब ड्राइवर का मिजाज बदला।
“राजनगर से आया।”—वो अदब से बोला—“पैसेंजर पुलिस का बड़ा साहब है।”
“पुलिस का बड़ा साहब बोला?”
“हाँ।”
“किधर से बैठाया?”
“थाने से।”
“अबे, कौन से थाने से? राजनगर में तो कई थाने हैं!”
“मैजेस्टिक सर्कल थाने से। थाने का बड़ा दारोगा...”
“एसएचओ?”
“वही। खुद इन साहब को टैक्सी में बैठाने आया। इन को एसपी साहब बोलता था।”
“एसपी? सुपरिंटेंडेंट आफ पुलिस! ये आदमी...साहब एसपी है?”
“हाँ। मैंने एसएचओ को साफ, कई बार ऐसा बोलते सुना।”
“नाम क्या है?”
“नाम तो मालूम नहीं!”
“लेकिन ये पक्का है कि पुलिस का बड़ा साहब है? एसपी है?”
“हाँ।”
किशोर लाल टैक्सी से उतर गया।
एक करीबी पीसीओ से उसने चौकी फोन लगाया और डोभाल से बात की।
“शहर से एक एसपी इधर पहुँचा है।”—वो बोला।
“हमारे पंछी की फिराक में?”—डोभाल ने पूछा।
“पन्द्रह नम्बर कोठी की फिराक में बराबर। भीतर जा के घण्टी बजाता था। अभी पड़ोस में किसी से बात करता है। और किसकी फिराक में होगा?”
“अकेला है?”
“हाँ।”
“कोई बात नहीं। इत्तफाक से सीधे उधर पहुँच गया। मोहन बाबू की फिराक में है तो अन्त पन्त चौकी में ही आयेगा। फिर मालूम पड़ जायेगा कौन है!”
“तो मैं कट करूँ?”
“हाँ।”
कार को लॉक करके जब तक कारवाला बाहर निकला, एसपी यदुनाथ सिंह उस के करीब पहुँच गया।
“आप यहीं रहते हैं?”—वो बोला।
“हाँ।”—कारवाला सशंक भाव से उसे देखता बोला—“क्यों?”
“जो साहब पन्द्रह नम्बर कोठी में रहते हैं, उन को जानते हैं?”
“जानता नहीं हूँ लेकिन पड़ोस की वजह से सूरत से पहचानता हूँ...मेरा मतलब है पहचानता था।”
“पहचानते थे? क्या मतलब?”
“आप कौन हैं और क्यों इतने सवाल पूछ रहे हैं?”
“मैं पुलिस सुपरिंटेंडेंट हूँ।”—एसपी सख्ती से बोला—“ये पुलिस इंक्वायरी है। जवाब दीजिये।”
“पुलिस इंक्वायरी है? ऐसे कामों के लिए तो आजकल हवलदार अकेला नहीं आता, आप कैसे सुपरिंटेंडेंट हैं जो...”
“ये मेरा आई-कार्ड देखिये।”
उसने देखा, गौर से देखा, फिर नर्म पड़ा।
“ओह!”—वो बोला—“तो आप इधर से नहीं हैं, सुनामपुर से हैं, इसलिये अकेले हैं?”
“हाँ। आपको मेरे अकेले होने से एतराज है तो मैं चौकी फोन कर के...”
“नहीं, नहीं। जरूरत नहीं। वो क्या है कि पन्द्रह नम्बर वाले सज्जन की कल मौत हो गयी है।”
“मौत हो गयी है? वो कैसे?”
“सुना है हार्ट फेल हो गया।”
“ओह! नाम क्या था उनका?”
“मोहन बाबू।”
“पासवान?”
“हाँ। मोहन बाबू पासवान।”
“कब से यहाँ रह रहे थे?”
“साल होने को आ रहा है।”
“कोठी में सन्नाटा क्यों है?”
“अकेले तो रहते थे! खुद गुजर गये तो पीछे सन्नाटा ही तो होगा?”
“ओह!”
“ऐसी भी क्या जिन्दगी कि मरते वक्त मुँह में दो बूँद पानी टपकाने वाला कोई न हो, लाश सँभालने वाला कोई न हो!”
“लाश सँभालने वाला भी कोई नहीं?”
“कहाँ से आता! बिल्कुल अकेले थे।”
“तो फिर किसने सँभाली?”
“पुलिस ने।”
“ओह! पुलिस ने।”
“लोकल चौकी का दारोगा कभी कभार इधर आता था, शायद वाकिफकार था, जो किया, उसी ने किया।”
“करते क्या थे ये मोहन बाबू?”
“करते तो कुछ नहीं थे! रिटायरों जैसे लाइफ थी।”
“बूढ़े, रिटायर्ड शख्स थे?”
“अरे, नहीं। नौजवान थे। तीस बत्तीस उम्र होगी। बड़ी हद पैंतीस।”
“माली हालत कैसी थी?”
“क्या पता कैसी थी! अलबत्ता रहन सहन से कोई फूँ फां तो नहीं दिखाई देती थी! ऐवरेज ही होगी। जैसी कि मिडल क्लास के लोगों की होती है।”
“ऐश पर जोर नहीं था?”
“अरे, नहीं। जरा भी नहीं। रोकड़ा चमकाता आदमी कहीं छुपता है! मोहन बाबू ऐसे नहीं थे। सिम्पल आडम्बररहित रहन-सहन था उनका। या कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता था।”
एसपी ने जेब से अखबार निकाला और उसे तसवीरों वाले स्थान से खोला।
“जरा ये तसवीरें देखिये।”—वो बोला—“इन में से आप किसी को पहचानते हैं?”
“ये तो किसी डकैती के मुजरिमों की तसवीरें हैं, मैं कैसे पहचानूँगा?”
“लिहाजा ये तसवीरें आप पहले देख चुके हैं।”
“हाँ, कल के अखबार में देखीं न! ये भी कल का ही अखबार होगा।”
“है।”
“लोकल अखबार में तो ये तसवीरें शुक्र को छपेंगी क्योंकि वो वीकली है लेकिन हमारे घर में तो”—उसके स्वर में गर्व का पुट आ गया—“राजनगर का बड़ा डेली पेपर आता है।”
“तो इन में से कोई तसवीर आप को पहचानी नहीं जान पड़ती?”
“ये जो चौथी, क्लीनशेव्ड, तसवीर है, ये कुछ कुछ मोहन बाबू से मिलती है।”
“कुछ कुछ?”
“कुछ कुछ ही लेकिन हो नहीं सकती ये मोहन बाबू की।”
“क्यों?”
“हमारे पड़ोस में रहता आदमी काले कोस बैंक में डाका डालने जायेगा? ये कोई मानने की बात है?”
