आभार

मैं इसे एक पुस्तक नहीं मानता! इसे एक यात्रा मानता हूं, जो पिछले करीब छह महीने से कर रहा हूं! इस यात्रा पर निकलने की हिम्मत नहीं होती, यदि वरिष्ठ पत्रकार और ‘यथावत’ पत्रिका के संपादक श्री रामबहादुर राय जी मेरा मार्गदर्शन नहीं करते! बिना उनके मार्गदर्शन के मेरी कोई भी पुस्तक आज तक पूरी नहीं हुई है। एक दिन उन्होंने पूछा, ‘आजकल आप क्या कर रहे हैं?’ मैंने कहा, ‘सर समाधि में गए आशुतोष महाराज जी पर पुस्तक लिखना चाहता हूं, लेकिन मुझे न इसका ओर पता चल रहा है न छोर!’ उन्होंने कहा- ‘लिख डालिए!’

फिर एक शाम ‘यथावत’ पत्रिका के कार्यालय से कुछ दूरी पर ही एक पार्क में टहलते हुए वह मुझे ले गए। वह हर शाम उस पार्क में टहलने जाते हैं। वहां वो आशुतोष महाराज जी की समाधि के बारे में बातें करते रहे। वो स्वयं महाअवतार बाबा जी की समाधि पर जा चुके हैं और लाहिड़ी महाशय के परिवार से भी घनिष्ठ रहे हैं! उनसे बातचीत में लगा कि वो आध्यात्म की दुनिया में बेहद गहरे उतरे हुए हैं और इस पुस्तक लेखन में मेरी आंखों के सामने की धुंध को एक गुरु बनकर हटा रहे हैं! मुझे आत्मविश्वास देने के लिए उन्होंने कहा, ‘ऐसा कीजिए, आप पहले ‘यथावत’ के लिए आशुतोष महाराज जी की समाधि पर एक स्टोरी लिखिए और वह पत्रिका की लीड स्टोरी बनेगी।’ मैं इस बीच आशुतोष महाराज जी पर शोध करने के लिए बिहार चला गया, क्योंकि महाराज जी बिहार के ही मिथिलांचल के मूल निवासी हैं। एक दिन सर (रामबहादुर राय जी) का पफोन आया, ‘क्या आपने आशुतोष महाराज जी पर कुछ लिखा?’ मैंने कहा- ‘जी सर! आजकल में भेजता हूं।’ उसके बाद मैंने आशुतोष महाराज जी की समाधि पर एक पूरी खबर लिखकर उन्हें भेज दी, जो बाद में ‘समाधि का सच’ नाम से ‘यथावत (1-15 दिसंबर 2015)’ की कवर स्टोरी बनी! और आश्चर्य कि पत्रिका का यह अंक हाथों-हाथ निकल गया!

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आशुतोष महाराज जी पर मैं जून 2015 से ही शोध कर रहा था, लेकिन लिखने की शुरुआत नवंबर में जाकर कर पाया। पढ़ने में चार महीने और लिखने में केवल दो महीने! लगातार भ्रमण और अध्ययन में लगा था, लेकिन लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। यह एक ऐसा विषय है, जिसमें मैं जितना अंदर उतरता, उतना ही उतरता चला जाता। कई बार सुध-बुध खो बैठता! श्री रामबहादुर राय जी ने यदि लिखने का हौसला नहीं दिया होता, तो शायद यह पुस्तक मैं कभी नहीं लिख पाता। आज तक पढ़ता ही रहता! यह पूरी पुस्तक केवल और केवल उनके ही कारण आज पाठकों के हाथों में है।

जब मैं बिहार की यात्रा कर रहा था तो मेरे पिताजी न केवल मन और शरीर से मेरे साथ रहे, बल्कि अपना पूरा संसाधन भी मेरे लिए झोंक दिया। उन्होंने मधुबनी से लेकर नेपाल और बिहार से लेकर दिल्ली तक मेरे साथ सड़क मार्ग से यात्रा की। उनकी उम्र 60 साल के करीब है, लेकिन वह जिस प्रेम व आशीर्वाद के साथ मेरा साथ देते हैं, वैसा साथ शायद ही कोई पिता अपने बेटे का देता हो! अपने समाज के विरुध्द जाकर आज से 16 साल पूर्व मेरे प्रेम विवाह में मेरा साथ देने से लेकर, मेरी पहली नौकरी, फिर अभी तीन साल पूर्व मेरे नौकरी छोड़ने के निर्णय और अब मेरी हर पुस्तक लेखन में वह मेरे पीछे मेरा ‘बल’ बनकर खड़े हैं। कहा जाता है कि यदि पिता आपके साथ हो तो आप दुनिया से टकरा सकते हैं! मैं भी उनके ही कारण हर कदम बिना सोचे समझे बढ़ा देता हूं, जानता हूं कि यदि फिसला तो पिताजी संभाल लेंगे!

