अध्याय-5

दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान अर्थात् ब्रह्मज्ञान की प्रयोगशाला

क बार श्री आशुतोष महाराज जी मुंबई में प्रवास पर थे। वे वहाँ एक बड़े उद्योगपति के अतिथि थे। जब भी वे मुंबई जाते, अकसर उनके यहाँ ही रुकते थे। जब भी वे उस उद्योगपति के यहाँ होते, बहुत सारे लोग उन्हें सुनने के लिए आते थे। वैदिक ज्ञान की सहज, वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण विवेचना के कारण वे जहाँ भी प्रवचन देते, लोग खिंचे चले आते थे। अभिजातवर्ग हो या सामान्य जनता, हर किसी को गूढ़ से गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों को आशुतोष महाराज जी इतनी सरलता से समझाते हैं कि सुनने वाले को विश्वास ही नहीं होता कि धर्म को धरण करना इतना सहज, इतना स्वतःस्पफूर्त है! ब्रह्मज्ञान की जटिलता को वे अकसर भगवान शिव के त्रिनेत्र का उदाहरण देकर समझाते हैं, जिससे सामान्य जन को भी अपने त्रिनेत्र के खुलने से अंतरतम में उतरने वाले प्रकाश की समझ न केवल सरलता से हो जाती है, बल्कि वह उस प्रकाश रूपी परमात्मा का अपने अंदर दर्शन करने के लिए व्याकुल भी हो उठता है! मुंबई के उस उद्योगपति के यहाँ जब भी श्री आशुतोष महाराज जी प्रवचन करते, उसका एक चपरासी छुप-छुप कर उनकी दिव्य वाणी को पीया करता था!

एक दिन श्री आशुतोष महाराज जीब्रह्मज्ञान को जनसामान्य के लिए सर्वसुलभ बताते हुए कह रहे थे, “ब्रह्मज्ञानशास्त्रासम्मत वह विध्हिै, जिससे मनुष्य आत्म-साक्षात्कार करता है। यह विधि तत्त्ववेताब्रह्मनिष्ठ गुरु अपने शिष्यों को देता है। ब्रह्मज्ञानही भारत की सनातन गुरु शिष्य परंपरा का आधार है। वह दिव्य विभूति जो ब्रह्मज्ञान द्वारा मनुष्य का तीसरा नेत्र खोलकर ही उसे उसके शरीर के भीतर आत्मा-परमात्मा का दर्शन करा दे, शास्त्रों के अनुसार वही सच्चा गुरु है।” वह चपरासी श्री आशुतोष महाराज जी से ज्ञान दीक्षा लेने के लिए व्याकुल हो उठा। फिर उसके कानों में श्री आशुतोष महाराज जी के प्रवचन गूँज, “भगवान शिव को देखो, उनके स्वरूप को समझो! श्रुति में भगवान शिव को ‘त्रयम्बकम्’ कहा गया। ‘अम्बक’ अर्थात् नेत्र। ‘त्रयम्बकम्’ अर्थात् तीन नेत्रों से युक्त। हम शिव के सौम्य योगी स्वरूप में उनके इन तीन नेत्रों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। इस संदर्भ में पुराणों में एक कथा आती है।”

“कहते हैं, एक बार माँ पार्वती ने हँसी-ठिठोली करते हुए महादेव के दो नेत्र अपनी हथेलियों से ढक दिये। इन नेत्रों के आवृत्त होते ही ब्रह्माण्ड में अंधकार छा गया। भुवन भास्कर- सूर्यदेव लुप्त हो गए। रजत ज्योत्स्ना छिटकाने वाले चन्द्र देव भी अमावस्या की खाई में डूब गए। सृष्टि तममय हो उठी। प्राणी अकुलाने लगे। ठीक इसी क्षण त्रयम्बकम् देव के ललाट पर तृतीय नेत्र प्रकट हुआ। उसकी पलकें ज्यों ही उठीं, महाज्वालाओं के स्फुलिंग फूट पड़े। इतनी प्रचंड अग्नि इस नेत्र से प्रस्फुटित हुई कि दसों दिशाएँ प्रकाशित हो गईं। दिग्दिगंत उजले हो उठे। यह देख देवी पार्वती हतप्रभ रह गईं। करबध्द होकर भगवान की स्तुति करने लगीं।”

