अध्याय-4

अशांत पंजाब में शांति दूत बनकर पहुंचे आशुतोष

पं जाब के लिए 1980 और 1990 का दशक अशांति का काल था। 1970 के दशक के दौरान भारत की हरित क्रांतिने पंजाबी समुदाय को बेहद समृध्द बनाया। हरित क्रांति में योगदान देने बड़ी संख्या में बिहारी मज़दूर पंजाब पहुँचे। पंजाब में बिहारी मज़दूरों का आना-जाना आम हो गया, वहाँ बसना आम हो गया। नए धनाढ्य बने पंजाबियों के एक अतिवादी वर्ग ने गरीब हिंदू बिहारी मज़दूरों को बाहरी माना! उनकी हिंदी भाषा को पंजाबी भाषा-भाषी जीवन में जबरदस्ती की घुसपैठ माना! धीरे-धीरे इन बिहारी मज़दूरों पर छिटपुट हमले होने लगे। ‘प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा’ पुस्तक के लेखक अरविंद मोहन ने लिखा है- “पंजाब के कुछ सिख उग्रपंथियों ने अपने उद्देश्य को हासिल करने के लिए सबसे पहले हिंदू-सिखों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की, उसका पहला शिकार बने थे-बिहारी मज़दूर। जालंध्र रेडियो के सामने पफुटपाथ पर सोए बिहारी मजदूरों पर मोटरसाइकिल सवार उग्रवादियों ने अंधधुंध गोलियाँ बरसाई थीं और उन्हीं मोटरसाइकिलों पर वे ‘गायब’ हो गए थे।... पंजाब की इस ‘लड़ाई’ से दूर-दूर तक कोई मतलब न रखने वाले सैकड़ों बिहारी मज़दूर इस मारकाट की बलि चढ़ गए थे। उनका कसूर सिर्फ इतना था कि अपना पेट भरने,अपने परिवार का पालन करने लायक मज़दूरी कमाने के लिए वे अपना घर छोड़कर पंजाब आए थे।”

पंजाब में आतंकवाद की शुरुआत की चर्चा करते हुए बीबीसी ने भी अपनी एक रिपोर्ट में लिखा था-“मोटरसाईकिल पर सवार अज्ञात बंदूकधारियों ने पहले छिटपुट और फिर कई बड़ी हत्या की वारदातों को अंजाम देना शुरु किया। सितंबर 1981 में ‘हिंद समाचार-पंजाब केसरी’ समूह के संपादक लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई। माहौल बिगड़ता चला गया और इसी के साथ सिख-हिंदू रिश्तों में तल्खी भी बढ़ती गई। जालंधर, तरन तारन, अमृतसर, गुरदासपुर, फरीदकोट और कई अन्य जगहों पर हिंसा हुई।” दरअसल सिख-हिंदू और फिर पंजाबी-हिंदी विवाद के कारण ही ‘हिंद समाचार-पंजाब केसरी’ समूह के संपादक लाला जगत नारायण की उग्रवादियों ने हत्या कर दी थी। वह पंजाब में गुरुमुखी के साथ-साथ हिंदी की देवनागरी लिपि के समर्थन में अपने अखबार के ज़रिए आंदोलन चला रहे थे, जिस कारण अतिवादियों ने उनकी हत्या कर दी और सिख-हिंदू संबंध में खटास आती चली गयी।

वैसे देखा जाए तो पंजाब में तनाव की शुरुआत अकाली-जनता पार्टी सरकार के कार्यकाल के दौरान ही 13 अप्रैल 1978 में हो गई थी। बीबीसी के अनुसार, “अमृतसर में निरंकारी पंथ का एक सम्मेलन हो रहा था जिसके दौरान अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच झड़प हुई थी जिसमें 13 अकाली कार्यकर्ता मारे गए थे। इसके बाद रोष दिवस के दौरान सिखों द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शन में धर्म प्रचार संस्था के प्रमुख जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।”

इसके बाद भिंडरांवाले ने अलग पंजाब की मांग उठाते हुए सिखों के साथ कथित तौर पर भेदभाव के मुद्दे को हवा देना आरंभ किया, जिससे सिखों में उसकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई। बीबीसी के अनुसार, “अकाली दल 1973 में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित कर चुका था जिसके तहत पार्टी चाहती थी कि वेफंद्र सरकार रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर नियंत्रण रखकर अन्य विषयों पर पंजाब को स्वायत्ता दे।” बीबीसी आगे लिखता है- “इस प्रस्ताव में ‘सिखी का बोलबाला’ के जुमले को अनेक टीकाकारों ने ‘अलगाव’ के शंखनाद की संज्ञा दी थी।जब केंद्र में कांग्रेस के सत्ता में लौटने के बाद पंजाब में बादल सरकार को कई अन्य राज्य सरकारों सहित बर्खास्त किया गया तो उन्हें पंजाब संबंधी मांगे उठाने का फिर से मौका मिल गया। जब इन मांगों को, पंजाब और सिखों के साथ कथित भेदभाव के मिश्रण के साथ जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने पेश किया तो उसकी सिखों में लोकप्रियता बढ़ती चली गई। वह चौक महता गुरुद्वारे को छोड़, पहले हरिमंदिर साहब में गुरु नानक निवास और फिर सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था अकाल तख्त से प्रचार करने लगा।”

भिंडरांवाले ने हरिमंदिर साहब परिसर को अपना गढ़ बना लिया। अकालियों ने भी जुलाई 1982 में सतलुज-यमुना लिंक नहर के खिलाफ अपना मोर्चा खोल दिया और भिंडरांवाले के समर्थन में उतर आए। पूरे पंजाब में राजनीतिक माहौल काफी गर्म हो चुका था।

अप्रैल 1983 में डीआईजी पुलिस ए.एस.अटवाल की दिन-दहाड़े हरिमंदिर साहब परिसर में हमला करके हत्या कर दी गई। उसी साल जालंधर के पास बंदूकधारियों ने पंजाब रोडवेज से हिंदुओं को उतार कर उनकी हत्या कर दी। उस दौरान पुलिस का मनोबल इतना गिर चुका था कि बीबीसी के अनुसार, “ये आम कहा जाने लगा कि यदि किसी नाके की ओर पुलिसकर्मी किसी मोटरसाईकिल (बुलेट) सवार को आता देखते हैं तो वे इधर-उधर हो जाते हैं कि कहीं ए.के-47 से लैस चरमपंथी न आ रहे हों।”

बीबीसी के अनुसार, “गाँव देहात, कस्बों और छोटे नगरों में तो लोगों ने सूर्यास्त के बाद घर से बाहर निकलना बंद कर दिया। बसों में रात का सफर बंद हो गया। अखबारों के दफ्रतरों में धमकी भरे पत्र और पूरा बयान छापने की ‘हिदायतें’ आने लगीं। हरिमंदिर साहब परिसर में भिंडरांवाले और उसके साथियों की मोर्चाबंदी और परिसर के बाहर सुरक्षाबलों की मोर्चाबंदी ने अमृतसर के उस इलाके को छावनी की शक्ल दे दी।”