“आप ये कहना चाहते हैं कि मोहन बाबू यहाँ से कभी कहीं नहीं जाते थे?”
“जाते थे। एकाध दिन के लिए कभी कहीं बाहर जाते थे। लेकिन क्या कोई डाका डालने जाते थे!”
“ठीक। आपका नाम क्या है?”
“नौलखा।”
“सहयोग का शुक्रिया, नौलखा साहब।”
“वैलकम जी, वैलकम।”
वो चौकी पहुँचा।
वहाँ उसने अपना परिचय दिया तो सब ने उसे सैल्यूट मारा। एक सिपाही ने उसे चौकी इंचार्ज भगवती सिंह डोभाल तक पहुँचाया। एसपी यदुनाथ सिंह ने उसे अपने आगमन का मन्तव्य बताया।
“मोहन बाबू?”—डोभाल बोला—“पन्द्रह सरकुलर रोड वाला? वो तो मर गया कल सुबह दिल का दौरा पड़ने से। एकाएक ही चल चल हो गयी, जबकि अच्छा भला तन्दुरुस्त आदमी था।”
“तो चल चल क्यों हो गयी?”
“बोला न, दिल का दौरा पड़ा।”
“मेरा मतलब है उसकी हार्ट की कोई केस हिस्ट्री थी?”
“वो तो थी। जब से खैरगढ़ में था, यहाँ के डाक्टर आलोक पुरोहित के ट्रीटमेंट में था।”
“जब यहाँ नहीं रहता था तो किसी और वहाँ के डाक्टर के ट्रीटमेंट में होगा जहाँ कि पहले रहता था?”
“हो सकता है।”
“फिर ये तो नहीं कहा जा सकता था कि जो हुआ, एकाएक हुआ।”
“एकाएक से, एसपी साहब, मेरा कुछ और मतलब था।”
“क्या?”
“किसी को हार्ट अटैक होता है तो वो मर ही थोड़े ही जाता है? बीमार पड़ता है, ठीक हो जाता है। मैंने सुना है इंसान तीन तक हार्ट अटैक झेल सकता है। अब जैसे वो शख्स मरा, उस से तो ये ही कहा जायेगा कि अच्छा भला था, एकाएक मर गया।”
“फिर तो हार्ट अटैक नहीं हुआ होगा, हार्ट फेल हुआ होगा।”
“अच्छा! दोनों में फर्क होता है?”
“होता है। यही फर्क होता है। हार्ट फेल हो जाये तो दूसरी साँस नहीं आती, हार्ट अटैक में ऐसा नहीं होता।”
“ओह! अब आम जुबान में तो उसका डाक्टर यही बोला न कि दिल का दौरा पड़ने से जान गयी!”
“डाक्टर बोला ऐसा?”
“हाँ।”
“डैथ सर्टिफिकेट भी जारी किया?”
“किया न! मेरे पास है। दिखाऊँ?”
“हाँ। प्लीज।”
डोभाल ने दराज से निकाल कर सर्टिफिकेट एसपी के सामने रखा।
एसपी ने गम्भीरता से उसका मुआयना किया।
“हूँ।”—बोला—“एमबीबीएस डॉक्टर है। निदान गलत तो नहीं कर सकता!...काज आफ डैथ में मायोकार्डियल इनफार्क्शन लिखा है जिस का मतलब हार्ट अटैक नहीं, हार्टफेलियर होता है।”
“अच्छा! ऐसा होता है?”
“हाँ।”
“बड़ा मुश्‍किल लफ्ज था वो। मेरे से तो पढ़ा भी नहीं गया था।”
“जब वो स्वभाविक मौत मरा था तो पुलिस में उसकी क्या दिलचस्पी हुई?”
“लावारिस मरा था। इसलिये इलाके के लोगों के कहने पर लाश जा कर पुलिस को सँभालनी पड़ी।”
“कोई वारिस, कोई बन्धु बाँधव तलाश करने की कोशिश तो आपने की होगी?”
“कोशिश में यही किया था कि उसके घर में, जेब में कोई पुरानी चिट्ठी पत्री मिल जाती, कहीं कोई पता दर्ज मिल जाता, कहीं कोई फोन नम्बर दर्ज मिल जाता।”
“ऐसा कुछ न मिला तो क्या किया?”
“अखबार में इश्‍तिहार दिया।”
“इश्‍तिहार के जवाब में कोई सामने आया?”
“अभी तक तो नहीं आया! कल शाम तक इन्तजार करने का इरादा है, तब तक लाश का कोई क्लेमेंट सामने नहीं आया तो परसों सुबह लावारिस करार दे कर उसका अन्तिम संस्कार कर दिया जायेगा।”
“इस वक्त लाश कहाँ है?”
“यहाँ के विद्युत् शव दाह गृह में।”
“पहले ही पहुँचा दी?”
“और कहाँ रखते? यहाँ कोई मोर्ग तो है नहीं।”
“ये भी ठीक है। मैं लाश पर एक नजर डाल सकता हूँ?”
“क्यों नहीं? मैं खुद आप को शव दाह गृह ले के चलता हूँ। डाक्टर पुरोहित से भी मिलना चाहें तो...”
“नहीं, उसकी जरूरत नहीं। उन का जारी किया ये डैथ सर्टिफिकेट देख लेना भी काफी है।”
“अब, जनाब, ये तो बताइये कि आपकी मरने वाले में क्या दिलचस्पी है?”
“जो आदमी मैं उसे समझ रहा हूँ अगर वो वही है तो बहुत दिलचस्पी है वर्ना कोई दिलचस्पी नहीं। आइये।”
दोनों शव दाह गृह पहुँचे।
जहाँ आइस बाक्स में सफेद चादर से लिपटी लाश पड़ी थी। डोभाल ने खुद चादर पर के कुछ टांके उधेड़ कर लाश का मुँह उघाड़ा।
एसपी ने गौर से सूरत का मुआयना किया।
वो फैसला न कर सका कि वो उसी शख्स की लाश देख रहा था, क्रिसमस ईव को वो जिसके रूबरू हो चुका था और जिसकी दो कम्पोजिट पिक्चर अखबार में छपी थीं।
मुर्दे का चेहरा असामान्य भी तो लगने लगता था।
“इसकी जिन्दगी में आप इस शख्स को जानते थे?”
“वाकफियत तो नहीं थी अलबत्ता लोकल बाशिन्दे के तौर पर सूरत से पहचानता था।”
“फिर भी आपका इसके घर में आना जाना था?”
“घर में आना जाना था? ऐसा कौन बोला?”
“नौलखा नाम का उसका एक पड़ोसी बोला।”
“आप सरकुलर रोड हो भी आये हुए हैं?”
