अध्याय-1

क्रांतिकारी बचपन

दिगुरु शंकराचार्य ने जब यह सुना कि नालंदा विश्वविद्यालय के नवम तल से प्रकाण्ड विद्वान कुमारिल भट्ट को फेंक दिया गया, तो वे बेहद विचलित हो उठे। कुमारिल भट्ट बौध्द विद्वान होते हुए भी वैदिक शास्त्रों के बहुत बड़े ज्ञाता थे। बौध्द विद्वान उनसे शास्त्रार्थ करने से भय खाते थे। बौध्द भिक्षु होते हुए भी वे वेदों की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने के लिए शास्त्रार्थ करते और बौध्दों को परास्त करते जा रहे थे।

वास्तव मेंतत्कालीन आर्यावर्त में बढ़ते बौध्द धर्म के प्रभाव और उसमें उत्पन्न विकृतियों से विचलित होकर वैदिक विद्वान कुमारिल भट्ट ने अपनी पहचान छुपा कर नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और बौध्द ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे पूर्व वे प्रतिष्ठानपुर (झूंसी) के गुरुकुल में कुलपति थे। लेकिन बौध्द भिक्षुओं द्वारा वेदों के अपमान से आहत होकर उन्होंने उन्हीं के बीच जाकर, उनका ज्ञान हासिल कर, उन्हें शास्त्रार्थ में परास्त करने का निर्णय लिया। कुमारिल भट्ट ने जब अपने बौध्द गुरु को शास्त्रार्थ में पराजित किया, तब जाकर नालंदा विहार में उनका यह भेद खुल सका कि वे बौध्द भिक्षु के भेष में एक वैदिक विद्वान हैं। बौध्द भिक्षुओं पर जिस दिन उनका यह भेद खुला, उसी दिन नालंदा विश्वविद्यालय की नौंवीं मंशिल से उन्हें फेंक दिया गया, लेकिन वे बच गए।

परंतु अपनी पहचान छुपा कर बौध्द साहित्य का ज्ञान हासिल करने और अपने बौध्द गुरु को परास्त करने के कारण कुमारिल भट्ट को आत्मग्लानि होने लगी थी। उन्हें यह लगने लगा था कि उन्होंने अपने गुरु के साथ धोखा किया है। इसलिए नौंवीं मंशिल से पफेंके जाने पर बच जाने के बावशूद उन्होंने पश्चात्ताप स्वरूप खुद को अग्नि में भस्म करने का निर्णय किया। गुरु पूर्णिमा के दिन उन्होंने खुद को अग्नि के हवाले करने की घोषणा की।

उधर पूरे भारतवर्ष में बौध्दवाद को निष्कासित कर अद्वैत वेदांत की स्थापना के लिए आदिगुरु शंकराचार्य अपने दिग्विजय अभियान पर निकलने की सोच रहे थे। इसके लिए बौध्द भिक्षु और वेद के कर्मकांडी विद्वान कुमारिल भट्ट को शास्त्रार्थ में परास्त करना उनके लिए पहली सीढ़ी थी। आदि गुरु उस वक्त प्रयागराज में थे, जब उनके शिष्य पद्माचार्य ने उन्हें यह बताया कि कुमारिल भट्ट ने यह घोषणा की है कि वह गुरु पूर्णिमा के दिन आत्मदाह कर लेंगे। शंकराचार्य ने त्रिवेणी में स्नान किया और अपने शिष्यों के साथ रात-दिन चलते हुए झूंसी स्थित प्रतिष्ठानपुर पहुँचे, जहाँ अपार जनसमूह के समक्ष कुमारिल भट्ट की चिता समाधि सज चुकी थी। जनसमूह को पार कर आचार्य शंकर कुमारिल के पास पहुँचे, जो चिता पर लेट चुके थे। चिता को आग लगाई जा चुकी थी। आचार्य शंकर की ख्याति पूरे आर्यावर्त में फैली हुई थी। कुमारिल ने उनके मुख के तेज को देखते ही उन्हें पहचान लिया और चिता पर लेटे-लेटे ही आचार्य को प्रणाम किया। उन्होंने उनके वहां आने का कारण पूछा। आचार्य ने कहा कि वे उनसे शास्त्रार्थ करना चाहते हैं ताकि वेदों की प्रामाणिकता का मार्ग पुनः प्रशस्त हो सके। शंकराचार्य प्रस्थानत्रय पर लिखे अपने भाष्य को लेकर उनके पास पहुँचे थे। आचार्य शंकर ने उनसे आग्रह किया कि वे चिता में खुद को भस्म करने की अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दें और उनके साथ शास्त्रार्थ कर वेदों की पुनः प्रतिष्ठा में सहयोग करें। तब तक चिता की अग्नि कुमारिल के घुटने तक ही पहुँची थी। ‘आदिगुरु शंकराचार्य- जीवन और संदेश’ में लेखक डॉ. दशरथ ओझा लिखते हैं, कुमारिल ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘आचार्यवर! मैं इस समय वेदानुसार अपने प्रायश्चित के व्रत में लगा हुआ हूँ। इस व्रत से मेरा विचलित होना लोकाचार के विरुध्द कर्म होगा। मुझे संकल्प से च्युत मत कीजिए! देव! मेरा अनुरोध है कि आप अपने भाष्यों का वार्तिक आज भी विद्वत मंडली को मंडित करने वाले मंडन मिश्र से संपन्न करवाएँ। आप मुझसे शास्त्रार्थ करने आए हैं। मेरा शिष्य मंडन मिश्र मेरी ही तरह आपसे शास्त्रार्थ करने में समर्थ है। यदि आपने उसे परिजित कर दिया, तो आप जगत विजयी माने जाएँगे। वहाँ आपको एक परम विदुषी नारी भारती (मंडन मिश्र की पत्नी) भी मिलेगी। वह मध्यस्थ बन आप दोनों के शास्त्रार्थ का निर्णय देगी। यदि मंडन पराजित हो गया, तो आपके मत में सम्मिलित होकर आपके भाष्यों का वार्तिक निर्मित कर सकेगा।’

कुमारिल का शरीर अग्नि में भस्म होता जा रहा था और आचार्य शंकर तारक ब्रह्म का मंत्रोच्चार करते जा रहे थे। उनके भस्म होते शरीर को प्रणाम कर आचार्य उनके आदेशानुसार अपने शिष्यों के साथ महिषमती नगरी की ओर चल पड़े जहाँ मंडन मिश्र पत्नी भारती संग निवास करते थे। मंडन मिश्र जिस महिषमती या महिषी नगरी में रहते थे, वह मिथिला क्षेत्र में स्थित है। मैथिल पंडितों के अनुसार, ‘बनगाँव महिषी’ (वर्तमान में सहरसा जिला) नामक गाँव ही मंडन मिश्र की जन्मभूमि है।

मंडन मिश्र मीमांसा शास्त्रा में निष्णात कर्ममीमांसा के सर्वश्रेष्ठ पंडित थे। मिथिला नगरी विद्वता की दृष्टि से उस समय के नगरों में बेहद विख्यात थी। शंकराचार्य जब महिषमती पहुँचे तो उन्होंने कुँए पर पानी भरने वाली पनिहारिनों से मंडन मिश्र के निवास स्थान का पता पूछा। पनिहारिनें हँसने लगीं और कहा- ‘जिस घर के तोता-मैना तकवेदों पर शास्त्रार्थ करते मिलें, समझ जाइए कि वही मंडन मिश्र का घर है।’ आचार्य शंकर बेहद आश्चर्यचकित हुए कि वहाँ के आम मनुष्यों का तो क्या कहना तोता-मैना भी वेद-प्रवक्ता हैं। मंडन मिश्र-शंकराचार्य और भारती-शंकर के प्रसिध्द शास्त्रार्थों की गूंज आज तक ध्वनित होती है, जिस कारण उस पर यहाँ बहुत चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है।

मंडन परास्त हुए, लेकिन भारती ने इसे आधी पराजय माना और शंकर को स्वयं के साथ शास्त्रार्थ करने का न्यौता दिया। कई दिनों तक चले शास्त्रार्थ में स्वयं की पराजय नज़दीक जानकर भारती ने संन्यासी शंकर से ‘कामशास्त्रा’ सम्बन्धी प्रश्न किए। शंकर तो जन्म से संन्यासी थे, इसलिए उन्हें ‘काम’ का ज़रा भी ज्ञान नहीं था। उन्होंने भारती से प्रश्नों के उत्तर देने के लिए एक माह का समय माँगा और ‘परकाया प्रवेश’ की विधि से एक मृत राजा अमरुक के शरीर में प्रवेश कर गृहस्थ जीवन का अनुभव किया। एक माह पश्चात् अमरुक का शरीर त्याग कर आचार्य शंकर ने स्वयं केशरीर में प्रवेश किया। वहाँ से लौटकर उन्होंने भारती को उसके प्रश्नों का उत्तर दिया और भारती ने अपनी पराजय को स्वीकार कर लिया। बाद में मंडन मिश्र आचार्य शंकर के प्रमुख शिष्य बन गए।

उपरोक्त चर्चा का एक ही मकसद है कि मिथिला में आज भी श्रोत्री ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मणों का कुल मौजूद है, जिनका वेदों पर उसी तरह समान अधिकार है, जिस तरह का अधिकार मंडन मिश्र और उस समय के विद्व त मंडल का था। 1897 में स्वामी विवेकानंद के शिकागो से लौटने पर उनके सम्मान में आयोजित सभा की अध्यक्षता करने से लेकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना तक में प्रमुख सहयोगी रहे ‘राज दरभंगा’ का कुल श्रोत्री ब्राह्मणों का कुल ही है। इस कुल में वेद, उपनिषद्, न्याय, मीमांसा, भारतीय दर्शन के एक से बढ़कर एक विद्वान राजा हुए। यह परिवार देश की आशादी के बाद तक वेदों के पठन-पाठन को संरक्षण देता रहा था। आशुतोष महाराज जी भी मिथिला के ऐसे ही एक वेदपाठी श्रोत्री ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण कुल से आते हैं!