दूसरी तरफ केंद्र में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सत्तासीन कांग्रेस सरकार पर भिंडरांवाले के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बढ़ता जा रहा था। इंदिरा सरकार ने अमृतसर स्थित दरबार साहिब यानी स्वर्ण मंदिर पर हमले का निर्णय लिया। जून 1984 में सेना ने स्वर्ण मंदिर को चारों ओर से घेर लिया। भारी गोलाबारी और संघर्ष में सैकड़ों लोगों की मौत हुई। मंदिर परिसर भी क्षतिग्रस्त हुआ। इस हमले में भिंडरांवाले और लेफ्रिटनेंट जनरल शहबेग सिंह सहित कई प्रमुख लोगों की मौत हुई। इस अभियान को ऑपरेशन ब्लू स्टार का नाम दिया जाता है। ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही दो सिख अंगरक्षकों, सतवंत सिंह और बेअंत सिंह ने गोली मारकर हत्या कर दी। ऑपरेशन ब्लू स्टार के महज चार महीने बाद ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी। इंदिरा गांधी की हत्या के तुरंत बाद देश के कई हिस्सों में सिख विरोधी दंगे भड़क उठे। इन दंगों में हशारों लोगों की जान गई।

ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद पंजाब के हालात और बिगड़ गए। बीबीसी के अनुसार, “कई युवा सिखों में ऑपरेशन ब्लू स्टार के खिलाफ रोष व्याप्त था और इससे कई चरमपंथी गुट पैदा हुए। अलगाववाद और खालिस्तान इनका नारा था। पहले जुलियो रोबेरो और फिर के.पी.एस गिल के पुलिस प्रमुख बनने के बाद ही पुलिस के गिरते मनोबल में वुफछ सुधार हुआ।वर्ष 1988 से सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस के संयुक्त अभियान के तहत अनेक युवाओं की धरपकड़ तेज़ हो गई। युवा चरमपंथियों की ओर से डवैफती, अपहरण, फिरौती मांगने के मामले जब बढ़े तो उन्होंने हिंदुओं और सिखों में कोई फर्क नहीं किया। हिंदुओं के साथ-साथ अनेक सिख परिवार भी देहात और नगरों से पलायन कर या तो चंडीगढ़ या फिर पंजाब से बाहर जाने को मजबूर हो गए।”

पंजाब में आतंकवाद का दौरः एक नजर

image वर्ष 1973- आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित- प्रस्ताव में वेफंद्र को विदेश मामलों, मुद्रा, रक्षा और संचार सहित केवल पाँच दायित्व अपने पास रखते हुए बाकी के अधिकार राज्य को देने और पंजाब को एक स्वायत्त राज्य के रूप में स्वीकारने संबंधी बातें कही गईं थीं।

image वर्ष 1977- जरनैल सिंह भिंडरांवाले सिखों की धार्मिक प्रचार की प्रमुख शाखा, दमदमी टकसाल के प्रमुख चुने गए और अमृत प्रचार अभियान की शुरुआत की।

image अप्रैल, 1978- अखंड कीर्तनी जत्थे, दमदमी टकसाल और निरंकारी सिखों के बीच अमृतसर में संघर्ष, 13 सिखों की मौत।

image जून, 1978- अकाल तख्त साहिब ने सिखों के संत निरंकारी पंथ के खिलाप़फ हुकुमनामा जारी किया।

image अक्टूबर, 1978- लुधियाना में 18 वे अखिल भारतीय अकाली सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पर एक लचीला रुख अपनाते हुए दूसरा प्रस्ताव पारित किया गया।

image सितंबर, 1979- अकाली दल का दो धड़ों में विभाजन, पहले धड़े का नेतृत्व हरचंद सिंह लोंगवाल और प्रकाश सिंह बादल संभालते हैं जबकि दूसरे धड़े का नेतृत्व जगदेव सिंह तलवंडी और तत्कालीन एसजीपीसी अध्यक्ष गुरचरण सिंह तोहड़ा के हाथ में।

image अप्रैल, 1980- निरंकारी पंथ के प्रमुख गुरबचन सिंह पर छठा जानलेवा हमला, उस समय वे दिल्ली स्थित अपने मुख्यालय आ रहे थे। इस हमले में उनकी मौत हो गई थी।

image मार्च, 1981- एक नए स्वायत्त खालिस्तान का झंडा पंजाब स्थित आनंदपुर साहिब पर फहराया गया।

image सितंबर, 1981- हिंद समाचार समूह के प्रमुख जगत नारायण की हत्या मामले में जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने आत्मसमर्पण किया। उन्हें हिरासत में लेकर जेल भेज दिया गया। भिंडरांवाले अपने मक़सद के लिए हिंसा का रास्ता अपनाने को सही मानते थे।

image इसी महीने दल खालसा के गजिंदर सिंह और सतनाम सिंह पौंटा सहित पांच सदस्य श्रीनगर से दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाइंस के विमान को हाईजैक कर लाहौर ले गए। अपहर्ताओं ने नकद रक़म और भिंडरांवाले को जेल से रिहा करने की मांग रखी।

image अक्टूबर, 1981- जरनैल सिंह भिंडरांवाले जेल से रिहा कर दिए गए।

इसी महीने शिरोमणि अकाली दल और दिल्ली की केंद्र सरकार के बीच पहले दौर की बातचीत हुई, जिसमें शिरोमणि अकाली दल ने लचीला रुख अपनाकर अपनी मांगों को 45 से घटाकर 15 कर दिया। इनमें एक अहम थी भिंडरांवाले की बिना शर्त रिहाई।

image अप्रैल, 1982- शिरोमणि अकाली दल और केंद्र सरकार के बीच तीसरे दौर की बातचीत। इस बातचीत को अकाली दल ने विफल बताया था।

image इसी महीने शिरोमणि अकाली दल ने अपने विरोध को आगे बढ़ाते हुए यमुना-सतलुज परियोजना का शोरदार विरोध करने का प़फैसला किया और नहर रोको मोर्चा खोल दिया।

image जुलाई, 1982- भिंडरांवाले अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर परिसर में गुरुनानक निवास के कमरा नंबर 47 में आ गए।

image अगस्त, 1982- अकाली दल ने धर्म युध्द मोर्चा की घोषणा की।

image इसी महीने दिल्ली से श्रीनगर जा रहे एक 126 यात्रियों वाले इंडियन एअरलाइंस के विमान को हाईजैक कर लाहौर में उतारने की कोशिश की गई, लेकिन लाहौर से इसकी इजाज़त नहीं मिली। इसके बाद विमान को अमृतसर में उतारा गया। अपहर्ता को अमृतसर में गिरफ्रतार कर लिया गया।

image इसी महीने इंडियन एअरलाइंस के एक और विमान को जोधपुर के रास्ते मुंबई से दिल्ली आते वक्त हाईजैक कर लिया गया। इस विमान को भी लाहौर में उतरने की अनुमति नहीं मिली। इसके बाद अपहर्ता ने विमान को अमृतसर में उतारा। अमृतसर हवाई अड्डे पर कमांडो कार्रवाई में सिख अपहर्ता मुसीबत सिंह की मौत।

image नवंबर, 1982- दिल्ली में नौवें एशियाई खेलों के आयोजन के दौरान अकाली दल ने विरोध की अपील की। कई सिख राजधानी में दाखिल होने की कोशिश करते पकड़े गए। वुफछ को प्रताड़ित किया गया। सिखों के उत्पीड़न के मामले मुख्य रूप से हरियाणा से सामने आए।

image अप्रैल, 1983- पंजाब पुलिस के डीआईजी अवतार सिंह अटवाल की अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के ठीक सामने हत्या कर दी गई।

image जून-अगस्त, 1983- अकाली दल ने रेल रोको और काम रोको मोर्चा खोला। इससे आम जनजीवन और रेल यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ।

image अक्टूबर, 1983- दरबारा सिंह के नेतृत्व वाली पंजाब की कांग्रेस सरकार को भंग कर राज्य में राष्ªपति शासन लागू कर दिया गया।

image दिसंबर, 1983- भिंडरांवाले अब अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर के गुरु नानक निवास से परिसर के सबसे अहम हिस्से यानी अकाल तख्त साहिब में पहुँच गए थे।