जब बिहार से मैं दिल्ली के लिए चला तो पटना में यातायात जाम के कारण मेरी रेलगाड़ी छूट गई। न किसी अन्य रेलगाड़ी में टिकट उपलब्ध् था और न ही विमान में। पिताजी ने कहा- फिर से घर लौटने से अच्छा है कि मैं तुम्हें गाड़ी से ही दिल्ली पहुंचा दूं और यही हुआ! 1200 किलोमीटर जाने और फिर 1200 किलोमीटर आने की यात्रा, उन्हें मेरे कारण करनी पड़ी! मैं अपराध भाव से धंसा जा रहा था और मेरे पिताजी खुश थे कि उन्होंने मुझे सुरक्षित दिल्ली पहुंचा दिया! ईश्वर ऐसा पिता सबको दे! मैं आज जो कुछ भी कर रहा हूं, वह अपने पिताजी और अपनी मां के आशीर्वाद के कारण ही कर पा रहा हूं, वर्ना मैं किसी लायक नहीं हूं।

मेरे पिताजी के ड्राइवर अवधेश ठाकुर जी, आशुतोष महाराज जी पर शोध के दौरान बिहार, नेपाल और दिल्ली तक गाड़ी चलाते रहे। मैं आशुतोष महाराज पर शोध के साथ-साथ ‘राज-दरभंगा’ पर भी शोध कर रहा था, क्योंकि आने वाले समय में मैं उन पर भी एक पुस्तक लिखना चाह रहा हूं- इसलिए अवधेश जी को दो-दो पुस्तकों की अध्ययन सामग्री जुटाने के लिए गाड़ी चलानी पड़ रही थी। मैं उनका दिल से शुक्रगुजार हूं। मेरे पिताजी के मैनेजर मनोज कुमार, मेरे गांव के एक बाबा पंकज कुमार देव उर्फ बाबुल बाबा एवं मिथिला विश्वविद्यालय में कार्यरत गांव के ही कुंदन भईया ने मिथिला की इतिहास व संस्कृति से जुड़ी पुस्तकें जुटाने में मेरी मदद की। मैं इन सभी का दिल से आभारी हूं।

दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल के फॉरेंसिक साईंस विशेषज्ञ डॉ. बी.एन. मिश्रा मेरे जीवन के सबसे बड़े हितैषियों में से एक हैं। वो मुझे हर तरह से सहयोग करते हैं। उन्होंने मेरे साथ पंजाब तक की यात्रा की और अध्यात्म से जुड़ी बीसियों पुस्तकें पढ़ने के लिए दीं। उनका घर एक पुस्तकालय है, जिसमें वेदों, उपनिषदों और सभी पुराणों से लेकर इतिहास, दर्शन, साहित्य और विज्ञान की पुस्तकों का भंडार है। डॉ. मिश्रा अद्वैत वेदांती हैं। आदि गुरु शंकर, स्वामी विवेकानंद और महर्षि वेदव्यास की शिक्षाओं को जन-जन तक किस प्रकार पहुंचाया जाए, नौकरी के साथ-साथ, इसके लिए भी डॉ. बी.एन.मिश्रा प्रयासरत हैं! आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता उनके व्यक्तित्व को खास बनाती है। मैं उनका बहुत आभारी हूं कि मेरे हर लक्ष्य को पूरा करने में वो मेरा साथ देते हैं।