“हाँ।”
“मैं एकाध बार उसके घर चौकी के ही काम से गया था।”
“कैसा काम?”
“हैड आफिस से हुक्म आया था कि उधर एक एसपीओ अप्वायंट किया जाये। ये नौजवान था, अकेला रहता था, खाली टाइम भी इसके पास बहुत होता था इसलिये एसपीओ बनाये जाने के लिए ये मुझे फिट केस लगा था। इसी सिलसिले में एक दो बार मैं इसके यहाँ गया था लेकिन इसने पुलिस की पेशकश में कोई दिलचस्पी नहीं ली थी। एसपीओ बनने से साफ इंकार कर दिया था।”
“बाज लोग बाई हैबिट पब्लिक स्पिरिटिड नहीं होते।”
“ऐसा ही था ये।”
“मोहन बाबू पासवान इसका असली नाम था?”
“असली ही होगा।”
“होगा?”
“सर, नकली होने की कोई वजह सामने नहीं। चैक करने की भी कोई वजह नहीं।”
“मूलरूप में कहाँ का रहने वाला था?”
“मालूम नहीं।”
“इसकी मौत में कोई फाउल प्ले हो सकता है?”
“कैसा फाउल प्ले?”
“कैसा भी?”
“कैसे हो सकता है? क्या हार्ट अटैक—या हार्ट फेल, जो कुछ भी हुआ—भी किसी को जबरन कराया जा सकता है?”
“नहीं!”
“तो फाउल प्ले का क्या मतलब?”
“कोई मतलब नहीं। राजनगर में लिंक रोड के इलाके में एलीशिया टावर कर के एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग है। उसकी चौथी मंजिल के एक फ्लैट का मालिक कोई मोहन बाबू पासवान बताया जाता है। क्या वो मोहन बाबू पासवान ये ही शख्स हो सकता है?”
“कहना मुहाल है, सर। इतना कुछ तो हम इसके बारे में जानते नहीं! लेकिन अगर इसकी राजनगर में भी कोई प्रापर्टी है तो ये कौन-सी बड़ी बात है?”
एसपी ने उत्तर न दिया।
“और, सर, आपने ये तो अभी भी नहीं बताया कि इस शख्स में आप की क्या दिलचस्पी है।”
“आपके घर में या चौकी में कोई नेशनल डेली आता है?”
“नहीं।”
“तो फिर ये अखबार देखिये।”—एसपी ने उसे अखबार सौंपा—“इसमें गुरुवार चौबीस तारीख को सुनामपुर के गार्जियन बैंक में पड़ी एक डकैती की खबर है, साथ में गवाहों के बयानों के आधार पर बनायी गयीं कम्पोजिट पिक्चर्स छपी हैं। ये तीसरी और चौथी तसवीर एक ही शख्स की हैं। डकैती के वक्त इस शख्स के चेहरे पर फ्रेंच कट दाढ़ी मूँछ थीं जो कि हो सकता है डकैती के तुरत बाद इसने मुँडवा दी हों, इसीलिये कम्प्यूटर से दाढ़ी मूँछ हटा कर इसकी ये दूसरी तसवीर बनवाई गयी है। हमें शक है कि डकैती का चीफ आर्किटैक्ट ये शख्स आपका मोहन बाबू पासवान है जो इस वक्त यहाँ मरा पड़ा है।”
डोभाल दंग रह गया। उसकी निगाह में कम्पोजिट पिक्चर बनाने वाले आर्टिस्ट ने कमाल कर दिखाया था क्यों कि अखबार में छपी फ्रेंच कट दाढ़ी मूँछ वाली तसवीर तो बिल्कुल मोहन बाबू की जान पड़ती थी। अलबत्ता क्लीनशेव्ड शक्ल में वो बहुत ज्यादा मोहन बाबू नहीं लगता था क्योंकि ठोढ़ी की बनावट में फर्क आ गया था, ऊपरले होंठ और नाक के बीच के हिस्से के आकार में फर्क आ गया था।
मोहन बाबू के होंठों की दायीं कोर के करीब चोट का गहरा निशान था जो कि तसवीर में नहीं था।
“फाउल प्ले का जिक्र मैंने इसलिये किया था क्योंकि हो सकता था कि पचास करोड़ का मुकम्मल माल खुद हथियाने के लिए उन्होंने इसको रास्ते में हटा दिया हो।”
“पचास करोड़!”—डोभाल बोला, वो दो लफ्ज बड़ी मुश्‍किल से फँस फँस कर उसके मुँह से निकले—“इतना रुपया इन्होंने बैंक से उड़ाया?”
“रुपया नहीं। इतनी कीमत का सोना।”
“पचास करोड़ का सोना! वजन में कितना हुआ?”
“आठ सौ किलो।”
“डकैती के बाकी साथियों की क्या पोजीशन है?”
“दोनों गिरफ्तार हैं।”
“ये आदमी और ये लड़की?”
“हाँ। चाचा भतीजी हैं।”
“उनके पास से माल...सोना बरामद हुआ?”
“नहीं।”
“तो फिर आपका कथित सरगना ये...हमारे वाला मोहन बाबू पासवान नहीं हो सकता।”
“क्यों?”
“इसकी मौत के बाद इसके किसी वारिस के क्लू की तलाश में मैंने इसकी कोठी की मुकम्मल तलाशी ली थी, वहाँ से आठ सौ किलो सोना क्या, सोने का एक छदाम भी बरामद नहीं हुआ था।”
“आपका मतलब है नामों में समानता इत्तफाकन है?”
“मेरी अक्ल तो यही कहती है। मोहन बाबू पासवान कोई ऐसा विशेष नाम तो नहीं जो किन्हीं दो जनों का न हो सकता हो।”
“शक्ल भी तो मिलती है!”
“कहाँ मिलती है, जनाब! कुछ मिलता है तो बस ये मिलता है कि दोनों एक उम्र के हैं और क्लीनशेव्ड हैं।”
“हूँ।”
“ये आदमी जिन्दा पकड़ाई में आया होता तो कोई बात भी थी!”
“वो तो है! तब तो हम इसी से कुबुलवाते कि सुनामपुर वाली डकैती में ये शरीक था या नहीं!”
“आप सरगना के दो साथी गिरफ्तार बताते हैं, वो भी तो अपने जोड़ीदार की शिनाख्त कर सकते हैं!”
“कर सकते हैं, बराबर कर सकते हैं, लेकिन करेंगे नहीं। अभी तो वो डकैती में अपना ही रोल नहीं कनफैस कर रहे। दूसरे, अपने सरगना को मरा जान कर तो वो बिल्कुल ही चुप्पी ठान लेंगे, क्योंकि मुर्दा उन के खिलाफ नहीं बोल सकता।”
“ठीक।”
“लेकिन इसके जिन्दा निकलने की फिर भी कोई न कोई एडवांटेज हमें मिलती।”
“ऐसा?”