image फरवरी, 1984- पंजाबी की सर्वाधिक पढ़े जाने वाली मासिक पत्रिका, ‘प्रीतलारी’ के संपादक और वरिष् पत्रकार सुमित सिंह शम्मी की हत्या कर दी गई।

image अप्रैल, 1984- पूर्व विधायक और अमृतसर में भाजपा प्रमुख हरबंस लाल खन्ना की उनके अंगरक्षक समेत गोली मारकर हत्या। अगले दिन उनकी शवयात्र में हिंसा भड़क गई। इसमें आठ लोग मारे गए और नौ घायल हुए थे।

image इसी सप्ताह हिंदू ब्राह्मण परिवार से आने वाले पंजाबी भाषा के प्रोप़फेसर विश्वनाथ तिवारी की उनकी पत्नी समेत हत्या कर दी गई। प्रोफेसरतिवारी की पत्नी पंजाबी थीं।

image दोनों गुटों, लोंगवाल और भिंडरांवाले ने पर्चे बांटकर एक-दूसरे पर सिख संप्रदाय को नीचे गिराने का कारण बनने के आरोप लगाए।

image मई, 1984 - हिंद समाचार समूह के संपादक जगत नारायण की हत्या के बाद उनके बेटे रमेश चंद्र ने शिम्मेदारी संभाली थी, लेकिन उसी महीने उनकी भी जालंधर स्थित उनके कार्यालय में हत्या कर दी गई।

image 06 जून, 1984- अमृतसर स्थित दरबार साहिब यानी स्वर्ण मंदिर परिसर में भारतीय सेना ने प्रवेश किया।

image सेना ने स्वर्ण मंदिर को चारों ओर से घेर लिया। भारी गोलाबारी और संघर्ष में सैकड़ों लोगों की मौत हुई। मंदिर परिसर भी क्षतिग्रस्त। इस हमले में भिंडरांवाले और लेफ्रिटनेंट जनरल शहबेग सिंह सहित कई प्रमुख लोगों की मौत। इस अभियान को ऑपरेशन ब्लू स्टार का नाम दिया जाता है।

image 07-10 जून, 1984- देश के कई हिस्सों में सिख सैनिकों के विद्रोह की ख़बरें छपीं।

image सिख रेजीमेंट के करीब 500 सैनिकों ने राजस्थान के गंगानगर शिले में ऑपरेशन ब्लू स्टार की ख़बरें सुनकर बग़ावत कर दी थी। बिहार के रामगढ़ (अब झारखंड में), अलवर, जम्मू, थाणे और पुणे में सिख सैनिकों ने विद्रोह किया था। रामगढ़ में विद्रोही सैनिकों ने अपने कमांडर, ब्रिगेडियर एस.सी पुरी की हत्या कर दी थी।

image जुलाई, 1984- भारत सरकार ने ऑपरेशन ब्लू स्टार पर एक श्वेतपत्र जारी किया, लेकिन उसे आलोचना का सामना करना पड़ा।

image 31 अक्टूबर, 1984- तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दो सिख अंगरक्षकों, सतवंत सिंह और बेअंत सिंह ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। ऑपरेशन ब्लू स्टार के चार महीने बाद ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी।

image इंदिरा गांधी की हत्या के तुरंत बाद देश के कई हिस्सों में सिख विरोधी दंगे भड़क उठे। इन दंगों में हशारों लोगों की जान गई।

image जून, 1985- एअर इंडिया की उड़ान संख्या 182 का विमान आयरलैंड के पास नष् हो गया। इस हादसे में 329 लोगों की मौत हो गई।

image जुलाई, 1985- तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और हरचंद सिंह लोंगवाल ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद चंडीगढ़ पंजाब को मिला।

image अगस्त, 1985-एक गुरुद्वारे में भाषण देते वक्त हरचंद सिंह पर हमला कर उनकी हत्या कर दी गई।

image सितंबर, 1985- अकाली दल को पंजाब में चुनाव में भारी जीत मिली। सुरजीत सिंह बरनाला राज्य के मुख्यमंत्री बने।

image जनवरी, 1986- स्वर्ण मंदिर यानी दरबार साहिब का नियंत्रण एक बार फिर से शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी को सौंप दिया गया।

image 1991-1995 - पुलिस प्रमुख और फिर सरकार के सुरक्षा सलाहकार रहे के.पी.एस. गिल के नेतृत्व में खालिस्तानी लड़ाकों के खिलाफ अभियान चलाया गया। इसी दौरान मुठभेड़ों का दौर चला और कई खालिस्तानी गुटों के बड़े-बड़े नेता कथित मुठभेड़ों में मारे गए।

स्रोतः बीबीसी हिंदी वेब

पंजाब जब ऐसे अशांति के दौर से गुज़र रहा था, तो वहाँ शांति स्थापित करने और एक-एक व्यक्ति में ज्ञान का दीप जलाने के लिए आशुतोष महाराज जी दक्षिण भारत से चलकर पंजाब के पटियाला पहुँचे। पंजाब उनके लिए बिल्कुल अनजान जगह था, लेकिन यही वह प्रदेश था, जहाँ इस वक्त मानवता को सबसे अधिक शांति की ज़रूरत थी!

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शुरुआती दौर में सत्संग करते आशुतोष महाराज जी।

पटियाला में उन्होंने एक छोटा कमरा किराए पर लिया और वहीं से अपने ज्ञान का प्रचार-प्रसार शुरु किया। प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार, जब आशुतोष महाराज जी शुरु-शुरु में पटियाला आए थे तो 10-12 लोगों को इकट्ठा कर सत्संग किया करते थे। उनका एक छोटा कमरा होता था, जिसमें 10-12 लोग बैठते और महाराज जी उन सभी को ब्रह्मज्ञान के बारे में बताया करते थे। वे कहते थे कि ‘ईश्वर साक्षात् दिखता है!’ पहले लोग उनकी बातों पर विश्वास नहीं करते थे, लेकिन जब उन्होंने लोगों के मस्तक पर हाथ रखकर उन्हें उनके अंतर अनंत प्रकाश का दर्शन कराया तो लोग उनके मुरीद होते चले गए। साध ना-सत्संग-ध्यान की अलख जगानी आरंभ कर दी थी। उस वक्त पंजाब आतंकवाद से झुलस रहा था। आशुतोष महाराज जी ने उन्हीं क्षेत्रों को अपने ज्ञान के प्रसार केलिए चुना, जहाँ के लोग सबसे अधिक आतंकवाद के शिकार हो रहे थे। पटियाला सहित जालंधर, तरन तारन, अमृतसर, गुरदासपुर, फरीदकोट में वे कभी साइकिल से तो कभी पैदल जाते और घूम-घूम कर लोगों को खुद के अंदर शांति की तलाश के लिए ज्ञान की राह पर चलने का उपदेश देते थे।

श्री आशुतोष महाराज जी जब घूम-घूम कर प्रवचन कर रहे थे तो एक दिन कौशल्या माता ने उन्हें फिर से सुना। वह चौंकी! ये तो वही महाराज जी हैं, जिनसे वह कुंभ में मिली थीं और जिनसे वह व उनके पति ने दीक्षा ली थी! वह उनके पास पहुँची और पूछा, ‘महाराज जी, आपने मुझे पहचाना?’

‘हाँ माई, क्यों नहीं पहचानूँगा? मैं आपके बुलावे पर ही तो पटियाला आया हूँ!’