मेरा परिवार दुनिया का सबसे अनोखा परिवार है। मैंने घर को ही कार्यालय और पुस्तकालय बना रखा है, लेकिन मेरी पत्नी मोना (श्वेता देव) उफ तक नहीं करती! वह मेरी पुस्तकों पर पड़ी धूल को पोंछती और उसे सहेजती रहती है। रात में सोते वक्त मेरे लिखते रहने के कारण टयूबलाइट की रोशनी से उसकी आंखों को तकलीफ पहुंचती है, लेकिन वह सबकुछ हंसकर सहती है! कई बार डपटती भी है, लेकिन वह मेरे नहाने-खाने के लिए। मैं जब लिखने बैठता हूं तो कई बार दोपहर का खाना छूट जाता है और सर्द रातों में रात 9-10 बजे जाकर मेरा नहाना होता है। इस सर्दी में मैं इस अनियमित जीवनशैली के कारण बुरी तरह से बीमार पड़ गया। गर्दन और रीढ़ की हड्डी के दर्द ने मुझे जकड़ लिया। कई बार झल्लाता, उदास होता, टूट जाता, समझ में नहीं आता कि आगे किस तरह लिखूं, लेकिन मोना हौसला बनकर मेरे साथ खड़ी रही। उसने अपने जीवन में साफ-साफ आशुतोष महाराज जी की अलौकिकता को महसूस किया, इसलिए उसकी भी इच्छा थी कि यह पुस्तक जल्द से जल्द पूरी हो! मोना सिर्फ कहने को ‘अर्धांगिनी’ नहीं है, बल्कि मेरे हर कर्म में साथ खड़ी रहती है। मेरे अचानक से लिए गए निर्णयों के कारण उसके जीवन में भी उथल-पुथल मची रहती है, लेकिन हमारा प्रेम इस सबसे हम-दोनों को उबार लेता है।

मेरा बेटा जिज्ञासु उमंग और पांच साल का भतीजा मितुल देव मेरे हर छोटे-छोटे काम में मेरी मदद करते रहते हैं। बिखरी हुई पुस्तकों को वो सहेजते हैं, बेटा तीसरी मंजिल से उतर कर प्रिंट आउट लाता रहता है, मितुल मेरे साथ खेल लेता है और मेरा तनाव दूर हो जाता है! जिज्ञासु के कुछ दोस्त और शिक्षक मेरी पुस्तकों के प्रशंसक हैं। उन्होंने मेरी पुस्तकें पढ़ी हैं। जिज्ञासु जब स्कूल से आकर मुझे यह सब बताता है तो उसके चेहरे और उसकी आंखों की खुशी साफ पढ़ी जा सकती है! फिर मैं उसे खूब चिढ़ाता हूं! हम-दोनों प्रेम में झगड़ते हैं और घर सकारात्मक उफर्जा से भर उठता है!

मेरा भाई अमरदीव देव व उसकी पत्नी मीनू, मेरे साढ़ू भाई लक्ष्मण राय, उनकी पत्नी टोनी, दोनों बच्चे पुलु और लवी का भावनात्मक प्यार और साथ सदा मेरे साथ रहा है। लक्ष्मण जी के पिताजी और मेरे परिवार के सबसे अनुभवी सदस्य श्री सुशील राय जी मेरी पुस्तकों के सबसे बड़े पाठक हैं। मेरी पुस्तकों को वो न केवल खुद पढ़ते हैं, बल्कि दूसरों को भी पढ़ाते हैं। पुस्तक पढ़कर वह मुझे इतना आशीर्वाद देते हैं कि मुझे फिर से एक नई पुस्तक लिखने का हौसला मिल जाता है। नौ साल की प्यारी सी पुलु भी अपने मौसा जी की पुस्तकों की प्रशंसक है। वह कहती है, ‘मौसा जी आप अपनी हर पुस्तक की पहली कॉपी मुझे ही देना। मैं पढ़ूंगी और अपने दोस्तों को बताउफंगी।’ कह नहीं सकता हूं कि कितनी खुशी मिलती है!

इस पुस्तक लेखन के लिए अपना नाम और पहचान बदलकर आशुतोष महाराज जी की समाधि का रहस्य जानने के लिए शुरु में मैं उनके पंजाब स्थित नूरमहल आश्रम में रहा, लेकिन वहां कई दिनों तक रहने के बाद मुझे कहीं भी ऐसा कुछ नजर नहीं आया, जो संदेहास्पद हो! मीडिया जिस तरह संपत्ति हड़पने की खबरों का प्रसार कर रही है, वह वहां दूर-दूर तक नजर नहीं आया! स्वयं आशुतोष महाराज जी से लेकर उनके प्रचारकों तक के पास एक बैंक खाता तक नहीं है। सारी संपत्ति ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ के नाम है, जिसमें निर्णय लेने वाला एक बड़ा समूह है। इसलिए एक रुपए भी इधर-उधर करना इतना सरल नहीं है, जितना की मीडिया इसे बता रहा है! स्वयं आशुतोष महाराज जी ने यह सारी व्यवस्था की है।