श्री आशुतोष महाराज जी ने आगे समझाया- “यह कथा प्रतीकात्मक है। वास्तव में, यह रोचक शैली में भगवान शिव के तीन नेत्रों को परिभाषित करती है। पुराणों में भी भगवान शिव के तीन नेत्रों को क्रमशः सूर्य, चन्द्र और अग्नि स्वरूप बताया गया-वन्दे सूर्यशशाघड्ढवरिंनियनम् अर्थात् नमन है उन्हें, जो सूर्य, चन्द्र व अग्नि रूप नयनों वाले हैं। यही कारण है कि त्रिनेत्रधरी शिव को चन्द्रार्काग्निविलोचन भी कहा जाने लगा।”

श्री आशुतोष महाराज जी ने बताया-“परन्तु क्या केवल शिव ही त्रिनेत्रधरी हैं? नहीं! उनके स्वरूप का यह पक्ष प्राणीमात्र को एक गूढ़ आध्यात्मिक संदेश देता है। वह यह कि हर मनुष्य त्रिनेत्रधरी है। हमारे दाएँ-बाएँ, दो स्थूल नेत्र, सूर्य व चन्द्र स्वरूप ही माने गए हैं। हिन्दू दर्शनों में रीढ़ के दाएँ-बाएँ स्थित इडा व पिंगला नाड़ियों को भी चन्द्र तथा सूर्य की उपमा दी गई। साधरणतः हम सभी की ये दोनों नाड़ियाँ अर्थात् दोनों नेत्र सक्रिय होते हैं। परन्तु इनके अतिरिक्त मस्तक पर स्थित तीसरा नेत्र जीवनपर्यन्त सुषुप्त ही रहता है। इसलिए शंकर का जागृत तृतीय नेत्र प्रेरित करता है कि हम भी एक पूर्ण तत्त्ववेता का वरद प्राप्त कर अपना यह शिव-नेत्र जागृत कराएँ। इस नेत्र का प्रकटीकरण ही शिवत्व-प्राप्ति की पहली सीढ़ी है। कैसे? जैसे ही यह उद्योग सधेगा, आप अपने भीतर समाई ब्रह्म-सत्ता का साक्षात्कार करेंगे। इस नेत्र के खुलते या जागृत होते ही ईश्वर का दर्शन कर पायेंगे।”

श्री आशुतोष महाराज जी ने इस नेत्र के सम्बन्ध् में बड़ी गूढ़ बात कही- “जैसा कि ज्ञातव्य है कि इस शिव नेत्र के खुलते ही सृष्टि में प्रलय घटती है। ठीक यही प्रलयकारी प्रभंजन आपकी आंतरिक सृष्टि में भी कौंधता है। वासनाओं के महल और विकारों की उफँची-उफँची अट्टालिकाएँ भरभरा कर गिरने लगती हैं। वैसे भी, उक्त दृष्टांत में, इस नेत्र को अग्निस्वरूप कहा गया। इस अग्नि की दैवी भीषणता में साधक की काम-वासना भस्मसात् हो जाती है- दोषदाहकृत। ये ईश-साक्षात्कार और वासना-क्षय, दोनों शिवत्व की डगर के मील-पत्थर हैं। शिव की शिवता इनसे ही गुज़रकर स्थापित होती है।”

इसी के प्रमाणस्वरूप श्री आशुतोष महाराज जी ने शिवपुराण का ‘कामदहन’ प्रसंग सुनाया- “एक बार भगवान शिव कैलाश पर ध्यान में तन्मय थे। किस प्रकार के ध्यान में? इस विषय में कवि कालिदास अपनी रचना ‘कुमारसंभव (3/50)’ में लिखते हैं-

मनो नवद्वारनिषिध्दवृत्ति हृदि व्यवस्थाप्य समाधविश्यम्।

यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमात्मन्यवलोकयन्तम्।।

अर्थात् अपनी मानसी वृत्तियों को समाधि के द्वारा वशीभूत करके शिव उस अक्षर आत्मतत्त्व को अपने शरीर में ही देख रहे थे, जिसका कि योगी जन ज्ञान अर्जित करते हैं। अतः इससे स्पष्ट है कि शिव अपने तृतीय नेत्र द्वारा अक्षर-ब्रह्म का साक्षात्कार या दर्शन किया करते हैं।