‘तो फिर आप मेरे घर आए क्यों नहीं? अब चलिए! आप गुरु हैं। हमारा घर आपके ही आशीर्वाद का फल है। आप वहीं से पूरे पंजाब में अपने ज्ञान का प्रचार-प्रसार कीजिए!’ आशुतोष महाराज जी का एक झोला उठाकर वह उन्हें लेकर अपने साथ चल पड़ीं। कौशल्या माता का घर प्रेम कॉलोनी में था। श्री आशुतोष महाराज जी का अगला पड़ाव प्रेम कॉलोनी ही बन गया। आशुतोष महाराज जी उस वक्त एक झोला लटकाए जगह-जगह पैदल या फिर किसी के आग्रह पर उसकी साइकिल लेकर प्रचार के लिए जाते थे। उस वक्त वे लंबा चोला व धेती पहनते थे, लंबी दाढ़ी व लंबे बाल रखते थे। कुछ समय वे बिना दाढ़ी के भी रहे।

उन माता के घर के पास ही राम आश्रम था। बाद में लोगों की बढ़ती भीड़ को देखकर महाराजजी उसी राम आश्रम में सत्संग करने और लोगों को ज्ञान दीक्षा देने लगे। जिस वक्त पंजाब में भिंडरांवाले का आतंक था, उसी दौर में आशुतोष महाराज जी पटियाला में शांति का प्रचार कर रहे थे। कौशल्या माता बताती हैं कि “महाराज जी बार-बार कहा करते थे कि वे भिंडरांवाले से मिलकर आएँगे और उसे समझाएँगे कि वह जिस रास्ते पर चल रहा है वह देश व मानवता के हित में कदापि नहीं है। न उसके जीवन में शांति है और न ही यहाँ के लोगों को ही वह शांति से जीने दे रहा है। मैं अकसर महाराजजी का विरोध करती थी। मैं जानती थी कि भिंडरांवाले हिंसक आदमी है। वह महाराजजी पर हमला कर सकता है।

“एक सुबह देखती हूँ कि महाराजजी बिना घर के सदस्यों को कुछ बताए, निकल गए। हमें लगा कि वे कहीं प्रवचन के लिए गए हैं। उस दिन वे शाम में लौटे। काफी मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने उस दिन भोजन भी बड़े प्यार से और तारीफ करते हुए किया।

“अगले दिन अखबार में देखती हूँ कि एक खबर छपी है, ‘फ्रलाइंग बाबा मिट्स भिंडरांवाले’! मेरा दिमाग ठनका कि हो न हो ये महाराज जी हैं! वही बहुत दिनों से उससे मिल कर उसे समझाने की बात कह रहे थे। हम जैसे शिष्यों का मान रखते हुए वे हमारी बात को काट कर उससे मिलने नहीं जा पा रहे थे। उस दिन उन्हें मौका मिला और वे भिंडरांवाले से मिलने चले गए। मैं अखबार लेकर उनके पास गयी। इससे पहले कि कुछ पूछती, उन्होंने ही पूछ लिया- ‘तो तुझे पता चल गया, मेरे भिंडरांवाले से मिलने की बात?’ मैं आश्चर्यचकित थी कि इतने खुंखार आतंकवादी से मिलकर महाराज जी किस तरह मुस्कुरा रहे हैं! और किस तरह हमारे साथ ठिठोली कर रहे हैं!

“मेरे बार-बार पूछने पर उन्होंने बताया कि वे सुबह-सुबह भिंडरांवाले से मिलने अकालतख्त गए थे। दरअसल भिंडरांवाले को यह पता चल गया था कि एक हिंदू संत निर्भीक होकर गाँव-गाँव में न केवल हिंदू-सिख भाईचारे का संदेश दे रहा है, बल्कि बड़ी संख्या में सिख उसके अनुयायी भी बनते जा रहे हैं। सिख देहधरी गुरुओं को नहीं मानते, पर यहाँ तो बड़ी संख्या में सिख महाराजजी के अनुयायी बनते जा रहे थे, इसलिए भिंडरांवाले महाराज जी को सबक सिखाना चाहता था। महाराज जी को अपने किसी सिख अनुयायी से जब इसका पता चला तो उन्होंने यह तय किया कि इससे पहले कि वह मुझसे मिलने की कोई हिंसक कोशिश करे, मुझे अकालतख्त जाकर उससे मिलकर उसे शांति के मार्ग पर चलने की राह दिखानी चाहिए।

“अखबारों से इसकी पुष्टि हो चुकी थी कि महाराजजी भिंडरांवाले से अकाल तख्त में जाकर न केवल मिल आए थे, बल्कि उसे गुरुनानकदेव जी की राह पर चलने की शिक्षा भी दे आए हैं। पूछने पर महाराजजी ने बताया था कि उन्होंने भिंडरांवाले से कहा था कि ‘हथियार छोड़कर शांति का रास्ता अपना लो।’ उन्होंने उसे गुरुग्रंथ साहब का उदाहरण देकर समझाया कि ‘वह जो कर रहा है, उससे न केवल सिख समाज, बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष का अहित हो रहा है।’ उन्होंने भिंडरांवाले से कहा था कि ‘हथियार छोड़ो और वाहेगुरु से नाता जोड़ो।’

“इस पर भिंडरांवाले गुस्से से तिलमिला उठा था और उसने अपने साथियों से कहा था कि इस साधु को गोली मार दो। इससे पहले कि कोई महाराजजी तक पहुँच पाता, वे उसके सामने से अकाल तख्त से निकल गए और भिंडरांवाले बिल्कुल बेसुध हो उन्हें वहाँ से निकल कर जाते देखता रहा। महाराज जी के प्रभाव में वह बिल्कुल ठिठक-सा गया था। उनके वहाँ से निकल जाने के बाद उसे होश आया! उस वक्त उसका साक्षात्कार लेने कुछ पत्रकार व पफोटोग्राफर भी पहुंचे हुए थे, जिनमें से कई ने इस मामले को खबर बनाकर छाप दिया था।”

दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के प्रवक्ता स्वामी विशालानंद इस घटना के बारे में कहते हैं, “डब्ल्यूडब्ल्यूई के चैंपियन द ग्रेट खली महाराज जी के अनुयायी हैं। जब खली डब्ल्यूडब्यूई चैंपियनशिप जीत कर आया था तो वह महाराज जी से मिलने आश्रम आया था। मीडिया लगातार इसकी कवरेज कर रही थी। मीडिया की उसी टीम में एक बड़े न्यूज़चैनल का कैमरामैन सैयद अनवर भी मौजूद था। वह मुझसे मिलने आया। उसने पूछा, ‘यह वही बाबा तो नहीं है, जो 1983-84 के आसपास भिंडरांवाले से मिलने अकालतख्त में गए थे?’ मैंने जब उससे पूछा कि वह इस बात को कैसे जानता है? तो उसने बताया कि जब महाराजजी भिंडरांवाले से मिल रहे थे, उस वक्त वह भी वहाँ मौजूद था। वह उस वक्त दूरदर्शन पर आने वाले ‘सामना’ कार्यक्रम के लिए भिंडरांवाले का साक्षात्कार लेने गए एक पत्रकार के साथ कैमरामैन की हैसियत से अकालतख्त गया था। आज वह पत्रकार एक बड़े चैनल के सर्वेसर्वा हैं। उस वक्त का एक अखबार निकलवाया तो उसमें ‘फ्रलाइंग बाबा’ शीर्षक से महाराज जी द्वारा भिंडरांवाले को शांति की मार्ग पर चलने के लिए दिए गए उपदेश वाली घटना का प्रमाण भी मिल गया।”

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श्री आशुतोष महाराज जी का मानना है कि आतंकवाद कुछ और नहीं, घोर अज्ञानता की उपज है। 1980 के दशक में आतंकवाद को लेकर पंजाब में दिए गए उनके उपदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने कि उस समय थे। उस समय कई बड़े-बड़े आतंकवादी, जिनके हाथ में ए.के-47 देखकर पंजाब पुलिस तक रास्ता छोड़ देती थी, जिनके आतंक से भयभीत होकर नामी-गिरामी गुरु या संत पंजाब छोड़कर चले गए थे- वही आतंकवादी हथियार छोड़ कर आशुतोष महाराज जी के शिष्य बनने लगे थे! कईयों ने उनके कहने पर आत्मसमर्पण किया और कईयों ने उनके अनुयायी बनकर पूरी उम्र समाज सेवा के नाम कर दी। 1980-1990 के दौर में उनकी कद का कोई और संत पंजाब में मौजूद नहीं था, जो शांति के लिए इस कदर प्रयासरत रहा हो। हिंदू तो हिंदू, सिख भी श्री आशुतोष महाराज जी के शिष्य बन रहे थे। आतंकवाद और नशीले पदार्थों अर्थात् ड्रग्स में डूबे युवाओं में शांति का प्रसार मरहम की तरह काम करने लगा था!