मुझे ताज्जुब है कि पिछले दो सालों में प्रिंट या इलेक्ट्रोनिक मीडिया से एक भी पत्रकार आश्रम के अंदर नहीं गया है! बस सुनी-सुनाई बातों और भारतीय संत परंपरा को बदनाम करने के उद्देश्य से अर्नगल प्रलाप में सभी जुटे हैं! यदि एक भी पत्रकार आश्रम तक जाता तो मैं मान लेता कि वह पत्रकारिता कर रहे हैं, लेकिन बिना वहां जाए, केवल उन लोगों से बात करके, जिन्हें अदालत ने खारिज कर दिया है- रिपोर्टिंग करना, आखिर किस तरह की पत्रकारिता है? मैं स्वयं पिछले 13 साल में दैनिक जागरण और नईदुनिया जैसे बड़े अखबारो में वरिष्ठ संवाददाता की हैसियत से कार्य कर चुका हूं और हर ‘बीट’ कवर कर चुका हूं! कई घपले-घोटाले की फाइल तक खुलवाई है, लेकिन जिस तरह की ‘ड्राईंगरूम रिपोर्टिंग’ आज दिख रहा है, वह पत्रकारिता को हर तरह से शर्मसार करने वाला है!

मैं पंजाब के नूरमहल आश्रम में कई दिनों तक रहा और जब लगा कि यह सब गुरु और शिष्यों के बीच की आस्था से जुड़ा मसला है तो अपनी पहचान उजागर कर आश्रम के पदाधिकारियों, शिष्यों और अनुयायियों से मिला। पहले वे लोग सहयोग करने को बिल्कुल भी राजी नहीं थे, पत्रकारों पर उनका भरोसा नहीं था और जिस तरीके से मैंने आश्रम में प्रवेश किया था, उससे वो कुपित थे। लेकिन जब मैंने समझाया कि ‘यदि मेरा उद्देश्य गलत होता तो मैं आप लोगों को बताए बिना, यहां से निकल कर आश्रम में अपनी मौजूदगी की तस्वीर के साथ रिपोर्ट या पुस्तक लिख देता और आप कुछ नहीं कर पाते’- यह बात उनकी समझ में आ गयी! संस्थान मेरे सभी प्रश्नो का उत्तर देने के लिए राजी हो गया।

मैं अपने पिछले छह महीने के अनुभव के आधर पर कह सकता हूं कि ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ से जुड़े लोग सीधे-साधे और प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा को मानने वाले हैं! वो आस्थावान हैं और ज्ञानी भी! एक-एक का नाम तो क्या लिखूं, संस्थान के सभी पदाधिकरियों, शिष्यों और अनुयायियों का तहे-दिल से आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने न केवल मेरे हर तीखे सवाल का जवाब सरलता और धैर्य से दिया, बल्कि मांग के अनुरूप दस्तावेज भी प्रस्तुत किया।

पेशे से विजुअल कम्यूनिकेशन डिजाइनर और मेरी एक छोटी बहन सोनिया चौधरी ने इस पुस्तक का नाम ‘आशुतोष महाराजः महायोगी का महारहस्य’ दिया है। उसका आभार, क्योंकि सटीक नाम मुझे भी नहीं सूझ रहा था। इस पुस्तक की पूरी डिजाइनिंग मेरे मित्र अली राजा अंसारी ने बेहद कम समय में किया है। उसका दिल से आभार व्यक्त करता हूं।

सबसे बड़ा धन्यवाद ब्लूम्सबरी प्रकाशन का, जो मेरी दूसरी पुस्तक छाप रहे हैं। ब्लूम्स से प्रकाशित मेरी पहली पुस्तक ‘स्वामी रामदेवः एक योगी-एक योध्दा’ उनकी साल 2015 की सर्वाधिक बिक्री वाली पुस्तकों की सूची में शामिल रही है। यह सब केवल ब्लूम्स की पूरी टीम की मेहनत का नतीजा है। मैंने आशुतोष महाराज जी पर पुस्तक लिखने की बात जब ब्लूम्स के प्रतिनिधि और अब मेरे बेहद प्रिय मित्र बन चुके प्रवीण तिवारी जी को बताई तो उन्होंने मेरा सहयोग किया और अपने प्रबंध निदेशक राजीव बेरी जी से बात की। राजीव जी बेहद सरल और प्यारे व्यक्ति हैं। उन्होंने कहा, ‘संदीप आप लिखिए, ब्लूम्स आपको सहयोग करेगा!’ इसके बाद मुझे हौसला मिला। प्रवीण जी, राजीव जी एवं ब्लूम्स की पूरी टीम का बहुत-बहुत आभार।

संदीप देव