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मिथिला के दरभंगा, मधुबनी, झंझारपुर, सहरसा आदि में श्रोत्री ब्राह्मणों के कई कुल, परिवार और गाँव मौजूद हैं। ऐसे ही एक गाँव के श्रोत्री ब्राह्मणों के एक कुल में आशुतोष महाराज जी का जन्म हुआ। आशुतोष महाराज जी के गाँव व उनके परिवार को लेकर अज्ञानता भी है और विवाद भी! कुछ लोगों का कहना है कि उनका जन्म झंझारपुर के लखनौर नामक गाँव में हुआ तो कुछ लोगों का कहना है कि दरभंगा महाराज के ड्योढ़ी शुभंकरपुर से उनका परिवार जुड़ा हुआ था तो कुछ दरभंगा को ही उनका जन्म स्थान बताते हैं। लखनौर गाँव के एक व्यक्ति दिलीप झा ने यह दावा भी किया है कि आशुतोष महाराज जी का पूर्व नाम महेश झा है और वे उसके पिता हैं! उसका कहना है कि जब वह केवल एक माह का था, तब उसके पिता ज्ञान की तलाश में घर छोड़ कर चले गए थे। हालांकि पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने उसके इस दावे को खारिज कर दिया है और कहा है कि आप ऐसा कोई सबूत अदालत के समक्ष पेश नहीं कर सके, जिससे यह साबित होता हो कि आप श्री आशुतोष महाराज जी के पुत्र हैं। दिलीप झा ने डी.एन.ए. जाँच के लिए अपील किया है और मामला अभी अदालत में विचाराधीन है।

श्री आशुतोष महाराज जी पर पुस्तक लेखन के क्रम में मैंने जब लखनौर गाँव जाकर दिलीप झा से मुलाकात की तो वह न तो अपने माता-पिता की शादी की कोई तस्वीर दिखा सका, न आशुतोष महाराजजी के बचपन से जुड़ा ऐसा कोई संस्मरण ही सुना सका, जो आशुतोष महाराजजी के प्रवचनों में आए संस्मरणों से मेल खाता हो! दिलीप का कहना है कि वह 1999 के बाद कई बार महाराज जी से मिला है, लेकिन इस सम्बन्ध् में भी न तो आशुतोष महाराज जी के साथ उसकी कोई तस्वीर है और न ही कोई अन्य सबूत! दिलीप की माँ कुछ नहीं बोलती हैं। दिलीप के अनुसार, उसके पिता के घर छोड़ने के बाद से ही वे एकदम गुमसुम हैं! गाँव के कुछ लोग यह ज़रूर कहते हैं कि महेश झा उर्फ आशुतोष महाराज जी लखनौर गाँव के ही रहने वाले हैं। लेकिन बार-बार पूछने पर भी उनमें से किसी ने भी उनके बचपन या युवावस्था से जुड़ा कोई संस्मरण, कोई ऐसी घटना का ज़िक्र नहीं किया, जिससे उनके बचपन या युवावस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता हो! दिलीप झा और गांव वाले के वक्तव्यों में समानता है और ऐसा लगता है कि इनमें से किसी को भी महाराजजी के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है! दिलीप झा के पास महेश झा के नाम जारी पासपोर्ट की छाया प्रति और उनकी वे दो तस्वीरें ज़रूर हैं, जो आज मीडिया और इंटरनेट पर भी उपलब्ध् है! आशुतोष महाराज जी की अन्य तस्वीरें उपलब्ध् नहीं होने के बारे में पूछे गए सवाल पर दिलीप झा का कहना है कि बिहार में सन् 1988 में आई बाढ़ के कारण उसके घर में पानी उतर आया था, जिसकी वजह से घर की सारी तस्वीरें और कागजात नष्ट हो गए!

लेखक ने दिलीप झा के पास आशुतोष महाराज जी से जुड़ा कोई ठोस साक्ष्य न पाकर और विवाद से बचने के उद्देश्य से यह निश्चय किया है कि आशुतोष महाराज जी के गाँव, उनके परिवार आदि के निर्धरण का फैसला अदालत पर ही छोड़ दिया जाए! वैसे भी मेरा उद्देश्य अदालत के निर्णय को प्रभावित करने का नहीं है, बल्कि एक ऐसे संत व उनके कार्यों के बारे में देश की जनता को बताना है, जो सनातन ‘ब्रह्मज्ञान’ के प्रसार में तीन दशक से अधिक समय से जुटे हैं और पिछले दो सालों से जिनकी समाधि में जाने की चर्चा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है! इस पुस्तक के लेखन-क्रम में लेखक पंजाब से लेकर नेपाल तक महाराज जी से कभी न कभी जुड़े लोगों व शिष्यों से मिला है। उनसे चर्चा कर इकट्ठे किए गए संस्मरण ही पुस्तक में प्रकाशित श्री आशुतोष महाराज जी के जीवन की घटनाओं के मूल आधार हैं।

पुस्तक लेखक श्री आशुतोष महाराज जी द्वारा समय-समय पर दिए गए प्रवचनों व शिष्यों से हुई उनकी वार्तालापों में आए संस्मरणों, जो कि उनके बचपन से लेकर अब तक की यात्रा पर प्रकाश डालते हैं, को ही आधर बनाकर आगे बढ़ा है। बिहार के दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, पटना, मुजफ्रपफरपुर से लेकर नेपाल तक, पंजाब में जालंध्र के नूरमहल से लेकर पटियाला तक, उत्तराखंड के हरिद्वार से लेकर ऋषिकेश तक और दिल्ली के उनके आश्रमों व शिष्यों के बीच जाकर छह महीने उनसे जुड़ी जानकारियों को लेखक ने संग्रहित किया और उसे ही पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा है। हाँ, लखनौर गाँव व दरभंगा की यात्रा से यह तो पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि वे एक श्रोत्री ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार से आते हैं और इसका ज़िक्र उन्होंने अपनी वार्तालापों में भी कई बार किया है, जो उनके शिष्यों से पता चला है। इसीलिए मैंने मिथिला के ब्राह्मणों के सिरमौर मंडन मिश्र की घटना का ज़िक्र किया ताकि पाठकों को यह विदित रहे कि वेदनिष्ठ परम्परा और ज्ञान मिथिला की थाती रही है। इस क्षेत्र में भी श्रोत्री ब्राह्मणों ने वेदों की प्रतिष्ठा के लिए ब्रह्मनिष्ठ होकर कार्य किया है।

वास्तव में श्रोत्री, ‘श्रुति’ से बना है। भारतीय परम्परा ने वेद व उपनिषदों को ‘श्रुति’ कहा है। ‘वेद’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘विद्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘ज्ञान होना’। वेदों को अपौरुषीय माना गया है। ये शाश्वत हैं। माना जाता है कि इनकी रचना ईश्वरीय प्रेरणा से ऋषियों ने की है। उन ऋषियों के बाद से वेद के मंत्र पीढ़ी दर पीढ़ी गुरु से शिष्य तक मौखिक रूप में संप्रेषित होते चले आ रहे हैं। इसे हर अगली पीढ़ी कंठस्थ करती चली गई ताकि वेदों की पवित्रता अक्षुण्ण रह सके और कोई उनमें क्षेपक न जोड़ सके। किसी व्यक्ति को उनमें परिवर्तन करने की आज्ञा न थी और न ही है! सुनने के आधर पर पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण के कारण ही वेदों को ‘श्रुति’ कहा गया है और इसे पीढ़ी दर पीढ़ी ले जाने वालों को ‘श्रोत्री’ या ‘श्रोत्रिए’! वेद व उपनिषदों के अलावा अन्य सभी शाड्ड ‘स्मृतियाँ’ हैं। रामायण, महाभारत, गीता, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, सभी पुराण आदि स्मृति की श्रेणी में आते हैं।

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बिहार और नेपाल की तराई में बसी मिथिला नगरी रामायण काल से ही आर्यावर्त के प्रमुख ज्ञान केन्द्रों में से एक रही है। कभी मिथिला की राजधनी रही जनकपुरी भले ही आज नेपाल में है, लेकिन एक समय यह आर्यावर्त का हिस्सा थी। अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र भगवान श्रीराम की संगिनी देवी सीता मिथिला के राजा जनक की ही पुत्री थीं। राजा जनक का दरबार विद्वानों से भरा रहता था। राजा जनक के दरबार में ही वैदिक विदूषी गार्गी और महर्षि याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ हुआ था। याज्ञवल्क्य महर्षि होते हुए भी गृहस्थ थे। विदूषी गार्गी ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारते हुए कहा था कि ‘महर्षि आप तो ब्रह्मचारी नहीं हैं, फिर आप सत्यान्वेषी कैसे हो सकते हैं? स्वयं को जानने के लिए तो ब्रह्मनिष्ठ आचरण होना आवश्यक है न?’