पाकिस्तान की सरहद से सटे पंजाब के अधिकांश जिले नशीले पदार्थों की चपेट में 1980 के दशक की शुरुआत में ही आ गए थे। पंजाब का लगभग 600 किलोमीटर का इलाका ऐसा है, जो पकिस्तान की सरहद से लगा हुआ है। यही 600 किलोमीटर का क्षेत्र आतंकवादियों के लिए हथियार और युवाओं के लिए नशीले पदार्थों की आपूर्ति का केंद्र बना हुआ था। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद सन् 1990 का दशक पंजाब में चरमपंथ के उफान का दौर था। उस दौर में पाकिस्तानी सरहदों से हथियार व नशीले पदार्थों पर रोक लगाने के लिए सरहद के साथ करंट के प्रवाह वाली वंफटीले तार की बाड़ लगाने का काम शुरू हुआ। इसके बावजूद सरहद नशीले पदार्थ की तस्करी का सबसे बड़ा रास्ता बना रहा। सरहद पर बहने वाली रावी नदी और बरसाती नाले भी हथियार और ड्रग्स की तस्करी का मार्ग बन गए थे, जो कमोबेश आज भी हैं। पंजाब में नशे का आलम यह था कि 20-22 साल के नौजवान नशे की लत के कारण मरने लगे, युवतियों की शादी के लिए एक भी ऐसा लड़का खोजे से नहीं मिलता था, जो नशे का लती न हो। आशुतोष महाराज जी के प्रभाव में आकर उस दौर में नशा छोड़ने वाले दलबीर सिंह (परिवर्तित नाम) से इस लेखक की मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि वह इस कदर नशे में डूब चुके थे कि उन्हें यह तक होश नहीं रहता कि वह नाले में गिरे पड़े हैं, सड़क पर गिरे हैं या फिर किसी खड्डे में! उनके अनुसार, “वह बड़े-बड़े कटोरे में अफीम को घोलकर पी जाया करते थे। अफीम, हीरोईन जब नहीं मिलता तो सांप का बिल ढूँढ़ते फिरते और उसमें हाथ डालकर सांप को निकालते और उससे अपनी जीभ तक पर कटवाते, तब जाकर उन्हें सुकून मिलता।” इस पुस्तक के लेखक ने आज भी यह महसूस किया कि बात करते वक्त उनकी जुबान हल्की लड़खड़ाती रहती है और उनके शरीर में हल्का कंपन होता रहता है। परंतु पिछले 22 साल से उन्होंने किसी भी नशीले पदार्थ को हाथ तक नहीं लगाया है।

वह कहते हैं, “मैं तब युवा था। नशे की आदत से परेशान मेरी माँ ने इस आश्रम में मुझे लाकर पटक दिया था। महाराजजी ने मुझे संभाला। मुझे ध्यान की बारीकियाँ समझायीं। मेरे अंदर साक्षात् परमात्मा के दर्शन कराए। धीरे-धीरे मैं साधना पर बैठने लगा, जिससे आत्मविश्वास बढ़ने लगा। आंतरिक शक्ति का जागरण होता चला गया। ध्यान का आनंद नशे के आनंद से बड़ा होता चला गया और नशा छूटता चला गया। आज स्थिति यह है कि मैंने नशे के शिकार कितने ही लोगों को उस अंधेरे दलदल से निकल पाने में सहायता दी है और यह सब महाराजजी के ज्ञान के कारण ही संभव हो सका है।”

उस वक्त श्री आशुतोष महाराज जी ने आतंकवाद व नशे को जड़ से मिटाने के लिए पटियाला, जालंध्र, तरन तारन, लुध्यिाना, अमृतसर में लोगों के घर-घर में जाकर शांति व ज्ञान का संदेश देना शुरु किया। वह भी तब, जब उस वक्त उनके अनुयायियों की संख्या आज की तरह लाखों-करोड़ों में नहीं, महज कुछ सौ में थी! उस वक्त हिंद समाचार समूह के संपादक जगत नारायण ने, जिन्हें बाद में खालिस्तानी आतंकियों ने मार दिया था-आशुतोष महाराज जी से कहा था कि आप पंजाब में आ तो गए हैं, लेकिन आतंकियों से उलझने की कोशिश मत करना, इन्हें शांति वगैरह का संदेश देने की गलती मत कर बैठना, सिखों को अपने साथ लेने की कोशिश मत करना, पगड़ी धरण करने की गलती आदि तो मत ही करना। आज जब उनके अखबार से जुड़ी वर्तमान पीढ़ी कभी जालंध्र के नूर महल स्थित आश्रम में जाती है तो वहाँ सिख अनुयायियों की इतनी बड़ी संगत देखकर दंग रह जाती है! श्री आशुतोष महाराज जी ने आतंकवाद को आंतरिक अशांति का परिणाम बताया और लोगों से कहा कि एक मात्र ब्रह्मज्ञान ही है, जिसके रास्ते पर चलकर तुम्हें अपार शांति मिलेगी! लोग उनकी संगत में आते, उनके अनुग्रह से दिव्य नेत्र पाते तथा अपने अंदर सूर्य समान तेजस्वी ईश्वर का दर्शन करते और फिर उनके अभियान से जुड़ते चले जाते!

आशुतोष महाराज जी कहते- ‘ज्ञानी पुरुष के हाथ में खेलती हुई शक्ति सृजनात्मक है और अज्ञानी व्यक्ति के हाथ में आई शक्ति विध्वंसकारी है।’ वे लोगों को समझाते कि ‘आतंकियों से भय खाने की ज़रूरत नहीं है। ऐसा नहीं है कि मानव की आतंकवादी वृत्ति अभी कुछ दशकों पहले ही पनपी है। इस वृत्ति का इतिहास तो मानव जितना ही प्राचीन है।’ आशुतोष महाराज जी मानव मानव सभ्यता के सिरमौर- वैदिक काल का उदाहरण देते- ‘ उसे ‘सतयुग’ अथवा ‘ऋषि युग’ कहा जाता है। किन्तु वह ओजस्वी युग भी आतंकवाद की कालिमा से ग्रस्त था। तब भी बहुतायत में आतंकवादी हुआ करते थे। उन्हें ‘धातुधाः’, ‘हिंड्डः’, ‘किमीदनः’, ‘अम्नः’, ‘तुन्डेल’, ‘अधशंसम’ आदि नामों से सम्बोधित किया जाता था। ‘दस्यु’ तथा ‘दैत्य’ शब्दों की तो वैदिक-ग्रन्थों में भरमार है। इसका भी प्रमाण मिलता है कि ‘वृत्र’, ‘शम्वर’, ‘नमुचि’ आदि उस युग के सर्वाधिक नृशंस व आक्रान्त करनेवाले राक्षसकुल थे।