कथा आगे बताती है कि इस क्षण कैलाश पर कामदेव का आगमन हुआ। उन्होंने जैसे ही अपने काम-लैस बाण का संधन किया, शिव के तृतीय नेत्र से भयंकर ज्वालाएँ निकलीं और तत्क्षण कामदेव का अग्निसंस्कार हो गया-

भस्मावशेषं मदनं चकार। तब सिव तीसर नयन उघारा।

चितवत काम भयउ जरि छारा।।

“शिव के जैसी कि श्री आशुतोष महाराज जी की विशिष्टता रही है, वे शास्त्रीय प्रसंगों को वैज्ञानिक शैली में समझाया करते हैं उन्होंने

बताया, “ तीसरे नयन और काम-दहन के बीच भी एक अनुपम वैज्ञानिकता समझाई। विज्ञान के अनुसार हमारे मस्तिष्क में एक ग्रन्थि है, जिसे ‘पिट्यूट्रिग्रंथि’ कहते हैं। इस ग्रन्थि के कुछ भीतरी अवयव एक इंसान में वासनात्मक भावों को जन्म देते हैं। परन्तु हमारे मस्तिष्क में एक और अद्भुत ग्रन्थि है, जिसे वैज्ञानिकों ने ‘पीनियलग्रंथि’ नाम दिया है। यह ग्रन्थि वासना-भाव की अवरोधक है। इससे मेलाटॉनिन नामक स्राव निकलता है, जो कामुक उफानों पर रोक लगाता है। बाल्यकाल में यह स्राव अच्छी मात्रा में होता है। परन्तु किशोरावस्था के आते-आते पीनियल ग्रन्थि की क्रियाएँ क्षीण होने लगती हैं और स्राव घटने लगता है। यही कारण है कि युवावस्था काम-वेगों से पीड़ित रहती है। परन्तु अन्वेषकों का मत है कि यदि इस पीनियल ग्रन्थि को पुनः सक्रिय कर लिया जाए, तो प्रत्येक जीवनावस्था में हम कामजयी बन सकते हैं।

श्री आशुतोष महाराज जी ने समझाया- “यह पीनियल ग्रन्थि ही वास्तव में तृतीय नेत्र का स्थूल निवास स्थान है। शिव नेत्र इस ग्रन्थि में सूक्ष्म रूप से सुषुप्त पड़ा रहता है। परन्तु सतगुरु द्वारा इस नेत्र के खुलते ही पीनियल ग्रन्थि भी सक्रिय हो उठती है। इस सक्रियता के साथ ही वासनात्मक प्रवाहों पर सशक्त बांध बंधता है। यही है काम-दहन की लीला जो शिवत्व की डगर पर हर साधक के जीवन में घटती है।”

प्रवचन न जाने कबका समाप्त हो गया, लेकिन वह चपरासी वहाँ घंटों बैठकर रोता रहा! क्या मुझ जैसे अति सामान्य व्यक्ति का तीसरा नेत्र जागृत हो सकता है? क्या मुझे भी परमात्मा दिख सकते हैं? ‘क्यों नहीं!’ श्री आशुतोष महाराज जी की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह हड़बड़ा कर अपना स्टूल छोड़कर उठ बैठा! ‘तुम यही सोच रहे थे न कि तुम कैसे परमात्मा को पा सकते हो?’ अपने मन की बात श्री आशुतोष महाराज जी के मुख से सुनकर वह विस्मय में पड़ गया!

‘छोड़ो इस बारे में मत सोचो कि मैंने तुम्हारे मन की बात कैसे जान ली? तुम केवल परमात्मा के बारे में सोचो, जो तुम्हें पुकार रहा है! तुम्हारे अश्रुओं से स्पष्ट है कि तुम सच्चे जिज्ञासु हो। तुम्हारे हृदय की व्याकुलता दर्शाती है कि तुम उस परमात्मा के श्रेष्ठतम ज्ञान के अधिकारी बन गए हो। क्या तुम मुझे अपने घर नहीं ले चलोगे?’ श्री आशुतोष महाराज जी के यह कहते ही जैसे उसकी तंद्रा टूटी!

उस चपरासी ने कहा, “महाराजजी, आप बड़े-बड़े लोगों को ज्ञान देते हैं! उनके यहाँ रुकते हैं! क्या इस गरीब के यहाँ आप जा सकेंगे?”