‘क्यों गार्गी, स्वयं को जानने के लिए ब्रह्मचारी होने की क्या आवश्यकता है? वैसे तुम ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ समझती हो?’ महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा था।

गार्गी का उत्तर था- ‘ब्रह्मचारी वही है जो लगातार परम सत्य की खोज में लीन हो।’

‘तो इसमें गृहस्थ जीवन कहाँ से बाध उत्पन्न करता है?’ महर्षि याज्ञवल्क्य ने पूछा।

‘गृहस्थ जीवन बंधन लेकर आता है और बंधन में पफंसा मनुष्य आत्मविद्या में संलग्न कैसे हो सकता है?’ गार्गी ने प्रतिवाद किया।

‘प्रेम बंधन नहीं, मुक्ति है गार्गी। देखो न, प्रकृति व पुरुष का निस्वार्थ प्रेम ही तो इस सृष्टि के होने की वजह है! यहाँ बंधन कहाँ है? सूर्य स्वयं को जलाकर पृथ्वी पर अपनी उष्मा बिखेरता है और पृथ्वी निःस्वार्थ भाव से उसकी उष्मा को ग्रहण करती है। कहाँ बंधन है गार्गी?’ महर्षि ने गार्गी के प्रश्नों के उत्तर में उदाहरण देकर समझाया।

महर्षि याज्ञवल्क्य के इस उत्तर से निरुत्तर होकर वैदिक विदूषी गार्गी ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली थी। वैदिक विदूषी गार्गी और महर्षि याज्ञवल्क्य एवं महिषमती नगरी में शंकराचार्य और भारती के बीच चला शास्त्रार्थ दर्शाता है कि आदि काल में न केवल महिलाओं के लिए वेद ज्ञान की प्राप्ति सहज थी, बल्कि सार्वजनिक सभा में उन्हें पुरुषों से शास्त्रार्थ करने का अधिकार भी प्राप्त था। बाद में विदूषी गार्गी, महर्षि याज्ञवल्क्य के गुरुकुल में जानकी को ज्ञान प्रदान करने वाली एक प्रमुख गुरु के रूप में भी सामने आती हैं!

आशुतोष महाराज जी ने अपने हजारों समर्पित कार्यकर्ताओं और प्रचारकों में 95 फीसदी महिला संन्यासियों को शामिल कर यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि वे न केवल मिथिला की संस्कृति के, बल्कि वैदिक ज्ञान की परम्परा के भी वाहक हैं। पिछले कई दशकों से आशुतोष महाराज जी के ब्रह्मचारी शिष्यों में पुरुषों से अधिक ब्रह्मचारिणी ड्डियाँ ही रामकथा, कृष्ण कथा, भागवत कथा आदि के जरिए उनके दिए ‘ब्रह्मज्ञान’ का प्रचार-प्रसार करती रही हैं। इन ब्रह्मचारिणियों से हुई कई दौर की बातचीत के आधर पर आशुतोष महाराज जी के बचपन की एक क्रांतिकारी छवि उभर कर सामने आती है। एक के बाद एक संस्मरण यह दर्शाते हैं कि वे बालपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे। वे हमेशा तर्क से चीजों को समझने का प्रयास करते और अंधविश्वास, जातिवाद व रूढ़िवाद पर करारा प्रहार करते थे, जिसकी उम्मीद किसी छोटी-सी उम्र के बच्चे से शायद ही कोई करता है।

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आशुतोष महाराज जी के जन्म की भी कोई प्रमाणित तिथि मुझे अपने शोध के दौरान प्राप्त नहीं हुई। उनके तथाकथित पुत्र और सतपाल महाराज द्वारा मीडिया में जारी पासपोर्ट की छाया प्रति में उनके जन्म की तारीख 6 अगस्त, 1946 मिलती है, जबकि उनके शिष्यों का कहना है कि महाराज जी ने कई बार चर्चा में बताया है कि 1941-1942 में उनका उपनयन संस्कार हुआ था। इस हिसाब से आशुतोष महाराज जी का जन्म देश की आशादी से पूर्व हुआ था।

यह जो घटना है, वह उस वक्त की है, जब आशु (श्री आशुतोष महाराज जी के बचपन के नाम के तौर पर मैं यही नाम प्रयुक्त कर रहा हूँ, क्योंकि उनका पूर्व नाम कहीं ‘प्रखर’ सुनने को मिला तो कहीं ‘वेद-प्रवक्तानंद’) मुश्किल से सात-आठ साल के थे। एक दिन खेलते-खेलते वे अपने एक मित्र के घर चले गए। वे जिस मित्र के घर गए थे, उसका जन्म दलित जाति में हुआ था। यह देश की आशादी के आसपास की बात है। आज भी देश के अंदर जातिवाद के जहर को देखकर सोचा जा सकता है कि उस समय जातिवाद का शहर कितना उग्र रहा होगा? जब आशु वापस अपने घर लौटे तो माँ से कहा, ‘माँ, आज खाना नहीं खाऊँगा।’ ‘क्यों आज खाना क्यों नहीं खाना है?’ माँ ने पूछा।

‘आज मैं अपने मित्र के यहाँ खाना खाकर आया हूँ।’

‘किस मित्र के यहाँ?’

आशु ने ज्योंही उस मित्र का नाम बताया, माँ भड़क उठीं और उलाहना भरे शब्दों में बोलीं- ‘तो तू उस दलित की रोटी खाकर आ रहा है।’

‘नहीं माँ, मैं दलित की नहीं, गेहूँ की रोटी खाकर आ रहा हूँ!’ बड़ी ही मासूमियत से छोटे आशु ने कहा!

समय के साथ आशु की बुध्दि बहुत प्रखर होती जा रही थी। आशु के एक चाचा जी थे, जो अकसर कहा करते थे- ‘इस संसार में कुछ भी असंभव नहीं है।’ आशु ने सुना तो भागकर गए और टूथपेस्ट की ट्यूब उठा कर ले आए। अपने चाचा जी के ही सामने एक टेबल पर उस ट्यूब को दबाया और सारा का सारा पेस्ट बाहर निकाल दिया। फिर अपने चाचा जी से कहने लगे- ‘चाचा जी, आप कहते हैं न कि ‘Nothing is impossible in this World.’ फिर ज़रा इस पेस्ट को वापस ट्यूब में डालकर तो दिखाओ! चाचा जी आशु की यह बात सुनकर बेहद प्रभावित हुए और कहा- ‘तेरी बुध्दि तो बड़ी तेज है। तेरा नाम तो प्रखर होना चाहिए।’

आज से मैं तुम्हें ‘प्रखर’ नाम से ही पुकारूँगा।’ उस दिन से आशु न केवल अपने घर में, बल्कि अपने गाँव व नाते-रिश्तेदारों में भी ‘प्रखर’ नाम से प्रसिध्द हो गए। किसी को कोई भी समस्या का समाधन ढूँढ़ना होता, प्रखर से पूछा जाता और वह उसका सही-सही समाधन बता भी देते।

आशु का परिवार एक समृध्द परिवार था। उनके घर में नौकर-चाकर तो थे ही, बगीचे में माली भी काम करते थे। एक माली थे, जिनके साथ छोटे आशु का बहुत सारा समय गुजरता था। वह आशु को कहानियाँ सुनाते और आशु उसे बड़े चाव से सुनते। एक दिन आशु अपने माता-पिता के साथ पटना गए। साथ में वह माली भी थे। सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह के जन्म स्थान पटना साहिब के गुरुद्वारा में सभी जब प्रवेश करने लगे तो महिलाओं ने परम्परा के अनुसार अपने सिर पर दुपट्टा रख लिया और पुरुषों ने रुमाल से अपने सिर को ढक लिया। आशु ने अपने सिर को खुला ही छोड़ दिया। माली ने ने जब उन्हें सिर ढकने को कहा तो उन्होंने कहा कि ‘सिर क्यों ढकूँ? इसके पीछे का तर्क क्या है?’