त्रेता व द्वापर काल के विषय में श्री आशुतोष महाराज जी कहते- “त्रोता युग के राक्षस समुदाय अथवा लंकेश रावण की आतंकवादी गतिविध्यिाँ तो सर्वविदित ही हैं। दण्डकारण्य में, श्री राम ने निर्दोष सत्पुरुषों की अस्थियों का पूरा पर्वत देखा था। यह क्या था?- तत्कालीन आतंकवाद का प्रत्यक्ष प्रमाण ही तो था? द्वापर में भी, इन आसुरी आतंकवादियों ने प्रचंड कोहराम मचाया था, जिसे युग-ग्रंथ गीता में ‘आततायीवाद’ कहा गया।”

वर्तमान युग के बारे में भी, श्री आशुतोष महाराज जी बड़ा सटीक अन्वेषण सामने रखते। वे कहते- “पाश्चात्य इतिहासकार मध्य रूस स्थित ‘सीथियन’ को इस युग का सबसे पहला आतंकवादी कबीला बताते हैं। कहा जाता है कि ढाई हज़ार वर्ष पूर्व जीवंत यह कबीला सामूहिक आतंकवाद का गढ़ था। इसके निवासी बहुत ही क्रूर थे तथा पशुवत् नरसंहार किया करते थे। ये लोग अपनी निकटवर्ती बस्तियों में दहशताना हमला करते। वहाँ के निवासियों के सिर काट देते। उनकी खोपड़ियों को रिक्त और स्वच्छ करके मदिरा की प्यालियाँ बनाया करते। मृतकों के रक्त को मदिरा में घोलकर पीते। फिर उनके ध्ड़ से उनकी खाल उधेड़ लेते। उसकी टोपियाँ व चटाइयाँ बनाते। प्रति वर्ष ये सीथियन लोग एक विशाल समारोह आयोजित करते। उसमें उस व्यक्ति को पुरस्कृत किया जाता, जिसके पास मृत शत्रुओं की त्वचा से बने सबसे अधिक रूमाल होते अर्थात् जिसने श्यादा से श्यादा शिंदगियों को लीला होता। ...सच! बर्बरता और दहशतगर्दी की अंतहीन गाथा थी- यह सीथियन कबीला!”

“इसके पश्चात् आया, सामंतशाही युग। तब भी आतंकवाद का नरपिशाच मानवता का रक्तपान करता रहा। तत्समय समाज छोटे-छोटे राज्यों व जनपदों में विभाजित था। आतंकवादी शासक लूटपाट व सीमा-विस्तार के लिए अन्य प्रदेशों में ज़बरन घुसपैठ करते। उन्हें पराजित करने के बाद, केवल अपना प्रभुत्व जतलाने के लिए, वे उनमें आतंक का रौरव नाद बजाते। दिल दहला देने वाला भारी कत्लेआम करते। भारत में, सन् 1398 में आया तैमूर लंग और सन् 1739 में आया नादिर शाह- इसी वर्ग के नृशंस आतंकवादी थे।”

महाराज जी जब यह कहते कि आतंकवाद का कुचक्र हमेशा से समाज में चलता रहा है, यह बहरूपिया समय-समय पर अलग-अलग रूप ध्र करके आया है, विभिन्न रूपों में इसने मानवता को डराया, सताया व प्रताड़ित किया है, पर हर बार एक महापुरुष की ज्ञान खड्ग से इसे नष्ट होना ही पड़ा है। इससे पंजाब के लोगों को हौसला मिलता कि वे भी आशुतोष महाराज जी के मार्गदर्शन में तथा उनके ब्रह्मज्ञान के सामर्थ्य से इस आतंकवाद को परास्त कर देंगे।

आतंकवाद के उस दौर में पूरे पंजाब में आशुतोष महाराज जी ने घूम-घूम कर यह बताना आरंभ कर दिया था कि “आतंकवाद को पनपने के लिए जिस उपजाउफ भूमि की तलाश होती है, वह उपजाउफ भूमि उसे ‘अज्ञानता’ से भरे मस्तिष्क में मिलती है। जब अज्ञानता के हाथ में शक्तिरूप खड्ग आ जाती है, तो वह विध्वंस का रक्तरंजित इतिहास रच डालती है।”

आशुतोष महाराज जी कहते, “अज्ञानता, निरक्षरता नहीं है, बल्कि यह एक सूक्ष्म अंधकार है, जो हमारी गहरी तहों में अपना प्रभाव दिखाता है। यह हमें यथार्थ को यथार्थ नहीं समझने देता। यह हमारी दृष्टि को स्थूल व छिछली सतहों पर उलझाए रखता है। सूक्ष्म गहराइयों में उतरकर आत्मा के एकत्व को नहीं देखने देता। एकता में भी अनेकता दर्शाता है। अज्ञानता, वास्तव में, विभेदकारी बुध्दि है। यह मानव-मानव में भेद करती है। एक सार्वभौम आत्म-तत्त्व (जो सबमें समान रूप से समाया है) को न जानकर, जीव-जीव में भेद करती है। गीता (2/41) में भी अज्ञानता को इसी प्रकार परिभाषित किया गया-बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुध्दयोऽव्यवसायिनाम् अर्थात् अनिश्चयी अज्ञानी बुध्दि अनेक भेदवाली होती है।”

आशुतोष महाराज जी कहते, “इस अज्ञान-प्रेरित आतंकवाद का एक बड़ा कारण धर्मिक शास्त्रा-ग्रन्थों के वर्णनों का गलत मतलब लगाना और उनके गूढ़-अर्थों का अनर्थकारी हनन करना भी है।” वे गुरुवाणी का संदेश पंजाब में प्रसारित कर शांति प्रयास में लगे रहे और धर्म के नाम पर अलग खालिस्तान राज्य की मांग करने वाले चरमपंथी अपनी अज्ञानतावश चाहे-अनचाहे गुरुवाणी का ही विरोध कर देते। आशुतोष महाराज जी का प्रभाव सिखों पर पड़ने लगा था और उन्हें लगने लगा था कि गुरुनानक देव और उनकी वाणी का वहाँ के आतंकी अनादर कर रहे हैं और गुरुवाणी को तोड़-मरोड़ कर अपने हित में लोगों के दिमाग में डालने की कोशिश कर रहे हैं। आतंक की राह पर निकल चुके युवकों को जब महाराज जी की बात समझ में आती तो वे हथियार छोड़ कर ज्ञान-दीक्षा प्राप्त कर लेते और यही आतंकियों की सबसे बड़ी हार होती! सिख चरमपंथी, आतंकी गतिविध्यिां को छोड़कर या तो महाराज जी के अनुयायी बनते जा रहे थे या फिर उनके सत्संग को सुनकर पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण कर रहे थे। ये दोनों ही स्थितियां अतिवादियों के अभियान को चोट पहुँचा रही थीं, जिसके कारण आशुतोष महाराज जी पर कई बार जानलेवा हमले भी हुए। आशुतोष महाराज जी के जीवन को लेकर चिंतित उनके बहुत सारे अनुयायी उनके पास आते और कहते, “महाराज जी आप गुरु ग्रन्थ साहिब हर वक्त अपने पास रखा करें। आप पर कोई खतरा नहीं रहेगा। आपका प्रचार बहुत बढ़ जांएगा।” महाराजा जी जबाब देते थे, “इन्हीं सब से तो हम लुट रहे हैं। मैं यह सब धारणाएं खत्म करने आया हूँ।”