“हाँ। गिरफ्तार चाचा एक मोहन बाबू पासवान को अपना दोस्त बताता है, उसके एलीशिया टावर के 401 नम्बर फ्लैट में रहता होने की तसदीक करता है और कहता है कि उसने अपने लैंडलार्ड को देने के लिए मोहन बाबू से पाँच लाख रुपये उधार लिये। ये जिन्दा होता तो हम इससे सवाल करते कि क्या इस ने दिलीप चौधरी नाम के शख्स को पाँच लाख रुपये उधार दिये थे? ये हामी भरता तो इसे ये बताना पड़ता कि पाँच लाख रुपये इसके पास कहाँ से आये, इंकार करता तो दिलीप चौधरी झूठा पड़ता।”
“ये कहता ये चौधरी को जानता ही नहीं था तो?”
“क्या मतलब?”
“तो क्यों इसका ये मतलब न होता कि ये मोहन बाबू कोई और था और चौधरी का दोस्त मोहन बाबू, जो राजनगर में लिंक रोड पर एलीशिया टावर के एक फ्लैट में रहता है, कोई और था!”
“दारोगा जी, ये दो मोहन बाबू पासवान वाली बात खड़ी कर के तो आपने मेरे केस में बड़ा फच्चर डाल दिया! अब तो मुझे अन्देशा है कि कहीं तीन, चार या पाँच मोहन बाबू न निकल आयें!”
“आप मजाक कर रहे हैं।”
“एक मोहन बाबू पासवान यहाँ सरकुलर रोड का निवासी था जो हमारे सामने मरा पड़ा है। एक मोहन बाबू पासवान, बकौल सी गार्डन बार के मालिक धीरज परमार, उसके बार का रेगुलर है, एक मोहन बाबू पासवान राजनगर में रहता है जो दिलीप चौधरी का दोस्त है और उसे पाँच लाख रुपये उधार देने की हैसियत रखता है। एक मोहन बाबू पासवान की एलाशिया टावर के दूसरे आकूपेंट वहाँ रहते होने की तसदीक करते हैं। एक फ्रेंच कट दाढ़ी मूँछ वाला मोहन बाबू पासवान, मेरी तसदीक कहती है, चौबीस दिसम्बर को सुनामपुर में गार्जियन बैंक की डकैती में शामिल था। अब इतने सारे मोहन बाबुओं को हम सार्ट आउट करें तो कैसे करें?”
“जनाब, दो तो यकीनन हैं। एक जो ये मरा पड़ा है और दूसरा जो हो सकता है कि सुनामपुर की डकैती में शामिल हो।”
“देखेंगे। लाश की तसवीर उपलब्ध हो सकती है?”
“चौकी पर पहले से मौजूद है। यहाँ से चलिये, मैं देता हूँ आप को।”
“शुक्रिया। लेकिन पहले मेरे साथ सरकुलर रोड चलिये।”
“वहाँ किसलिये?”
“उस जगह पर एक निगाह मैं भी डालना चाहता हूँ।”
“जरूर डालिये। आइये, चलें।”
मेरे अजीज दोस्त विमल,
अभी कल की बात है जब कि नये चेहरे के तमन्नाई हम दोनों डास्टर अर्ल स्लेटर के क्लीनिक पर पहुँचे थे और नाउम्मीद, नामुराद हम दो नितान्त अजनबी सोनपुर के उजाड़ रेलवे स्टेशन पर मिले थे। अभी कल की बात है जब कि डाक्टर स्लेटर की फीस भरने लायक औकात बनाने के लिए हमने अमरीकी डिप्लोमैट फोस्टर के अपहरण का षड्यन्त्र रचा था और उस नामुमकिन काम को मुमकिन करके दिखाया था। अभी कल की बात है जब नूरपुर समुद्र तट पर पीटर ने तेरी छाती में बर्फ काटने वाला सूआ मूठ तक घोंप दिया था और ये करिश्‍मा था कि तभी तेरे प्राण नहीं निकल गये थे। और तब सुनील नाम का एक फरिश्‍ता जैसे खास तेरे लिये धरती पर उतरा था और तेरे साथ यूँ पेश आया था जैसे तू सलीब पर लटका जीसस था और तेरे न रहने ने कायनात खत्म हो सकती थी। अभी कल की बात है जब कि तारकपुर के बाहर डाक्टर चतुर्वेदी के तनहा मकान में तेरी जान बचाने के मिशन के तहत उस सुनील नाम के शख्स ने इतने बड़े-बड़े लोग इकट्ठे कर लिये थे जैसे कि तू सारी धरती का महाराजा था जिसको किसी सूरत में धरती का सिंहासन सूना छोड़कर चल नहीं देना चाहिये था। अभी कल की बात है जब कि सुनील, जो तेरा कोई नहीं था, उन बड़े लोगों को बता रहा था कि बकौल डाक्टर चतुर्वेदी तू चन्द घण्टों का मेहमान था और उन से अपील लगा रहा था कि वो तुझे—एक खूनी को, डकैत को, इश्‍तिहारी मुजरिम को—मरने न दें क्योंकि तेरी गुजश्‍ता जिन्दगी की ट्रेजेडी से मुतासिर वो तुझे एक स्लेट की तरह साफ ऐसी नयी जिन्दगी का हकदार मानता था जो वो बड़े लोग ही तुझे दे सकते थे, वो उन के सामने उस वादे की दुहाई दे रहा था जो उसने तेरे से—एक गैर से—किया था और इल्तजा कर रहा था कि वो लोग उसका वादा झूठा न होने दें। अभी कल की बात है कि उन नामुमकिन हालात में वहाँ पहुँचे बड़े लोगों में मौजूद चार डाक्टर साहबान ने बाजरिया हैलीकॉप्टर सर्जरी का तमाम साजोसामान—बमय अनैस्थैटिस्ट, टेक्नीशियन, नर्सें—वहाँ मँगवाया था और करिश्‍माई तरीके से नामुमकिन हालात में एक नामुमकिन काम को मुमकिन बना कर दिखाया था। मौत का निवाला बने तुझ को मौत के मुँह ने छीन कर दिखाया था। अभी कल की बात है जब नीलम तुझे चण्डीगढ़ अपने साथ ले गयी और मुझे मेरे सामने वैसा ही शून्य खड़ा दिखाई देने लगा जैसा कि पटना से चार खून कर के भागते वक्त दिखाई दिया था, जैसे पल भर को मिला तू मेरी हथेली पर बत्तीस हजार की खैरात रख कर, मुझे किसी नामालूम मंजिल की तरफ, किसी नामालूम अंजाम की तरफ धकेल कर मेरे से—बद््बख्त जगमाेहन से जिसे नया चेहरा तो मिल न सका, पुरानी जिन्दगी भी छिन गयी—हमेशा के लिए रुखसत पा कर चला गया। आने वाली जिन्दगी की कहानी एक ही कलम से लिखने का बड़ा बोल बोल कर अलग हुआ तो यूँ जैसे रेलवे स्टेशन पर मिले मुसाफिर अलग होते हैं। एक मुसाफिर जिन्दगी का नायाब तोहफा पा कर अपनी शरीकेहयात के साथ यूँ गया जैसे अपनी मंजिल पा गया, दूसरा बत्तीस हजार रुपये मुट्ठी में दबोचे सोचता रहा, सोचता रहा।
कहाँ जाऊँ?