“तुमसे यह किसने कहा कि ब्रह्मज्ञान केवल अमीरों के लिए है? किसने तुम्हें यह समझाया कि सद्गुरु पर केवल अमीरों का अधिकार है? जब ज्ञान कुछ लोगों तक सीमित होकर रह जाए तो वह ज्ञान नहीं, अज्ञानता का सबसे बड़ा कारण बन जाता है! हमारा उद्देश्य तो इस ज्ञान को जन-जन तक जनसामान्य की भाषा में पहुँचाना है। अब सोच क्या रहे हो, मुझे अपने घर नहीं ले चलोगे?” महाराज की बातें सुनकर चपरासी ने अपने आँसू पोंछे और श्री महाराज जी का लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा।

आशुतोष महाराज जी उस चपरासी के घर पहुँचे। वह चपरासी और उसका परिवार बेहद गरीब था। एक कमरे के मकान में किसी तरह वो लोग रह रहे थे। बैठने तक की जगह उस कमरे में नहीं थी। उसने कहा, ‘महाराज जी, इस गरीब के यहाँ आप कैसे बैठेंगे?’ महाराज ने कहा, ‘किसने कहा कि बैठने के लिए जमीन पर स्थान चाहिए। उसके लिए हृदय में स्थान होना ही बहुत है। और तुम्हारे हृदय में मेरे लिए बहुत स्थान है, यह मैं देख चुका हूँ।’

चपरासी ने पत्नी से कहा कि महाराजजी के लिए चाय बनाओ। आशुतोष महाराज जी चाय नहीं पीते थे। विदेश में रहे, पढ़े, प्रचार किया, लेकिन कोई व्यसन उन्हें कभी छू नहीं पाया था। लेकिन उस दिन प्रेम में विह्वल उस चपरासी को देखकर उन्होंने कहा, ‘हाँ! लाओ चाय, लाओ! हम चाय पीएंगे!’

चपरासी की एक बेटी थी, जो उम्र के बहाव में गलत रास्ते पर निकल पड़ी थी। चपरासी ने महाराजजी को बताया कि उसकी बेटी पतित हो चुकी है! श्री आशुतोष महाराज जी ने कहा, ‘आज से इसका नया जन्म होगा!’ उन्होंने न केवल माता-पिता, बल्कि उनकी बेटी को भी ज्ञान दीक्षा दी। चपरासी की बेटी ने श्री महाराज जी के चरण पकड़ लिए। उसने कहा, ‘मेरे माता-पिता मुझे हिकारत की नज़र से देखते हैं और आपने मुझे उबारा, मेरे अंदर साक्षात् परमात्मा के दर्शन करा दिए। अब भविष्य में मैं कभी गलत रास्ते पर नहीं जाऊँगी!’ महाराज जी ने कहा- ‘अब चाहो भी तो भी तुम गलत रास्ते पर नहीं जा सकती! यह मैं जानता हूँ!’ पूरे परिवार को ज्ञान दीक्षा देकर श्री आशुतोष महाराज जी वहाँ से लौट गए।

मुंबई में ही एक अमीर परिवार उनका अनुयायी था। एक दिन जब श्री आशुतोष महाराज जी प्रवचन कर चुके तो उस परिवार के मुखिया ने कहा, ‘महाराजजी, मेरा एक बेटा है। बहुत संस्कारी है। इसकी शादी करनी है, लेकिन डरता हूँ, यदि गलत लड़की घर में आ गयी तो घर को तहस-नहस कर देगी। सोचता हूँ, आपसे दीक्षित कोई कन्या हो तो मेरे परिवार को संभाल ले।’ महाराजजी ने तत्काल उस चपरासी की बेटी के बारे में उसे बताया और कहा कि वही उनके बेटे के लिए उपयुक्त बहु होगी। एक तो चपरासी, उस पर से उसकी बेटी के पीछे बदनामी- इसलिए वह व्यक्ति नाक-भौं सिकोड़ने लगा, न-नुकर करने लगा। श्री आशुतोष महाराज जी ने तुरंत भांप लिया। उन्होंने कहा- ‘जानता हूँ! तेरा मन दुविधाग्रस्त है। इस परिवार की सामाजिक स्थिति तेरे अनुकूल नहीं है। और तू इस चपरासी की बेटी के चरित्र को लेकर भी सशंकित है! लेकिन अभी तो तू मुझे उस चपरासी से भी दीन प्रतीत हो रहा है! वह धन, प्रतिष्ठा और सम्मान में तेरे से ज़रूर छोटा है, लेकिन प्रभु के दरबार में उसकी स्थिति तेरे से कहीं अधिक उच्च है। प्रभु के लिए निश्छल प्रेम उसकी आँखों से बरसा है पर तू तो अभी भी उस स्तर से दूर है।’ वह धनपशु सिर झुकाए उनकी बात सुनता रहा।