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आशुतोष महाराज जी और उनकी संगत पर एक-दो बार नहीं, बल्कि पाँच बार जानलेवा हमले हुए, लेकिन हर बार महाराज जी की ईश्वरीय शक्ति न केवल आतंकियों को विफल कर देती, बल्कि आतंकी उनके चरणों में आकर गिर पड़ता। सन् 2000 में तरन-तारन में एक मंदिर में कथा चल रही थी। खालिस्तानियों ने कथा पर हमला बोल दिया, लेकिन किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। फिर इसके दो साल बाद सन् 2002 में 7 जुलाई को गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मलोठ में हमला हुआ। उस रोज आशुतोष महाराज जी खुद सत्संग कर रहे थे। आतंकियों ने उन पर गोली चलाई, जिसके बाद भगदड़ मच गयी। पुलिस की ओर से भी पहले लाठी चार्ज हुआ, लेकिन स्थिति बिगड़ती देख बाद में पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें खालसा नेता चरणजीत सिंह चन्नी को गोली लगी और वह घायल हो गए। इसके ठीक तीन साल बाद सन् 2005 में पंजाब पुलिस को सूचना मिली कि बड़ी संख्या में मानव बम आशुतोष महाराज जीर को मारने के लिए पंजाब में घुस चुके हैं। पुलिस ने सघन तलाशी अभियान के बाद 24 मानव बम पकड़े थे, जो आशुतोष महाराज जी को जान से मारने के मिशन में जुटे थे। नूरमहल आश्रम की पार्किंग में एक स्कूटर में बम ब्लास्ट भी हुआ। आशुतोष महाराज जी पर बार-बार होते जानलेवा हमले और उससे पंजाब की स्थिति बिगड़ने का अंदेशा देखते हुए केंद्र व पंजाब सरकार ने उनके लिए कड़ी सुरक्षा का बंदोबस्त किया। आशुतोष महाराज जी को ‘वाइ’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की गई। लेकिन आतंकवादी कहाँ चुप बैठने वाले थे। आशुतोष महाराज जी को मारने का उनका प्रयास जारी था। सन् 2009 में 5 सितंबर को लुध्यिाना में उनका दिव्य उद्बोधन था, जिसमें अलगाववादियों ने हमला कर दिया। पुलिस ने लोगों को बचाने के लिए लाठी चार्ज के साथ-साथ गोलीबारी भी की, जिसमें दर्शन सिंह नामक एक अतिवादी मारा गया। इसके बाद सरकार ने आशुतोष महाराज जी की सुरक्षा को और कड़ी करते हुए उन्हें ‘जेड़’ श्रेणी की सुरक्षा बहाल कर दी। आशुतोष महाराज जी बार-बार सुरक्षा के लिए मना करते रहे, लेकिन सरकार को पंजाब के हालात की चिंता थी, इसलिए उन्हें व उनके आश्रम को सुरक्षा प्रदान कर दी गई। पंजाब पुलिस के अलावा सी.आर.पी.एफ. के जवान आज भी नूरमहल आश्रम की सुरक्षा में 24 घंटे तैनात हैं।

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आशुतोष महाराज जी ने आतंकवादियों पर नहीं, आतंक के मूल कारण ‘अज्ञानता’ पर प्रहार किया था, जिसके कारण पूरे पंजाब में उनका असर बढ़ता चला गया था। पंजाब पुलिस से सेवानिवृत्त पूर्व एएसआई तरसेम लाल शर्मा, उनकी पत्नी सत्या माता और उनकी तीन बेटियां आशुतोष महाराज जी की अनुयायी हैं। तरसेम लाल शर्मा की तीनों बेटियाँ दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान में साध्वी अर्थात् परिव्राजक संन्यासी हैं। उनकी एक बेटी रमा भारती पंजाब के आतंकवाद के उस दौर को याद करते हुए बताती हैं कि “महाराज जी के सत्संग में सिखों की भीड़ को देखते हुए पंजाब पुलिस ने उनकी जांच आरंभ कर दी थी कि यह कौन व्यक्ति है, जिसके सत्संग में हिंदू-सिखों की भीड़ बढ़ती जा रही है। तब महाराजजी के सान्निध्य में कीर्तन खूब हुआ करता था। पंजाब पुलिस को आशंका थी कि कहीं उनके कारण पंजाब में अशांति न उत्पन्न हो जाए। उस वक्त महाराज जी पटियाला में कौशल्या माता के यहाँ ही रहते थे। मेरे पिता कौशल्या माता के यहाँ महाराज जी के बारे में पूछताछ करने गए थे। साधु-संन्यासियों पर उन्हें भरोसा नहीं था और वह उन्हें ढोंगी मानते थे। पुलिस थाने में महाराज जी को पूछताछ के लिए पिताजी ले गए थे, जहाँ महाराज जी ने कहा था कि इस दिन को याद रखना और यह भी याद रखना कि तुम्हारी तीनों की तीनों बेटियाँ हमारे यहाँ साध्वी के रूप में सेवाएं देंगी! तब मेरे पिता पहले जोर-जोर से हंसे और बाद में गुस्से में पफुपफकारते हुए कहा- ‘खबरदार जो मेरी बेटियों का नाम लिया!’ फिर उन्होंने कहा, ‘ढोंगी बाबा, मेरी केवल दो बेटियाँ हैं, तीन नहीं!’ महाराज जी ने कहा था- ‘तीसरी भी होगी और तीनों पूरी उम्र साध्वी बनकर समाज की सेवा करेंगी!”’

शर्मा जी की बेटी बताती हैं, “बाद में सन् 1984 में मेरी तीसरी बहन का जन्म हुआ। छोटी बहन के जन्म पर जैसे पिताजी को भरोसा ही नहीं हो रहा था। वे बेहद आश्चर्यचकित थे और उन्हें बार-बार महाराज जी की भविष्यवाणी याद आ रही थी। लेकिन तब भी उनकी महाराजजी में आस्था उत्पन्न नहीं हुई थी। हाँ, मेरी माँ ज़रूर महाराजजी से दीक्षा ले चुकी थी। मुझे याद है महाराज जी मुझे स्कूल बस पर चढ़ाने स्वयं जाया करते थे। तब मेरा घर कौशल्या माता के घर के पास ही था।”