मेरे दोस्त, ऊपर लिखी बातों में कोई बात कल की नहीं, हर बात ढाई साल पहले वाकया हुई थी लेकिन यूँ धुआँधार तरीके ने वाकया हुई थी कि सब सपना जान पड़ता है। तुझे नहीं पता जिन्दगी का तूफान जगमाहेन नाम के तिनके को उड़ा कर कहाँ ले गया लेकिन शफा पाने के बाद आइन्दा दिनों में तूने अन्डरवर्ल्ड में ऐसी शोहरत पायी कि गाहे बगाहे परी कथाओं की तरह सोहल के कारनामे मुझे सुनाई देते रहे कि कैसे साेहल ने बखिया से टक्कर ली, कैसे उसके वाहे गुरु ने सवा लाख से एक लड़ाया और उसने ‘कम्पनी’ का समूल नाश कर दिया, आर्गेनाइज्ड क्राइम के तमाम झण्डाबरदार मौत के घाट उतार दिये, दीनानाथ, दीनबन्धु, गरीबनवाज, सखी हातिम बन गया। फिर भी दिल्ली में वाइट कालर एम्प्लाई बन गया, वहाँ की गैलेक्सी नाम की कम्पनी में एकाउंटेंट की नौकरी करता नेक शहरी बन गया।
लेकिन मैं जानता था कि अब तू पहले वाला सोहल नहीं था, अब तू काल पर फतह पाया मायावी मानस था और गैलेक्सी की नौकरी भी तेरी माया थी।
तुझे यकीन हो न हो लेकिन मुझे तब भी तू मेरा रहनुमा लगता था जबकि तू भी मेरी तरह मजबूर था, दर दर की ठोकरें खाने वाला शख्स था और तब भी मेरा रहनुमा लगता जब कि तेरे अजीमोश्‍शान किरदार के मैं खाली चर्चे सुन सकता था। मुझे उम्मीद तो नहीं कि अपनी मसरूफ जिन्दगी में कभी तुझे मेरा खयाल आता होगा लेकिन आता होगा तो तू ये जरूर सोचता होगा कि तारकपुर में जुदा हुआ जगमोमाहन कहाँ गया होगा !
आज इस चिट्ठी के जरिये मैं तेरा सस्पेंस दूर करता हूँ।
मेरे दोस्त, भटके हुए मुसाफिर भी मंजिल पर पहुँचते हैं, ऊपर वाले की नजरेइनायत बनी रहे तो उजड़े चमन में भी बहार आती है, बेरंग पैरहन पर भी कभी रंग का छींटा पड़ता है। मेरे साथ ऐसा तब हुआ जब मैंने उसी राह पर चलते रहने का फैसला किया जिस पर पड़े मेरे पहले कदम का हासिल सिफर था। अपनी नयी जिन्दगी का नया कदम मैंने इकबालपुर में उठाया जहाँ मैंने तेरे सदके हासिल हुई रकम को एक गन पर सर्फ किया और अकेले ने हाइवे का एक पैट्रोल पम्प लूटने की जुर्रत की। उसके बाद वो सिलसिला ऐसा चला कि न सिर्फ आज तक जारी है, उसी दो जहाँ के मालिक ने, जिसने पहले इतनी सजायें दीं, अब हर बार कामयाबी का मुँह दिखाया। पिछले ढाई साल में अकेले या जोड़ीदारों के साथ मैंने बारह बार ऐसी जुर्रत की।
लेकिन खीर में मक्खी कभी तो पड़नी ही होती है, मेरी में भी आखिरकार पड़ी। मक्खी ऐसे जरिये से पड़ी जिसका मुझे इमकान तक नहीं था।
स्थानीय चौकी का दारोगा मेरे पीछे पड़ गया।
मेरे दोस्त, पहली दो वारदातों में इक्कीस लाख रुपये के करीब मेरे हाथ लगे थे जिनसे मैंने राजनगर में लिंक रोड पर एक फ्लैट खरीद लिया था और चिराग तले अँधेरा की कहावत चरितार्थ करता मैं वहाँ रहने लगा था। लेकिन जब और पैसा हाथ लगा तो मुझे अहसास होने लगा कि मैं गलत कर रहा था, जहाँ मैंने अपनी पहली, सबसे बड़ी वारदात को तेरे साथ अंजाम दिया था वहाँ स्थायी रूप से बने रहना अपनी हालत आ बैल मुझे मार जैसी करना था। अधिक साहस भी विडम्बना बन जाता है। लिहाजा पिछले साल मैंने खैरगढ़ में, जो कि तारकपुर से बारह किलोमीटर दूर है, एक छोटी-सी कोठी खरीदी और उसको अपना स्थायी निवास बना लिया। तेरे से अलग होने के बाद मैं किसी से—सिमरन से—दिल लगा बैठा था जिससे मिलने मैं गाहे बगाहे राजनगर जाता था। लिंक रोड वाला फ्लैट मैंने छोड़ा नहीं था और कभी सिमरन के साथ रहने का इत्तफाक किसी वजह से नहीं बन पाता था तो रातगुजारी मैं वहाँ करता था। तेरी जानकारी के लिए सिमरन पहले जस्सी नाम के एक गनमैन की मौल थी जिसकी मौत के बाद वह मेरी संगिनी बन गयी थी। मेरे सदके ही वह बन्दरगाह के इलाके में स्थित सी-गार्डन नाम के एक बार की फिफ्टी परसेंट की पार्टनर है।
बहरहाल मैं तुझे स्थानीय चौकी के दारोगा की बाबत बता रहा था जो पता नहीं कैसे मेरे पीछे लग गया था और पता नहीं क्यों मुझे लगता था कि वो मेरी हकीकत को भाँप गया था जबकि ऐसा वो जाहिर नहीं करता था लेकिन पीछा भी नहीं छोड़ता था, कभी भी आ धमकता था और मेरे बारे में, मेरी गुजश्‍ता जिन्दगी के बारे में सवाल करने लगता था। पहले मैंने उसे नजरअन्दाज किया था, खुद को समझाया था कि वो खामखाह मेरे पीछे पड़ा था, हकीकतन मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता था लेकिन अब मुझे ये बात अपनी खामखयाली लगने लगी है, वो मेरी हकीकत भाँप गया है, जो भाँप गया है उसकी तसदीक कर चुका है और अब आइन्दा दिनों में या तो वह मुझे ब्लैकमेल करेगा, या गिरफ्तार करा देगा। उसकी निगाहबीनी की वजह से हालात ऐसे बन गये हैं कि खुद तो मैं कहीं खिसक सकता हूँ लेकिन अपनी अब तक की कमाई का सारा माल साथ ले कर नहीं खिसक सकता। माल ऐसी जगह गर्क है जिसकी दारोगा को भनक नहीं लग सकती। मैंने माल ले जाने के लिए माल वहाँ से बरामद किया तो ये दारोगा का काम आसान करना होगा। जिस माल को वह तलाश नहीं कर सकता, वो उसे खुद परोसना होगा।