‘इससे वाहेगुरु नाराज हो जाते हैं।’ माली ने कहा।

‘तो इसका मतलब यह हुआ कि फिर हम स्नान भी सिर ढक कर ही करें? क्या पता सिर खुला रखकर स्नान करें तो वाहेगुरु नाराज हो जाएँ!

‘क्या आप अपना सिर ढककर स्नान करते हैं?’ आशु ने माली से उलटा सवाल ही पूछ लिया। छोटे से आशु का यह सवाल सुनकर बुजुर्ग माली को कोई जवाब नहीं सूझा। वह ठगा सा रह गए! उन्होंने आशु के माता-पिता से कहा, आप देखिएगा, यह बच्चा बड़ा होकर अपनी प्रखर बुध्दि से लोगों को राह दिखाएगा!

उन दिनों दरभंगा में एक मौनी बाबा आए हुए थे। थोड़े दिनों में ही उनकी ख्याति आसपास के गाँवों में फैल गई। वे बोलते नहीं थे, लोगों के समक्ष हमेशा मौन रहते थे। लोग बारी-बारी से सुबह-शाम उन्हें श्रध्दा से भोजन कराते थे। एक दिन आशु के परिवार की बारी आई। आशु भी माँ के साथ उस मौनी बाबा के पास पहुँचे। बाबा भोजन करने लगे और आशु कभी उनके आगे, कभी उनके पीछे चक्कर लगाने लग गए! बाबा को घूरते, उन्हें तीक्ष्ण नेत्रों से निहारते और कुछ न कुछ सवाल पूछते जाते। मौनी बाबा परेशान हो उठे। उन्होंने इशारों-इशारों में आशु की माँ को कहा कि अगली बार जब वे आएँ तो इस शैतान बच्चे को अपने साथ लेकर न आएं! अगली बार माँ ने आशु को साफ मना कर दिया कि वे उन्हें मौनी बाबा के यहाँ नहीं ले जाएँगी। लेकिन आशु शिद्द करने लगे। माँ ने उनसे वादा लिया कि वे वहाँ किसी प्रकार की कोई शैतानी नहीं करेंगे। उन्होंने सहमति में सिर दिया दिया। माँ-बेटे जब मौनी बाबा के पास पहुँचे तो नटखट आशु ने पुनः शरारत करनी शुरु कर दी?

‘बाबा, इतना भोजन करते हो, लेकिन बोलते भी नहीं? आखिर भोजन पचता कैसे है? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों के जाने के बाद अपने चेलों से गप्पे लड़ाते हो? बोल लोगे तो क्या हो जाएगा? कोई आसमान तो टूटेगा नहीं? मौन रहने से कौन-सी साधना पूरी हो जाएगी? चलो आप मौन रहो, लेकिन मुझे तो बोलने दो? आँखें क्यों दिखाते हो? मेरी माँ से ऐसा क्यों कहा कि मुझे लेकर न आएं? मैंने तो आपको कुछ कहा भी नहीं? कुछ पूछा भी नहीं?’ ऐसे असंख्य सवालों से बाबा एकदम बौखला उठे और गुस्से से बड़बड़ाते हुए उन्हें भला-बुरा कहने लगे। आशु ने माँ की ओर मुड़कर कहा- ‘कहा था न कि ये कोई मौनी बाबा नहीं हैं। केवल ढोंग किए हुए हैं।’

माँ गुस्से से आग बबूला हो उठीं। उधर बाबा भी अपनी लाठी उठाकर उसे मारने दौड़े। आशु को तो बस बाबा का मुँह खुलवाना था। सो उन्होंने बाबा की जुबान खुलवा दी, और खुद वहाँ से नौ-दो ग्यारह हो गए। इस तरह नन्हे आशु ने बाबा का पाखंड उजागर कर दिया।

एक दिन माँ के मायके से खबर आई कि उनके पिता बहुत बीमार हैं। शायद आखिरी घड़ी है। जितना शीघ्र हो, वे पिता से मिलने चले आएँ। माँ झटपट मायके के लिए रवाना हो गईं। साथ में अपने बेटे आशु को भी ले लिया। आशु के नाना बिस्तर पर लेटे हुए थे। नाती को देखते ही आँखों में चमक आ गई। नाना ने अपने प्यारे नाती के सिर पर हाथ फेरा और कहा- ‘लगता है मेरा आखिरी समय आ गया है। तू कोई भजन सुना दे, क्या पता तेरी आवाज़ की मिठास मुझे कुछ समय के लिए और जीवन दे दे!’ आशु मुस्कुराए और तेज़ स्वर में गाने लगे- ‘छोड़कर संसार जब तू जाएगा, कोई न साथी तेरा साथ निभाएगा!’ इतना सुनना था कि मृत्यु शैय्या पर पड़े नाना गुस्से से भड़क उठे। न जाने कहॉं से अचानक उनमें शक्ति आ गई और उन्होंने आशु को डॉंटते हुए आशु से कहा- ‘चल भाग यहाँ से! खबरदार जो यहाँ दोबारा दिखा!’ कुछ दिनों बाद ही नाना के प्राण पखेरू उड़ गए।

नाना की मृत्यु के बाद उनका श्राध्द कर्म हो रहा था। श्राध्द कर्म में ब्राह्मणों को खिलाने के लिए बुलाया गया था। आशु की प्रखर व जागरूक बुध्दि के कारण दिमाग में फिर से सवाल पैदा होने शुरु हो गए। उन्होंने माँ से पूछा- ‘माँ! श्राध्द नाना का है तो भोजन ये ब्राह्मण क्यों कर रहे हैं?’

‘वह इसलिए कि नाना की आत्मा को शांति मिले। ब्राह्मणों को भोजन कराने से पितरों को तृप्ति मिलती है।’ माँ ने कहा।

‘तो क्या इन ब्राह्मणों का पेट लेटर बॉक्स है कि भोजन इनके पेट में डालो और नाना के पेट तक पहुँच जाएगा?’ बेटे के इस सवाल का माँ कोई जवाब नहीं दे सकीं।

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दरभंगा में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के पास माधेश्वर में मंदिरों का एक परिसर है, जिसमें प्रधन मंदिर माँ काली का है। माँ काली का यह मंदिर श्यामा काली के नाम से मशहूर है। इस मंदिर परिसर की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह दुनिया का एक मात्र परिसर है, जहाँ हर मंदिर एक चिता पर अवस्थित है! दरभंगा महाराज के परिवार के हर सदस्य की चिता पर एक मंदिर निर्मित है!

माँ श्यामा काली का प्रधन मंदिर दरभंगा के पूर्व महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता पर निर्मित है। महाराजा रामेश्वर सिंह माँ काली के बहुत बड़े साधक थे। तंत्र साधना में उन्होंने उच्च अवस्था को प्राप्त किया था। कहा जाता है कि एक बार ‘बिहार का शोक’ कोसी नदी पूरी मिथिला को डुबाने के लिए उमड़ पड़ी थी। उस समय राज दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह ही थे। उन्होंने साधना आरम्भ की और माँ काली से कहा- ‘माँ! या तो मुझे अपने पास बुला ले या फिर मेरी प्रजा को इस कोसी के संकट से उबार ले!’ कहते हैं, उसके बाद कोसी का पानी उतरने लगा। दरभंगा के अभिलेखागार में आज भी तंत्र साधना करते महाराजा रामेश्वर सिंह की कई तस्वीरें उपलब्ध हैं।

अंतिम संस्कार अर्थात् जहाँ चिता जली, उस पर मंदिर बनाने की शुरुआत राजा कामेश्वर सिंह ने सन् 1933 में की। उन्होंने अपने पिता महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता पर श्यामा काली के मंदिर का निर्माण कराया, जो इस परिसर का मुख्य मंदिर है। पहले ही बताया जा चुका है कि रामेश्वर सिंह महान तंत्र-योगी और माँ काली के भक्त थे। लाल रंग से निर्मित यह मंदिर बेहद खूबसूरत है। मंदिर के अंदर माँ काली की 10 फीट की आदमकद प्रतिमा काले रंग के पत्थर से निर्मित है। माँ काली खड़ी हैं और उनके चरण के नीचे शिव लेटे हुए हैं। पूरी मिथिला में माँ श्यामा काली के प्रति लोगों में अटूट श्रध्दा व विश्वास है। मंदिर के नीचे महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता है। मंदिर के बाईं ओर अन्नपूर्णा माता का मंदिर है, जिसके नीचे रामेश्वर सिंह की पत्नी की चिता है। इसी परिसर में सबसे आखिरी दरभंगा राज के महाराजा कामेश्वर सिंह की चिता पर भी मंदिर का निर्माण किया गया है।

आशु अब किशोर हो चले थे। भजन-कीर्तन, सत्संग, कथा में उनका मन रमने लगा था। वे न केवल सुरीला भजन गाते थे, बल्कि हारमोनियम और बाँसुरी भी वे बहुत अच्छे से बजाते थे। खासकर, बाँसुरी वादन में आसपास के इलाके में उनका कोई जोड़ नहीं था। वे अपने एक मित्र के साथ प्रतिदिन शाम को माधेश्वर परिसर स्थित श्यामा काली मंदिर में पहुँच जाते और बाँसुरी बजाते-बजाते अपनी सुध-बुध खो देते थे। मंदिर परिसर में बहुत ही सुन्दर तालाब है, जहाँ अधिकांश संध्या वे अपनी माँ को बैठे या बाँसुरी बजाते हुए मिल जाते थे। श्यामा काली परिसर कहीं बेटे के अंदर वैराग्य न उत्पन्न कर दे, माँ इस बात से चिंतित रहने लगी थी!