वह बताती हैं, “एक बार मैं बहुत बुरी तरह से बीमार पड़ी। डॉक्टर को दिखाया गया तो उन्होंने कहा कि मुझे ब्रेन ट्यूमर है। यदि इसका ऑपरेशन नहीं कराया गया तो यह नहीं बचेगी। मुझे याद है मैं ऑपरेशन से पहले जांच आदि के बाद अस्पताल में बिस्तर पर पड़ी थी। इतने में मेरी आँखें लग गयी। मैंने स्वप्न में देखा कि महाराजजी मेरे मस्तिष्क से नाड़ियों का शोधन कर ट्यूमर को अपने हाथों से निकाल रहे हैं। कई रुग्न नाड़ियों को भी खींच कर उन्होंने मस्तिष्क से बाहर निकाल दिया। मैं शोर से चिल्लाते हुए जाग गयी। घर के लोग जमा हो गए। मेरा ऑपरेशन अगले दिन होना था। मैंने डॉक्टर को कहा कि मैं ऑपरेशन नहीं कराउँफगी। मेरे महाराज जी ने मुझे ठीक कर दिया है। डॉक्टर सहित मेरे परिवार व नातेदार के लोग मेरा उपहास उड़ाने लगे और कहा कि यह डर के कारण ऑपरेशन नहीं कराना चाहती है। लेकिन मेरी जिद्द बनी रही कि मैं अब किसी भी हाल में ऑपरेशन नहीं कराउँफगी। मेरी जिद्द के कारण डॉक्टर ने फिर से मेरे मस्तिष्क की जाँच कराई। वह आश्चर्य में पड़ गया। कल तक जिस रिपोर्ट में मेरे ब्रेन में ट्यूमर होने का प्रत्यक्ष प्रमाण था, आज जाँच में सबकुछ सामान्य आया था। डॉक्टर कुछ समझ नहीं पा रहा था, लेकिन मैं जानती थी कि यह सब महाराज जी का ही चमत्कार है। इस घटना के बाद पिताजी का भरोसा पहली बार महाराजजी में जगा और वे मुझे लेकर उनके आश्रम पहुँचे। तब तक नूरमहल में छोटा आश्रम बन चुका था। पिताजी ने महाराज जी के चरणों में मुझे सौंपते हुए कहा कि आपने ही इसे नया जीवन दिया है, अब आप ही इसके प्रतिपालक हैं। वे महाराजजी की चरणों में गिर पड़े। पिताजी सहित मेरा पूरा परिवार महाराजजी का अनुयायी बन गया। इस तरह पंजाब पुलिस के जिस जवान को आतंकवाद के दौर में रात-दिन महाराज जी पर नज़र रखने की शिम्मेवारी सौंपी गयी थी, वही उनका भक्त हो गया था। फिर तो मेरे पिता के जीवन में भी कई चमत्कारिक घटनाएँ हुईं और धीरे-धीरे पंजाब पुलिस के बड़े अधिकारियों को भी महाराजजी की शक्तियों का पता चला तब उन्होंने माना कि ये तो संत महापुरुष हैं, जो पंजाब को इस भीषण संकट से उबारने के लिए ही यहाँ आए हैं! हमने अपनी आँखों से देखा है कि किस तरह हथियार उठाने वाले लोग हथियार छोड़कर महाराज जी के चरणों में ज्ञान-दीक्षा के लिए गिर-पड़ रहे थे।”

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आशुतोष महाराज जी की प्रसिध्दि बढ़ती जा रही थी, लेकिन उनका कहीं स्थायी ठिकाना नहीं था। पटियाला में तो वे कौशल्या माता के घर रुक जाते थे, लेकिन पंजाब के अन्य जिलों में वे अभी भी एक गाँव से दूसरे गाँव घूम-घूम कर लोगों को ज्ञान दिया करते थे। काफी दिनों तक उन्होंने हरिपुर गाँव में रहकर सत्संग व प्रवचन किया। स्थायी आश्रम नहीं होने के कारण अनुयायियों को बेहद परेशानी होने लगी। ऐसे ही एक साधक ने आशुतोष महाराज जी से आग्रह किया कि वे जालंधर के नूरमहल में अपना आश्रम बनाएँ। ऐसा कहा जाता है कि नूरमहल के बेलगा गाँव में सिखों के गुरु अर्जुनदेव एक बार ठहरे थे। यही नहीं, इलाके में यह कहानी भी प्रचलित है कि मुगल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां भी एक रात वहाँ रुकी थी, जिसके कारण उस इलाके का नाम नूरमहल सराय पड़ा था। आज तो पूरी दुनिया में नूरमहल श्री आशुतोष महाराज जी के आश्रम के कारण ही प्रसिध्द हो गया है।

हाँ तो, शिष्यों के आग्रह पर आशुतोष महाराज जी ने नूरमहल के छिंबिया मोहल्ला में सन् 1984-85 में अपना पहला आश्रम बनाया। नूरमहल का यह इलाका बेहद सुनसान था। यहाँ मुगलों के ज़माने के खंडहर होते थे, जिसे आतंकियों ने अपना ठिकाना बना रखा था। इस इलाके में शायद ही कोई शाम के बाद रुकता था। आशुतोष महाराज जी यहीं रहने और सत्संग करने लगे। धीरे-धीरे लोगों की आवाजाही बढ़ी, जिससे इस इलाके में व्याप्त भय का वातावरण कम हुआ। आज भी छिंबिया मोहल्ले का यह आश्रम महाराजजी के छोटे आश्रम के रूप में मशहूर है।

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जानकारी मिलती है कि नूरमहल के पास ही एक शंकर गाँव है। वहाँ एक बड़े तांत्रिक ने आशुतोष महाराज को अपने तंत्र-मंत्र के प्रयोग से सार्वजनिक तौर पर मारने की कोशिश की थी, लेकिन उसका प्रयास निष्पफल गया। उसे आशुतोष महाराज जी में साक्षात् शिव के दर्शन हुए और वह क्षमा मांगकर उनका शिष्य बन गया था। उस तांत्रिक ने बाद में आश्रमवासियों के समक्ष स्वीकारा कि “आशुतोष महाराज जी तो बहुत दूर की बात हैं, उसने जब भी उनके किसी प्रचारक का तंत्र के जरिए अहित करना चाहा तो साफ तौर पर दिखा कि महाराज जी उस प्रचारक के पीछे खड़े हैं!” कई बार तो उस तांत्रिक ने यह भी देखा कि वह प्रचारक कुछ नहीं बोल रहा है, बल्कि उसके मुख से आशुतोष महाराज ही सत्संग कर रहे हैं!

उन्हीं दिनों की एक और घटना का जिक्र करते हुए आश्रमवासी बताते हैं कि “एक बार महाराजजी से मिलने एक माता आयी थी। उन्होंने श्वेत वस्त्रा पहन रखे थे। उनके चेहरे से नूर टपक रहा था। काफी देर तक वह महाराज जी से एकांत में बातचीत करती रहीं। बाद में एक बहन उन्हें बस स्टैंड तक छोड़ने गयीं, लेकिन जब बहन बस स्टैंड पहुँची तो श्वेत वस्त्रा धरणी वह माता उनके साथ नहीं थीं! वह अलोप हो चुकी थीं! वह बहन डर गयीं। उन्होंने आश्रम लौटकर महाराजजी को यह घटना बताई। बाद में महाराज जी ने सभी को बताया कि वे साक्षात् शक्ति थीं, जो उनसे मिलने आयी थीं!”

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पंजाब में सत्संग करते आशुतोष महाराज जी।

आश्रमवासियों के मुताबिक समय-समय पर महाराज जी में दैवीय शक्तियां साफ दृष्गिोचर होती थीं! दरअसल आध्यात्मिक अनुभवों का भी अपना नियम है, जहां तक विज्ञान अभी भी नहीं पहुँच सका है! महान वैज्ञानिक मार्कोनी ने सृष्टि में होने वाले चमत्कारों के रहस्य तक पहुँचने में साफ तौर पर विज्ञान की असपफलता को स्वीकार किया है। उन्होंने कहा था- “जीवन के रहस्य को सुलझाने में विज्ञान पूर्णतः असमर्थ है। यदि श्रध्दा नहीं होती तो सचमुच यह बड़ा ही भयंकर तथ्य होता। मनुष्य की बुध्दि के सामने खड़े होने वाले प्रश्नों में जीवन का रहस्य निश्चय ही सबसे बड़ा और सबसे अधिक जटिल प्रश्न है।”

अपने अनुयायियों के आध्यात्मिक अनुभवों में आशुतोष महाराज जी के आने और समय-समय पर उनके अंदर की आध्यात्मिक शक्तियों को प्रकट करने वाली घटनाओं को आप मानें या न मानें, यह पूरी तरह उनके शिष्यों की आस्था और विश्वास से जुड़ा मसला है! लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जब पंजाब आतंकवाद से जल रहा था तो एक संत वैदिक ब्रह्मज्ञान के जरिए शांति स्थापना के प्रयासों में जुटे थे!

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