मेरे दोस्त, इस वक्त जो मेरी साँप छछून्दर जैसी हालत बनी है, उससे तू ही मुझे उबार सकता है। दारोगा को खत्म कर देना मेरे लिये मामूली काम है लेकिन ऐसा करने के बाद मेरा खैरगढ़ में बने रहना मुमकिन नहीं होगा क्योंकि मैं नहीं जानता कि उसने मेरे बारे में किस किस को चेताया हुआ है। एक शख्स—जो मैं जब भी खैरगढ़ से बाहर कदम रखता हूँ मेरे पीछे लगता है—पुलिस का सिपाही है। जैसा वो दारोगा है, उसकी रू में कोई बड़ी बात नहीं कि सारी चौकी मेरी बाबत खबरदार हो। बिल्कुल ही अति हो जाने पर तो मैं यही करूँगा, खैरगढ़ भी मजबूरन छोड़ूँगा लेकिन मैं चाहता हूँ कि मेरे हाथों दारोगा के कत्ल की नौबत न आये क्योंकि यहाँ मैं बहुत चैन से रह रहा हूँ। तेरे को यहाँ बुलाने के पीछे मेरा जो दूसरा मकसद है, वो ये है कि मैं तेरे सबाब के कामों में शिरकत करना चाहता हूँ, मैं अपने पास मौजूद तमाम पैसा आवाम की खैर में सर्फ करने के लिए तेरे को सौंपना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरी कंट्रीब्यूशन घड़े में बूँद भी नहीं होगी लेकिन साथ में ये भी जानता हूँ कि बूँद बूँद से ही घड़ा भरता है।
मेरे भाई, आज की तारीख में तू अपनी दुनिया का बादशाह है। राजनगर में कभी हम एक ही रेवड़ की भेड़ें थे लेकिन अब तू कहाँ और मैं कहाँ! तू आसमान पर पहुँच गया, मैं वहीं का वहीं रहा। इसलिये हो सकता है कि तुझे मेरी दरख्वास्त कबूल न हो, तुझे सुदामा के घर सत्तू कलेक्ट करने आना जहमत लगे इसलिये, इस अन्देशे के तहत, ये चिट्ठी मैं तुझे नहीं, तेरे ज़मीर को लिख रहा हूँ; बाजरिया चिट्ठी मैं तेरे ज़मीर ने मुखातिब हूँ जिसका कि तू कैदी है। मैं जानता हूँ जो जहमत तुझे—जिसे आज की तारीख में हर कोई पीर पैगम्बरों जैसी सलाहियात वाला आदमी बताता है—गवारा नहीं होगी, वो तेरे ज़मीर को जरूर गवारा होगी क्योंकि तुझे ये चिट्ठी लिखने वाला कभी तेरा हमकदम था, हमसफर था, हमप्याला था, हमनिवाला था। सफलतायें दोस्त बनाती हैं, विषमतायें दोस्तों को आजमाती हैं। आज मैं विषम स्थिति में हूँ इसलिये मैं—तेरा एक भूला-बिसरा, बिछुड़ा दोस्त—तेरे को आजमा रहा हूँ। अगर तू बिल्कुल ही नहीं बदल गया, अगर आज भी तू अपने ज़मीर का कैदी है जैसा कि तू पहले मेरे साथ के दौर में था, तो फौरन खैरगढ़ पहुँच और मुझे मेरी मौजूदा दुश्‍वारी से उबार, वो सामान अपने काबू में कर जो तेरे परोपकार के घड़े की बूँद है और मुझे ये फख्र महसूस करने का मौका दे कि हातिम, जो सब का सखी है, मेरा ज्यादा सखी है; सोहल जो सब का दोस्त है, मेरा ज्यादा दोस्त है। मैंने बड़े संकोच के साथ तुझे चिट्ठी लिखी है और तेरे गैलेक्सी के पते पर दिल्ली अरसाल की है क्योंकि उस पते के अलावा तेरा कोई और पता मुझे मालूम नहीं है। मेरा दिल गवाही देता है तू मुझे नाउम्मीद नहीं करेगा और ‘खाक हो जायेंगे हम तुझ को खबर होने तक’ जैसी नौबत नहीं आने देगा। बाकी ये हकीर इंसान तुझे क्या समझा सकता है, तू खुद समझदार है।
लेकिन अगर आने का मन बना ले तो ताकीद रहे कि तूने अकेले आना है, अकेले आने से ही तेरी आमद छुप सकेगी। मेरा कोई हिमायती खैरगढ़ पहुँचा है, ये बात छुपी न रह सकी तो दारोगा पहला कदम यही उठायेगा कि मुझे गिरफ्तार कर लेगा। फिर न तेरी कोई पेश चल पायेगी, न तेरे किसी लाव लश्‍कर की। फिर ताकीद है कि तेरी तनहा और खामोश आमद से ही मेरा कोई भला होगा।
आखिर में सिर्फ एक बात और कह कर मैं ये खत बन्द करता हूँ :
सजन स्नेही बहुत हैं, सुख में मिले अनेक
विपत्ति पड़े दुःख बाँटे जो, सो लाखन में एक।
तेरा बिछुड़ा दोस्त
जगमोहन
विमल ने चिट्ठी शोहाब को थमा दी।
“पढ़।”—वो बोला—“बोल के पढ़ ताकि इरफान भी सुन सके।”
शोहाब ने चिट्ठी पढ़ी।
फिर वापिस विमल को सौंपी।
“बहुत जज्बाती चिट्ठी है।”—इरफान बोला।
“पढ़ते वक्त”—शोहाब बोला—“मेरे तो गले में कुछ फँसने लगा।”
“कौन है ये शख्स?”