माँ एक दिन एक ज्योतिषी के पास पहुँची और आशु की जन्मकुंडली दिखाते हुए पूछा- ‘पंडित जी, इसका भविष्य क्या है? आगे जीवन में यह क्या करेगा?’ पंडित जी ने जन्मकुंडली को देखते हुए कहा, ‘माई, इस कुंडली में तो वैराग्य लिखा है। आज हो या कल, तुम्हारा आशु संन्यासी हो जाएगा और मानवता के कल्याण में स्वयं को समर्पित कर देगा। इसे ज्ञान की उपलब्धि होगी और यह उस ज्ञान को बाँटने के लिए निकल जाएगा।’ इतना सुनना था कि माँ चिंतित हो उठीं। रात में पिता से बात की कि या तो आशु की शादी करवा दी जाए या फिर इसे श्यामा काली मंदिर से कहीं दूर होस्टल में पढ़ने के लिए भेज दिया जाए। आखिर में यह निर्णय हुआ कि आशु को दरभंगा से बहुत दूर आज के उत्तराखंड की राजधनी देहरादून के किसी स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया जाए। इतनी दूर से मंदिर परिसर में लौटने की संभावना भी नहीं रहेगी और पढ़ाई में मन लग जाने पर वैराग्य-भाव भी समाप्त हो जाएगा!

आशु को देहरादून के किसी स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया गया। किशोर आशु को शुरु-शुरु में तो अच्छा नहीं लगा, लेकिन धीरे-धीरे वहां भी उन्होंने मन लगाने के श्रेष्ठ साधन ढूँढ़ ही लिए। देहरादून तो है ही हिमालय की तलहटी में। आशु होस्टल से भागकर भजन-कीर्तन में रमने लगे। वे ज्यादातर रातों को अपने होस्टल से भाग कर मंदिरों में चले जाया करते थे। वहाँ जाकर संतों-महात्माओं के साथ प्रभु चर्चा या शास्त्रार्थ किया करते। लेकिन पीछे होस्टल में किसी को पता न चल जाए, इसलिए अपनी टेबल के सामने एक डंडे पर अपने कोट और हैट को इस तरह टांग दिया करते थे जिससे ऐसा लगता कि जैसे कोई बैठ कर पढ़ रहा हो। टेबललैंप भी जला दिया करते। वार्डन जब भी रूम खोलकर देखता तो आशु को को पढ़ता हुआ ही पाता और बड़ा प्रभावित हो जाता-‘वाह! यह लड़का तो पूरी-पूरी रात पढ़ता है।’

एक रात ऐसे ही आशु मंदिर गए हुए थे। सुबह होने से पहले जब दीवार पफांद कर वापस होस्टल के अंदर कूदे, तो बड़ी ज़ोर की ‘धम्म’ की आवाज़ हुई। वार्डन को लगा कि कोई चोर होस्टल में घुस गया है। वह तेज़ी से उस आवाज़ की ओर दौड़ा और ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगा- ‘चोर-चोर...।’ आशु ने भी दाएँ देखा, बाएँ देखा, पर जब कहीं भी भागने की जगह नहीं मिली तो वार्डन के पीछे-पीछे हो लिए और चोर को ढूँढ़ने का अभिनय करते हुए खुद भी ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगे- ‘चोर! चोर! चोर!’

एक दिन आशु के मौसा स्कूल पहुँचे। देखा, आशु होस्टल में नहीं हैं। पता चला, वे अकसर साधु-संतों की संगत करने के लिए होस्टल से निकल जाया करते हैं। मौसा वहीं रुककर उनका इंतशार करने लगे। आशु शाम में लौटे, तो पाया कि होस्टल के बरामदे में मौसा इंतशार कर रहे हैं। उन्हें देखते ही मौसा बिपफर पड़े, कहा- ‘माँ ने कितनी मेहनत से तुम्हें यहाँ पढ़ने भेजा है और तुम यहाँ भी साधु-संतों के संगत में पड़ गए? सोचो तुम्हारी माँ के दिल पर क्या बीतेगी? यही सब करना था, तो दरभंगा क्या बुरा था? इतना खर्च कर तुम्हें यहाँ पढ़ने के लिए भेजा गया है। कम से कम माता-पिता की भावनाओं का सम्मान करो।’

आशु ने कहा- ‘मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं पढ़ाई में अपना मन लगाऊँगा, लेकिन यह बतलाइए कि मुझे कहाँ तक पढ़ना होगा?’

मौसा ने कहा- ‘तुम पहले स्नातक कर लो, फिर परास्नातक कर लो, फिर पी.एच.डी. कर लो, उसके बाद प्रोफेसर हो जाओ और फिर जो मन में आए वो करो। उसके बाद परिवार वाले तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे।’

‘ठीक है मौसा। मैं प्रोफेसर होने तक आप लोगों की बात मानता हूँ, लेकिन उसके बाद मुझे मेरे मन की आशादी चाहिए।’

मौसा ने सोचा कि इतने लंबे समय के बाद आशु के सिर से वैराग्य का भूत उतर जाएगा। उन्होंने कहा- ‘ठीक है।’

आशु ने कहा- ‘याद रखना मौसा। बाद में आप पलट न जाना।’

इसके बाद आशु मन लगाकर पढ़ाई करने में जुट गए। आशु के स्कूल के दिनों की एक घटना है। उनके एक अध्यापक ईसाई थे। एक दिन वह कहने लगे कि परमात्मा देखा नहीं जा सकता है। वह कहने लगे कि परमात्मा को आज तक न कोई देख सका है और न कोई देख सकता है। आशु कक्षा में खड़े हो गए। उन्होंने पूछा, ‘सर क्या आप बाइबिल में विश्वास करते हैं?’ शिक्षक ने कहा, ‘हां क्यों नहीं? ?

आशु ने फिर पूछा, ‘क्या आपने बाइबिल को पढ़ है?

शिक्षक ने कहा, ‘अनेक बार।’

‘फिर आपने ठीक से नहीं पढ़ा!’ आशु ने तपाक से कहा!

शिक्षक ने गुस्से में कहा, ‘यह क्या बकवास है? तुम कहना क्या चाहते हो?’

‘सर बाइबिल में ही लिखा है कि ईश्वर को देखा जा सकता है! और आप कह रहे हैं कि ईश्वर को कभी नहीं देखा जा सकता। इसे किसी ने नहीं देखा है। फिर बताइए आप सही हैं या बाइबिल?’ आशु ने जोर देकर कहा।

‘क्या तुम इसे साबित कर सकते हो कि बाइबिल में यह लिखा है कि ईश्वर देखा जा सकता है? शिक्षक ने बेहद गुस्से में कहा।

आशु ने कहा, ‘Blessed are pure in heart for they shall see God.’ क्या यह बाइबिल में नहीं लिखा है? आप बताइए? इसका क्या मतलब है? इसका यही मतलब है कि ‘धन्य है वो आत्मा जो पवित्र हैं, क्योंकि वो परमात्मा को देखेंगे!’

उस ईसाई शिक्षक को तत्काल कोई जवाब नहीं सूझा। लेकिन बाद में उसने आश को अपने कमरे में बुलाया और कहा, ‘कहने को मैं तुम्हारा शिक्षक हूं, लेकिन आज तुमने मुझे वह शिक्षा दी, जो इतने साल तक बाइबिल को पढ़ने के बाद भी मुझे नहीं मिली थी! मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूं कि तुमने बाइबिल का सच्चा अर्थ मुझे समझाया।’ अगले दिन उस शिक्षक ने पूरी कक्षा के के सामने न केवल आशु के सम्मान में ताली बजायी, बल्कि अपनी गलती भी मानी।

स्कूल के दिनों के एक मित्र को याद करते हुए आशुतोष महाराज जी एक घटना अकसर सुनाया करते थे, क्योंकि उनकी बात नहीं मानने के कारण उस मित्र को अपनी जान से हाथ धेना पड़ा था। महाराज जी का एक दोस्त था। वह डॉक्टर बनना चाहता था और जीवविज्ञान लेकर पढ़ना चाहता था। आशु उसे बार-बार मना करते थे और कहा करते थे कि ‘देखो, तुम जीव विज्ञान लेकर पढ़ाई मत करना। तुम्हारे भविष्य के लिए यह ठीक नहीं है।’ पर वह तो आशु की बात को मजाक में टाल दिया करता था। उसने आशु की बात नहीं मानी और उसने जीव विज्ञान विषय ही लिया। एक रात को वह एक मानव कंकाल को टेबल पर लिटा कर उसका अध्ययन कर रहा था। तभी एक चूहा उछलता हुआ आया और चुपके से मानव कंकाल की खोपड़ी में घुस गया। जैसे-जैसे चूहा उछलता, वैसे-वैसे वह खोपड़ी भी ऊपर-नीचे उछलने लगी। आशु के उस दोस्त ने जैसे ही यह देखा, तो वह इतना ज़्यादा डर गया कि उसे वहीं हृदयाघात हो गया और उसकी मृत्यु हो गई।

स्कूल में ही आशु के एक मित्र बहुत अच्छा संगीतज्ञ थे। उनके पिताजी भी संगीतज्ञ थे। बुजुर्ग होने के कारण उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं रहती थी। एक दिन अपने पिता के व्यवहार से तंग आकर वह मित्र अपना आपा खो बैठा और जूता निकाल कर उन्हें मारने लगा। उसी समय आश उसके घर उससे मिलने पहुंचे। देखा मित्र अपने पिता की पिटाई जूते से कर रहा है।

आशु ने कहा, ‘हां... हां! यह क्या कर रहे हो?

मित्र ने कहा- ‘अरे क्या आप नहीं जानते, जो पूछ रहे हैं? ये बहुत तंग करते हैं, बहुत ज़्यादा परेशान करने लगे हैं।’

आशु ने कहा- ‘तो क्या तुम इन्हें जूते से मारोगे? जानते हो इसका नतीजा क्या होगा? यह मत सोचो कि तुम हमेशा ही ऐसे जवान रहोगे। ऐसे ही तंदरुस्त रहोगे। तुम अपने ऊपर अहंकार मत करो। अपने यौवन पर गुमान मत करो। एक दिन तुम्हारी भी यही स्थिति होनी है। तुम पर भी बुढ़ापा आना है। जब तुम बुजुर्ग हो जाओगे, तो तुम्हारा बेटा तुम्हें भी ऐसे ही जूते लगाएगा। तुम एक जूता लगा रहे हो, वह तुमको चार जूते लगाएगा। याद रखना इसे!’

मित्र बोला- ‘आप यह क्या कह रहे हैं? आपको इनकी गलती दिखाई नहीं दे रही? ये क्या-क्या गलती कर रहे हैं?’

तब आशु ने कहा- ‘गलती करना तो इनका स्वभाव है। बुजुर्ग और बच्चा एक समान होता है। क्या तुमको इनकी फिक्र नहीं है? तुमको नहीं पता कि इन्हें किस हालत में रखना चाहिए? यह तो भारतीय संस्कृति की अवहेलना करना है।’ आशुतोष महाराज जी अकसर कहा करते, भारतीय संस्कृति की अवहेलना करने वाला अवनति को ही प्राप्त होगा।

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आशुतोष महाराज जी हिंदी, अंग्रेज़ी व संस्कृत सहित दुनिया की कई भाषाओं के ज्ञाता हैं। उनके अनेक शिष्य इसके गवाह हैं कि वे हर आगंतुक से उसकी ही मातृभाषा में बात करते हैं। कोरिया, जापान, चीन, जर्मनी में भी उनके अनुयायी हैं और उन्हें उनके साथ उनकी भाषा में बात करते हुए हशारों शिष्यों ने सार्वजनिक रूप से सुना है। कहते हैं, उनकी अंग्रेज़ी अमेरिकन उच्चारण वाली अंग्रेज़ी है। उनके समाधि लेने से पहले इस पुस्तक का लेखक निजी तौर पर उनसे मिलने उनके पंजाब खोड़ गाँव स्थित दिव्य धम आश्रम गया था, लेकिन उस वक्त उन्हें नहीं सुन सका। वे अपने शिष्यों को दर्शन देने के लिए बाहर आए थे और फिर कुछ देर बाद ही अपनी कुटिया में चले गए। उसके बाद फिर उनसे कभी मिलना नहीं हो सका। लेकिन उस दिन भी यह जानकारी मिली कि वह एक जापानी भक्त के साथ उसकी ही भाषा में बात कर रहे हैं! सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ था कि दुनिया की हर भाषा पर उनका समान रूप से अधिकार है।

आशुतोष महाराज जी की विद्यालयी शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय की शिक्षा का प्रमाणपत्र न तो मुझे उनके कथित बेटे के परिवार में मिला और न ही पंजाब से लेकर दिल्ली तक के आश्रमों में ही उनके शिष्यों की ओर से यह उपलब्ध् कराया जा सका। हाँ, उनके शिष्यों ने यह सूचना ज़रूर दी कि सन् 1983 के आसपास श्री आशुतोष महाराज जी पटियाला में जिस कौशल्या माता के घर में रहकर अपने ज्ञान के प्रचार-प्रसार में लगे हुए थे, वहाँ से ही एक रात उनके सभी सर्टिफिकेट और तस्वीरें चोरी हो गई थीं। कौशल्या माता इसकी पुष्टि भी करती हैं। कौशल्या माता के यहां से ही उन्होंने पंजाब में ‘ब्रह्मज्ञान’ की शिक्षा का प्रचार-प्रसार शुरू किया था। कौशल्या माता और उनके परिवार ने मौजूदा दौर की बहुत सारी जानकारियां साझा कर इस पुस्तक के लेखन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की हैं।

शोध के दौरान दरभंगा, पटना और मधुबनी में कुछ लोगों ने मुझे आशुतोष महाराज जी के इलाहबाद विश्वविद्यालय से तो कुछ लोगों ने कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से स्नातक व उसके आगे की पढ़ाई करने की बात कही है। तथापि उनके उनके शिष्यों से प्राप्त जानकारी के अनुसार महाराज जी ने जर्मनी के हैडेलबर्ग विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. तक की पढ़ाई की थी और कुछ समय तक अतिथि प्रोफेसर के रूप में ऑक्सपफोर्ड विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया था।

देहरादून में स्कूली शिक्षा के बाद उनके घर वालों ने उन्हें जर्मनी पढ़ाई के लिए भेज दिया। उस वक्त तक आशु को संस्कृत का ज्ञान नहीं था। जर्मनी में पढ़ने के दौरान वे एक दिन अपने एक मित्र के साथ उसके पिता से मिलने गए। आशु ने जब उनके घर में प्रवेश किया तो देखा कि उनकी दीवारों पर वेदों-उपनिषदों के छोटे-छोटे श्लोक लिखे हुए हैं। यही नहीं, मित्र के माता-पिता आपस में संस्कृत में बात कर रहे थे! यह सुनकर उन्हें बेहद आश्चर्य भी हुआ और ग्लानि भी हुई कि एक भारतीय होकर वे तो अंग्रेज़ी और जर्मनी में बात करते हैं और एक जर्मन दम्पत्ति कितनी सहजता से संस्कृत में बात कर रहे हैं!

अतः आशु ने वहीं जर्मनी में श्रीमान विश्वनाथ मुखर्जी से संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की। और महज एक महीने में संस्कृत में वार्तालाप करने लगे। बहुत दिनों बाद एक बार दिल्ली के पीतमपुरा स्थित आश्रम में विश्वनाथ मुखर्जी आए तो महाराज जी अपने बगल में एक दूसरा आसन उनके लिए लगवाया। फिर महाराज जी ने वहां उपस्थित अपने सभी शिष्यों को बताया कि श्री विश्वनाथ मुखर्जी उनके संस्कृत के गुरु हैं, जिनसे जर्मनी में केवल एक माह में उन्होंने संस्कृत की शिक्षा हासिल कर ली थी।

आशुतोष महाराज जी जब जर्मनी में रह रहे थे, उस वक्त दिखने में बहुत आकर्षक थे। उनके लंबे-लंबे बाल थे। नाक नुकीली, गहरी आँखें, चेहरे पर मुस्कुराहट और सुगठित शरीर उन्हें एक आकर्षक आभा प्रदान करता था। वहाँ जर्मनी में उनका एक मित्र था, जिसकी माँ आशु को जब भी देखती, कहती- ‘यह मेरा जीसस है!’ आशु होस्टल में रहते थे और अकसर उस मित्र के यहाँ जाया करते थे। उनके घर पहुँचते ही मित्र की माँ, उनकी आवभगत करती, अपने हाथों से भोजन पकाती और उन्हें खिलाती और ‘मेरा प्यारा जीसस’ कह कर उन्हें पुकारा करती। मित्र यह सब देखकर जल-भुन जाता। वह कहता- ‘क्या माँ, तुम भी बेफिशूल की बातें करती हो? कहाँ जीसस और कहाँ यह मेरा साधरण मित्र!’ लेकिन माँ कहती-‘तू अभी इसे नहीं जानता, यह मानव रूप में जीसस ही है!’