विमल ने संक्षेप में बताया।
“ओह!”—इरफान बोला—“पुराना जोड़ीदार है। खूब जानता समझता है तेरे को। तभी तेरे को ज़मीर का कैदी बोला।”
“एक और बात भी है”—शोहाब बोला—“जिसे अब तसलीम करना जरूरी है।”
“कौन-सी बात?”—विमल बोला।
“आपके परोपकार के अभियान का जो व्यापक प्रचार आप को गलत लगता था, अब उसके अच्छे पहलू भी सामने आ रहे हैं। लोकल तालातोड़ और बाहर से आये ठग के बाद ये तीसरी मिसाल है जबकि किसी ने परोपकार के खाली होते घड़े को भरने की पेशकश की है।”
“मैं अकेला ही चला था जानिबेमंजिल मगर”—विमल बोला—“राहरौ आते गये, और कारवां बनता गया।”
“बिल्कुल!”
“बाप, अब असल बात तो बोल।”—इरफान तनिक व्यग्र भाव से बोला—“जायेगा?”
“तेरा क्या खयाल है?”
“मेरा खयाल तेरे पर लागू किधर है? मैं तो बोलूँगा मत जा।”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“मतलब कि जायेगा?”
“हाँ।”
“अकेला?”
“जब चिट्ठी में ऐसा लिखा है तो...”
“ये चिट्ठी दुश्‍मनों की चाल हो सकती है।”—शोहाब बोला।
“अच्छा!”
“दफेदार की इधर पेश नहीं चल रही इसलिये आपको सिंगल आउट करने का उसने ये जरिया सोचा है।”
“ये चिट्ठी एक महीना पुरानी है। ‘भाई’ की मौत के बाद की दफेदार की शैतानी हरकतें हाल ही में शुरू हुई हैं।”
“चिट्ठी पर दर्ज खाली एक तारीख ही तो कहती है कि एक महीना पुरानी है!”
“गैलेक्सी के पते पर आयी। दफेदार को उस पते की खबर नहीं हो सकती।”
“क्या पता...”
“अभी पूरी बात सुन। आगे चिट्ठी गैलेक्सी के मालिक के कवरिंग लेटर के साथ यहाँ पहुँची। दफेदार को मालूम नहीं हो सकता कि गैलेक्सी का मालिक इस दुनिया में नहीं था और अब उसका कारोबार उसकी बीवी सँभाल रही थी। उसे मालिक की बीवी का नाम नहीं मालूम हो सकता। और सौ बात की एक बात ये कि उसे ये मालूम नहीं हो सकता कि ‘मराठा’ के पते पर भेजी चिट्ठी मेरे तक पहुँच सकती है। सलाउद्दीन से मेरे और तुका के गंठजोड़ की तो ‘कम्पनी’ को खबर नहीं थी, दफेदार को कैसे हो सकती है?”
“ठीक लेकिन...”
“अभी और सुन। अगर ये चिट्ठी दफेदार की चाल होती तो इसमें इस बात का जिक्र न होता कि लिखने वाले को मेरा खाली दिल्ली का गैलेक्सी का पता मालूम था और वहाँ मेरा नाम अरविंद कौल था। तो चिट्ठी सोहल से मुखातिब होती और वाया गैलेक्सी या मराठा आने की जगह सीधे सी-व्यू होटल के या चैम्बूर के पते पर आयी होती।”
“शोहाब”—इरफान बोला—“देखना अभी ये कहेगा चिट्ठी में ऐसी बहुत-सी बातों का जिक्र है जिनको इसके और चिट्ठी लिखने वाले के सिवाय कोई तीसरा नहीं जानता हो सकता।”
“क्यों नहीं कहूँगा?”—विमल बोला—“ऐसी कई बातों का चिट्ठी में बराबर जिक्र है।”
“लिहाजा”—शोहाब बोला—“ये चिट्ठी जेनुइन है?”
“हाँ। और मुझे इस बात का दुख है कि इसके मेरे तक पहुँचने में एक महीना लग गया। अब अन्देशा है कि वही बात न हो जाये—हो चुकी हो—जो चिट्ठी के आखिर में दर्ज है।”
“कौन-सी?”
“खाक हो जायेंगे हम तुझ को खबर होने तक।”
“तेरा ऐसा खयाल है”—इरफान आशापूर्ण स्वर में बोला—“तो फिर तो तेरा जाना बेकार होगा। अब तक तो जा कर मैयत को कन्धा देने की भी स्टेज गुजर गयी होगी।”
“खुदा न करे कि ऐसा हो।”—विमल चिन्तित भाव से बोला—“ऐसा हुआ तो वो आखिरी साँस तक यही सोचता रहा होगा कि मेरा ज़मीर मर गया, मैं जान बूझ कर न आया।”
“कभी ऐसे अकेले दिल्ली पहुँचने का भी तुझे हुक्म हुआ था।”
“ये हुक्म नहीं, दरखास्त है। गुहार है...”
“फिर भी...”
“वो हुक्म दुश्‍मनों का था—जिसको मानना इसलिये जरूरी था क्योंकि उनके कब्जे में नीलम थी—ये दरखास्त दोस्त की है। मैं दोस्त को नाउम्मीद नहीं कर सकता।”
खामोशी छा गयी।
जिसे आखिरकार इरफान ने ही भंग किया।
“उसने”—वो बोला—“चिट्ठी में इतना कुछ लिखा, कोई फोन नम्बर लिख देता तो...”
“एक लिफाफे पर”—शोहाब बोला—“उसकी कोठी का पता दर्ज है। ये देखिये, साफ लिखा है, पन्द्रह, सरकुलर रोड, खैरगढ़। अगर इस पते पर टेलीफोन कनैक्शन है तो डायरेक्ट्री इंक्वायरी से उसकी बाबत जाना जा सकता है।”
“जान।”
शोहाब ने उस काम को अंजाम दिया और फिर उस नम्बर पर काल लगायी।
कोई जवाब न मिला।
उसने लाइन काटकर फिर काल लगायी।
नतीजा वही निकला।
“कोई नहीं उठाता।”—वो बोला—“पता नहीं लाइन खराब है या घर में कोई नहीं है।”
“नम्बर चिट्ठी पर लिख दे”—विमल बोला—“मैं बाद में ट्राई करूँगा।”
“मेरे को एक बात का जवाब दे।”—विमल के लिए तब भी चिन्तित इरफान बोला—“तेरा—खास तेरा—जाना क्यों जरूरी है?”