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युवा आशु विदेश में विदेशी मित्रों के साथ।

एक दिन आशु अपने मित्र के साथ घर पहुँचे तो देखा उसकी माँ ने अपने पूजा स्थल में जीसस के साथ उनकी एक तस्वीर लगा रखी है। मित्र ने तो जैसे ही यह देखा आगबबूला हो उठा और माँ के साथ-साथ आशु को भी खरीखोटी सुनाने लगा। उसने कहा- ‘चले जाओ मेरे घर से और फिर कभी यहाँ कदम मत रखना!’ इसके बाद उसने माँ के पूजा स्थल से आशु की तस्वीर हटाकर फेंक दी। आशु बिना कोई प्रतिक्रिया दिए वहाँ से अपने हॉस्टल लौट आए।

उसी रात उस मित्र को तेज़ बुखार हो गया। वह असहनीय पीड़ा से तड़पने लगा। दूसरे-तीसरे दिन भी बुखार नहीं उतरा। डॉक्टर ने दवा भी दी, लेकिन दवा का कोई असर नहीं हो रहा था। माँ रोने लगी और कहा- ‘यह सब तेरी करनी का ही फल है। तूने मेरे जीसस का अपमान किया था, इसीलिए तुझे सजा मिल रही है।’

दोस्त ने कराहते हुए अपनी माँ से कहा- ‘मुझे विश्वास नहीं होता!’

‘हाँ तू देखना। उसके आते ही तेरा बुखार उतर जाएगा, तबीयत ठीक हो जाएगी।’ कहते हुए बदहवास माँ आशु के हॉस्टल की ओर चल पड़ी।

‘मेरे प्यारे जीसस! जल्दी मेरे साथ चलो। तुम्हारा दोस्त जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा है। तुम ही अब उसे ठीक कर सकते हो!’ माँ ने हॉस्टल पहुँचते ही आशु से कहा।

‘क्या कह रही हो माँ? मैं एक साधरण इंसान हूँ। तुम मुझे जीसस कहती थीं, अब मानने भी लगीं। यह गलत बात है। तुम्हारा असली जीसस तुमसे नाराज हो जाएगा।’

‘नहीं बेटे, मैं मानती नहीं, जानती हूँ कि तुम ही मेरे जीसस हो। बस एक बार मेरे घर चलो। अपने दोस्त को देख लो। मैं तुम्हें अधिक देर तक नहीं रोकूँगी वहाँ।’

माँ की जिद्द के आगे आशु ने हार मान ली और उनके साथ अपने बुखार से पीड़ित दोस्त से मिलने चले गए। दोस्त बिस्तर पर पड़ा था। उसकी आँखें बंद थीं। मुँह से हल्की-हल्की कराहट की आवाज़ आ रही थी। आशु ने उसके सिर पर हाथ रखा। उसका शरीर तप रहा था। आशु धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। दोस्त ने आँखें खोलीं। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। आशु उसके सिर पर हाथ फेरते रहे। अचानक माँ ने देखा कि उनके बेटे का बुखार उतर रहा है। और देखते ही देखते उसका बुखार उतर गया!

माँ ने कहा- ‘देखा न! मैं कहती थी न कि यह मेरा जीसस है!’

दोस्त ने आशु का हाथ अपने हाथ में थाम लिया। उसकी आँखों में आँसू थे। लेकिन यह क्या, आशू का हाथ तप रहा था!!

दोस्त ने कहा- ‘अरे, देखो तुम्हें भी तो बुखार है!!’

‘नही, कुछ नहीं। मैं बाद में आऊँगा।... माँ को भी कह देना कि मैं फिर कभी आऊँगा।’

माँ तब रसोई में आशु का प्रिय नाश्ता बनाने गई थी, जो वह अकसर बनाती थी जब भी आशु उनके यहाँ आते थे। माँ जब तक रसोई से बाहर आती, आशु जा चुके थे।

हॉस्टल में पहुँचते ही आशु कराहने लगेा। दोस्त के सिर पर अपने जिस हाथ को प्यार से फेरा था, यह तप रहा था, दर्द से फट रहा था! धीरे-धीरे बुखार ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया। वे कई दिनों तक तेज़ बुखार में तपते रहे, लेकिन धीरे-धीरे फिर ठीक हो गए। आशु के हाथ फेरते ही दोस्त का बुखार तो उतर गया था, लेकिन उसने आशु को अपनी चपेट में ले लिया था!

पूरब और पश्चिम के सिध्द पुरुषों द्वारा दूसरे के शरीर का रोग अपने शरीर में धरण करने की अनेक घटनाएँ इतिहास में हमें मिलती हैं। पश्चिम में ईसा मसीह, भारत में महात्मा बुध्द, रामकृष्ण परमहंस आदि में इस सिध्दि के होने और उससे जुड़े अनेक उदाहरणों से साहित्य भरा पड़ा है। रामकृष्ण परमहंस का देहावसान गले के कैंसर के कारण हुआ था। इस पर उनके शिष्यों का यही कहना था कि उन्होंने विषपायी नीलकंठ शिव के समान दूसरे की बीमारी को अपने गले में धारण कर लिया था!

पश्चिम के महान संगीतज्ञ, उपन्यासकार मनीषी रोमां रोलां ने ‘रामकृष्ण की जीवनी’ में लिखा है- ‘कुछ प्रसिध्द रहस्यवादी ईसाइयों की तरह वे (रामकृष्ण) भी दूसरों की बीमारी अपने ऊपर लेकर उन्हें स्वस्थ कर देते थे। एक दिव्य-दर्शन में रामकृष्ण ने देखा कि उनका सम्पूर्ण शरीर पफोड़ों से... दूसरे के पापों से भरा हुआ है। वे दूसरों के कर्मों को अपने ऊपर ले लेते थे। और उनकी यह अंतिम व्याधि (गले का कैंसर) उसी का परिणाम थी। वे मानवता के पापों का बोझ अपने ऊपर ओढ़ रहे थे।’ रोमां रोला ने लिखा है- ‘अपने शरीर को दूसरों की व्याधि को ग्रहण करने तथा पवित्रता की एक विशेष मात्र तक पहुँच जाने पर उन्हें रोगमुक्त करने का विचार भारतवासियों के लिए बहुत प्राचीन है।’ दूसरों की व्याधि को अपने शरीर में धरण करने का वर्णन महाभारत के आदि पर्व से लेकर महात्मा बुध्द एवं चैतन्य महाप्रभु के जीवन में भी देखने को मिलता है।

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बचपन से ही आशु की प्रज्ञा अध्यात्म की ओर उन्मुख थी। मित्र की व्याधि को अपने शरीर में हस्तांतरित होने को उन्होंने ध्यान से देखा और अब वे उस ज्ञान की तलाश में जुट गए, जो उनके जीवन के लिए लक्ष्य की पूर्ति हेतु पहला कदम था। ज्योतिषी की भविष्यवाणी सही होने लगी थी। आशु अध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े थे। उन्होंने समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया। फिर वह ज्ञान की खोज में निकल पड़े। उन्होंने यह दिखला दिया कि शास्त्रों को पढ़ने से परमात्मा नहीं मिलता है।

जिस दिन जर्मनी से भारत के लिए उन्होंने प्रस्थान किया, उसी दिन उन्होंने अगले पड़ाव के रूप में हिमालय का चित्र अपने मन में उकेर लिया! दिल्ली के हवाई अड्डे पर जब वे उतरे तो मुस्कुरा उठे! माँ-पिता-मौसा-मौसी-चाचा, सभी सामने खड़े थे, लेकिन उनमें से किसी ने आशु को नहीं पहचाना! परिजन किसी हैट-टोप लगाए, लंबे विदेशी परिधन से सुसज्जित युवा का ख्वाब मन में सजाए थे। लेकिन जो सामने खड़ा था, उसने धेती-कुर्ता पहन रखा था और उनके माथे पर चंदन का त्रिपुंड लगा था।

‘पहचाना नहीं माँ ? मैं हूँ तुम्हारा आशु!’

माँ सहित परिवार के सभी सदस्यों ने चौंक कर उस धोती-त्रिपुंड वाले युवक को देखा। हाँ, वे आशु ही थे! घर वाले ठगे से उन्हें देख रहे थे और वे उन्हें ठगा देखकर मुस्कुरा रहे थे!

‘क्यों मौसा, आपने ही तो कहा था न कि पी.एच.डी. करो, प्रोफेसर बनो, फिर अपने मन की करना। मैंने पी.एच.डी. भी कर ली, वहाँ के विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर भी रहा। अब मुझे अपने मन के करने की आशादी है?’ आशु ने अपने मौसा की ओर मुड़ते हुए पूछा।

‘लेकिन यह क्या? यह क्या वेशभूषा धरण कर रखी है तुमने?’ पिता ने कहा।

‘यही तो मेरी आशादी है। मेरी आत्मा समृध्द हो चुकी है। मैं जान गया हूँ कि यात्रा अंदर की ओर करनी है, न कि बाहर की ओर। बाहरी दिखावा केवल बाहरी यात्रा के लिए होता है। मेरी भीतर की यात्रा प्रारंभ है, यह वेशभूषा भी इसी का प्रमाण है।’ आशु ने कहा।

घरवाले दुःखी मन से आशु को लेकर अपने घर दरभंगा के लिए एयरपोर्ट से निकल पड़े। उन्होंने सोचा था कि बेटा विदेश पढ़ने गया है। जर्मन बनकर लौटेगा, लेकिन किसने उम्मीद की थी कि वह संन्यासी का परिवेश धरण कर उन्हें पूरी तरह से निःशस्त्र कर देगा! आशु ने अपने परिजन के स्वप्नों को एक पल में धराशायी कर दिया था!