“क्योंकि बुलावा मेरे को है।”
“तो क्या हुआ? तू किसी को भेज भी तो सकता है! मैं जा सकता हूँ। शोहाब जा सकता है। हम दोनों जा सकते हैं।”
“बड़े लोग”—शोहाब बोला—“अपनी पावर्स दूसरों को डेलीगेट करते ही हैं।”
“मैं!”—विमल हँसा—“बड़ा लोग!”
“क्यों नहीं! चिट्ठी में उस शख्स ने आप को आसमान पर चढ़ाया हुआ है। खुद को सुदामा बोला तो जाहिर है कि आपको भगवान श्रीकृष्ण बोला। फिर बड़ा आदमी होने में क्या कसर बाकी रही?”
“वो ऐसा समझता है। असल में मैं क्या हूँ, ये क्या तुम लोगों से छुपा है?”
“अब लफ्फाजी छोड़, बाप।”—इरफान बोला—“साफ बोल कि तू समझता है कि जो काम तू कर सकता है, वो हम नहीं कर सकते।”
“ऐसी कोई बात नहीं।”
“तो फिर...”
“सुन, सुन। मेरी बात सुन। दोनों सुनो। तुम्हें याद है कि एक बार तुका ने मुझे एक चिट्ठी लिखी थी जो मुझे तब मिली थी जब सूरज सिर्फ बीस दिन का था और तब दिल्ली में नीलम और सूरज के साथ रहता मैं समझता था कि सब तूफान गुजर चुके थे और शान्ति ही शान्ति थी। ऐसे माहौल में तुका ने चिट्ठी लिख कर मुझे मुम्बई बुलाया था और मैं जैसे डार से बिछुड़ा था। तब मैंने क्या उस चिट्ठी को नजरअन्दाज कर दिया था, ये बहाना बना दिया था कि चिट्ठी मुझे नहीं मिली थी, या सोचा था कि वो बुलावा गैरजरूरी था या मेरा फौरन जाना गैरजरूरी था? मैंने ऐसा नहीं किया था। मैं बीवी बच्चे को सोता छोड़कर मुम्बई रवाना हो गया था क्योंकि मैं तब भी अपने ज़मीर का कैदी था, क्योंकि बुलावा तुका का था जो कि मेरा दोस्त था—बाप था—जब मैंने तब एक दोस्त के बुलावे को नजरअन्दाज न किया तो अब एक दोस्त के बुलावे को कैसे नजरअन्दाज कर सकता हूँ?”
“तब हालात जुदा थे”—शोहाब धीरे से बोला—“अब हालात जुदा हैं।”
“कहाँ जुदा हैं? मैं तब भी कानून का मुजरिम था, आज भी कानून का मुजरिम हूँ। तब भी मेरे दुश्‍मन मेरी लाश गिराने के तमन्नाई थे, आज भी मेरे दुश्‍मन मेरी लाश गिराने के तमन्नाई हैं। राजा साहब की फर्जी औकात को ओढ़ बिछा लेने से मेरे लिये हालात कैसे जुदा हो गये? हालात जुदा हैं तो क्यों दफेदार मेरी जान के पीछे पड़ा है? क्यों मैं अपनी बीवी बच्चे से बिछुड़ा हुआ हूँ? क्यों मेरे मन को चैन नहीं है? क्यों हर पल, हर क्षण मुझे लगता है कि मेरा अगला ही कदम जहन्नुम की देहरी पर होगा? मेरे दोस्तो, मेरे मेहरबानो, मेरे भाइयो, क्यों तुम उधार की जिन्दगी जीते शख्स की खैर माँगते हो?”
कोई कुछ न बोला।
कितनी ही देर खामोशी रही।
“तू नहीं रुक सकता।”—फिर इरफान असहाय भाव से बोला—“तुझे कोई नहीं रोक सकता। तू जायेगा। जाके रहेगा।”
“पीछे क्या होगा?”—शोहाब बोला।
“क्या मतलब?”—विमल बोला।
“जो लोग जानते हैं—या ऐसा समझते हैं—कि राजा गजेन्द्र सिंह ही सोहल है, उन्हें जब राजा साहब इधर नहीं दिखाई देगा तो वो इसका क्या मतलब निकालेंगे?”
“यही मतलब निकालेंगे कि जो वो समझते हैं, वो हकीकत है। फिर डबल आइडेंटिटी की जो एडवांटेज हमें हासिल है, वो खत्म हो जायेगी। इसलिये ऐसा नहीं होना चाहिये। इसलिये मेरी गैरहाजिरी में शोहाब, तुझे राजा साहब बन कर इधर दिखाई देते रहना होगा। यूँ मुझे भी तसल्ली होगी कि कोई मेरे पीछे लगा खैरगढ़ नहीं पहुँच गया।”
“बढ़‍िया।”—तब पहली बार इरफान के लहजे में इत्मीनान का पुट आया।
“और तब क्यों कि राजा साहब का सैक्रेट्री नहीं दिखता रह सकेगा—क्यों कि शोहाब राजा साहब बन सकता है, कौल नहीं बन सकता—इसलिये उसकी गैरमौजूदगी की ये कहानी गढ़नी होगी कि एक जरूरी काम से राजा साहब ने उसे काठमाण्डू भेजा है जहाँ से हो सकता है वो आगे नैरोबी भी जाये।”
“और सैक्रेट्री का सैक्रेट्री?”—शोहाब बोला।
“उसकी कोई अहमियत नहीं। मुझे पूरा यकीन है उसकी बाबत कोई सवाल नहीं होगा, फिर भी हो तो वो भी कौल के साथ काठमाण्डू गया है।”
“बढ़िया।”
“ये आइडिया समझो कि हमने दुश्‍मन से सीखा।”
“दुश्‍मन से?”
“दफेदार से। जब वो जहन्नुमरसीद हो चुके ‘भाई’ की मिथ को जिन्दा रख के उसके नाम को कैश कर सकता है तो हम क्यों यहाँ स्थापित राजा साहब के वजूद को कैश नहीं कर सकते?”
“कर सकते हैं।”—शोहाब बोला—“करेंगे।”
“कब जायेगा?”—इरफान बोला।
“ये भी कोई पूछने की बात है!”—विमल बोला।
“एयरपोर्ट हमेशा दुश्‍मनों के निशाने पर रहा है, किसी ने तुझे पहचान लिया?”
“सहर एयरपोर्ट ही तो। पूना से या पणजी से राजनगर की फ्लाईट का पता कर।”
“राजनगर की?”
“करीबी एयरपोर्ट वो ही है। आगे ट्रेन पकड़ूँगा या टैक्सी करूँगा।”
“ठीक है।”
“हम दुआ करेंगे”—शोहाब बोला—“कि आप के खैरगढ़ पहुँचने तक आप का दोस्त सलामत हो।”
“थैंक्यू।”
‘कर्मयोद्धा’ में जारी