हाँ, एयरपोर्ट पर निकलते ही एक घटना घट गयी, जिसने वैराग्य के भाव को और तीव्र करने में आशु की मदद की। वे एयरपोर्ट से निकल ही रहे थे कि त्रिपुंड-धेती वाला पंडित समझ एक चोर उनके हाथ से अटैची लेकर भाग खड़ा हुआ। घरवाले हा-हा करते रहे, लेकिन वह रपूफचक्कर हो गया। आशु बिना समय गंवाए उसके पीछे भागे। वे युवा थे। शरीर से बलिष्ठ थे। दौड़ने में कुशल थे। उनकी मजबूत भुजाओं और मजबूत टाँगों पर चोर ने शायद गौर नहीं किया था! पलक झपकते ही आशु उसके निकट पहुँच गए और उसके चेहरे पर एक घूंसा जड़ दिया। घूंसा पड़ते ही चोर ज़मीन पर धराशायी हो गया। आशु ने उसे कॉलर से पकड़ कर उठाया और पूछा- ‘ईश्वर ने इतना स्वस्थ शरीर दिया है, फिर चोरी-चकारी क्यों करते हो? कोई सम्मानित कार्य क्यों नहीं करते?’

‘भाषण देना बहुत आसान है। कभी एक दिन भूखे रहकर देखो, तुम भी चोरी के रास्ते पर चल पड़ोगे।’ चोर ने खुद को छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा।

‘नहीं, भूख मुझे कभी इतना दुर्बल नहीं कर सकती कि मेरा मन चोरी जैसे घृणित कर्म के लिए विवश हो जाए।’ आशु का जवाब था।

आशु ने तत्काल अपनी अटैची खोली और उसमें से अपने जरूरी कागजात निकाल कर कपड़े-पैसे सहित वह अटैची चोर को थमा दी और कहा- ‘लो इसमें पर्याप्त रुपए हैं। तुम इससे कोई भी छोटा व्यवसाय शुरु कर सकते हो। और हाँ, यह घृणित कर्म आज से ही छोड़ने का वादा तुम मुझसे करो।’ चोर हक्का-बक्का था!

इससे पहले कि चोर कुछ समझता, आशु उसे अटैची थमाकर अपने परिवार वालों की ओर चल पड़े। मौसा ने कहा- ‘तुमने चोर को तो पकड़ लिया था, फिर उसे अटैची थमा कर क्यों आ गए?’

‘बस, मौसा आपके ही कहे अनुसार अपनी मर्शी का मैं कर आया!’ मुस्कुराते हुए आशु ने जवाब दिया।

‘इससे बहस करना ही बेकार है। चल, अब घर चल।’ माँ ने दुःखी मन से कहा।

कुछ दिन दरभंगा में रुककर आशु ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। वहाँ भारतीय संस्कृति और भारतीय ज्ञान को लेकर उन्होंने संगोष्ठियां करना आरम्भ किया। जर्मनी में उनके साथ पढ़े कई मित्र दिल्ली में रहते थे। इन मित्रों के सहयोग से ही उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के व अन्य कई सभा-सेमिनारों में भारतीय वैदिक ज्ञान पर प्रकाश डाला। सुटिड-बूटिड अभिजातवर्गीय सभा-सेमिनारों में भी वे धेती-त्रिपुंड में ही जाते थे। पहल अभिजात वर्ग उन्हें हेय दृष्टि से देखता था, लेकिन जब धराप्रवाह अंग्रेज़ी में उनका संभाषण सुनता तो मुग्ध् हो उठता। जर्मनी में पढ़े-लिखे एक युवक को वैदिक संस्कृत में बोलता सुनकर उन्हें विश्वास नहीं होता! आशु एक के बाद एक सभा-गोष्ठियों के जरिए भारतीय ज्ञान परम्परा का बीज भारत में बोते चले जा रहे थे।

फिर एक दिन अचानक आशु को एक तार मिला कि तुम्हारी बहन बहुत बीमार है। वे सबकुछ छोड़कर घर की ओर चल पड़े। आशु अपनी बहन से बहुत स्नेह करते थे। उससे उन्हें बहुत प्यार था। घर पहुँचे तो देखा बहन बहुत बीमार है। वह तेज़ बुखार से जल रही थी। डॉक्टरों के इलाज का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था। अचानक एक रात वह इस दुनिया को छोड़कर चल बसी।

आशुतोष महाराज जी ने जब नूरमहल के छोटे से आश्रम से ‘विश्व-शांति’ का अभियान शुरु किया तो वहाँ एक बहन थीं, जो प्रतिदिन उन्हें भोजन कराती थीं। वह बहन (उन्होंने अपना नाम प्रकाशित करने से मना किया है)। आशुतोष महाराज जी के घर छोड़ कर संन्यास के मार्ग पर निकल जाने की वह घटना बताती हैं, जो उनके कुछ शुरुआती शिष्यों को ही पता है। बहन बताती हैं, ‘महाराज जी अक्सर अपनी उस बहन को लेकर भावुक हो जाते थे। वे कहते थे कि बचपन से लेकर जर्मनी तक में जो वैराग्य मेरे अंदर बीज रूप में पड़ा था, अचानक बहन की मृत्यु के बाद वह अंदर ही अंदर वटवृक्ष बन गया। संसार बिल्कुल असार नज़र आने लगा। दुःख से मुक्ति का कोई उपाय नज़र नहीं आ रहा था। तब मेरी अंतरात्मा ने आवाज़ दी कि ईश्वर को पाने के बाद ही इस दुःख से हमेशा के लिए मुक्ति संभव है। यह संपूर्ण जगत केवल दुःख का ही विस्तार है। शंकराचार्य ने जिसे ‘माया’ कहा है, वह माया ही इस दुःख का मूल कारण है। जब तक पूर्ण गुरु से ज्ञान नहीं मिलेगा, तब तक शायद माया का यह पर्दा मुझे घेरे ही रहेगा। यही सोचते-सोचते मैंने घर छोड़ने का निर्णय कर लिया और एक दिन बिना किसी को कुछ बताए मैं सच्चे गुरु की तलाश में घर से निकल गया।’

हां, घर छोड़ते वक्त उनका क्रांतिकारी स्वरूप एक बार फिर से घरवालों के समक्ष प्रकट हो गया! आशु के एक चाचा जी राजनेता थे। वे लोगों का बहुत शोषण किया करते थे। जनता को काफी परेशान करते थे। इसलिए आशु को वे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते थे। उन्होंने उन्हें बहुत बार समझाया भी था कि ‘देखिए, यह अच्छी बात नहीं है। आप लोगों को ऐसे दुःखी मत किया कीजिए।’ पर वे नहीं माने। कुछ ही दिनों बाद चुनाव आने वाले थे। चाचा जी ये जानते थे कि लोग आशु को बहुत मानते हैं, उन पर बहुत विश्वास करते हैं, इसलिए वे महाराज जी के पास आए और बोले- ‘बेटा, तुम्हारी बात तो हर कोई मानता है। इसलिए आगे आने वाले चुनाव के लिए तुम मेरा प्रचार-प्रसार करो। चुनाव जीतने में मेरी मदद करो।’ आशु ने कहा- ‘बिल्कुल नहीं! आपको किसने कहा कि चुनाव जीतने में हम आपकी मदद करेंगे? हम कभी असत्य का साथ नहीं देते। और हाँ, हम आपको पहले ही बता देते हैं कि आप ये चुनाव ज़रूर हार जाओगे।’ चाचाजी ने सुना तो गुस्से में वहाँ से पैर पटकते हुए चले गए।

आशु यहीं नहीं रुके। घर छोड़ने से पहले गाड़ी में घूम-घूमकर चारों तरफ अपने चाचाजी के भ्रष्ट होने की बात फैला दी। लोगों ने पूछा- ‘अरे, वे तो तुम्हारे ही परिवार के हैं, फिर तुम उनके बारे में ऐसा क्यों कह रहे हो?’ आशु ने कहा- ‘तो क्या हुआ अगर वे हमारे परिवार से हैं। पर नेता तो भ्रष्ट हैं न! इसलिए उन्हें वोट मत दीजिएगा। किसी अच्छे नेता को अपना वोट देना जो आपके लिए कुछ अच्छा कर सके, राष्ट्र के उत्थान के लिए कुछ करे।’ थोड़े दिनों बाद जब चुनाव का नतीजा आया तो चाचाजी बुरी तरह हार चुके थे। आशु तब तक ज्ञान की खोज में घर-बार छोड़कर निकल चुके थे!

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