श्री आशुतोष महाराज जी ने कहा, ‘मेरा ब्रह्मज्ञान व्यक्ति-व्यक्ति के बीच के भेद को मिटा देता है, लेकिन लगता है तेरे अहंकार की परत आज भी तेरे हृदय को आच्छादित किए हुए है! अरे! इसकी जिस बेटी को लेकर तू सशंकित है, वह तो नर्क से लौट आयी है, लेकिन तू नर्क में कब तक पड़ा रहेगा! उसने नर्क देख लिया है, इसलिए दोबारा उसके नर्क में लौट कर जाने की कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन तुझे देख रहा हूँ धन के उस नर्क में पड़ा हुआ है, और उससे बाहर भी नहीं निकलना चाहता। वह बेटी ठोकर खाकर सुधर चुकी है, लेकिन तू कब सुध्रेगा?’ आशुतोष महाराज जी के सत्य वचन सुनकर वह धनवान व्यक्ति व उसका परिवार उनके चरणों में गिर पड़ा। उन्होंने चपरासी की बेटी को अपनाने का वचन दिया और कुछ वर्ष बाद उस परिवार के बेटे की शादी उस चपरासी की बेटी से हो गयी। आज दोनों पति-पत्नी बेहद खुश हैं! दोनों के साथ-साथ दोनों के परिवार श्री आशुतोष महाराज जी के अनुयायी हैं।

इस घटना का ज़िक्र श्री आशुतोष महाराज जी अकसर उस वक्त करते हैं, जब अपने किसी शिष्य को उफँच-नीच के भेद में पड़ते हुए देखते हैं। उनका साफ कहना है कि ‘मैं ‘सुध्रे हुए सुधरकों’ की पफौज खड़ी कर रहा हूँ। ये सुध्रे हुए सुधरक ही सृजन-सेनानी बनकर नए समाज का निर्माण करेंगे।’ आज राजनीति, समाज और धर्म के क्षेत्र में आ रही गिरावट पर वे अकसर कहा करते हैं, ‘आज की दिक्कत यह है कि स्वयं सुधारक ही सुध्रे हुए नहीं हैं। इसलिए ऐसे सुधरकों से समाज में बदलाव की अपेक्षा करना दिवास्वप्न देखने के समान ही है।’ अपने शिष्यों से वे कहा करते हैं- ‘मैं नेता नहीं, सृजेता बनाने आया हूँ!’

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श्री आशुतोष महाराज जी की शक्ति अतिमानवी है, लेकिन उनका कार्य देखने पर अति सामान्य लगता है। और यह अति सामान्य कार्य ही समाज की मूल इकाई-‘व्यक्ति’ को ‘ब्रह्म’ बनाने का सामर्थ्य रखता है! समाज ने जिसे ठुकरा दिया है, जिससे घृणा करता है, जिसके प्रति उपेक्षा का भाव रखता है, श्री आशुतोष महाराज जी उन्हें ब्रह्मज्ञानी के साथ-साथ जीवन जीने के लिए हुनरमंद बनाने में संलग्न हैं। देश की अन्य सामाजिक-आध्यात्मिक संस्थाओं में जहाँअभिजातवर्गीय लोगों को खुद से जोड़ने की होड़ लगी रहती है, वहीं दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान (श्री आशुतोष महाराज जी द्वारा संस्थापित व संचालित संस्थान) ने आतंकवादियों से लेकर जेल में सजा काट रहे कैदियों को आंतरिक रूप से बदलने का कार्य किया। आतंकवाद से पीड़ित पंजाब में वे किस तरह से बदलाव की बयार लेकर आए, इसे पाठक पिछले अध्याय में पढ़ चुके हैं। तिहाड़ जेल सहित देश भर की करीब 40 जेलों में बंद कैदियों के जीवन को आध्यात्मिक रूप से बदलने के लिए आज यदि दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान जुटा हुआ है तो यह आशुतोष महाराज जी के सशक्त मार्गदर्शन व दिव्य संकल्पों से ही संभव हुआ है। आशुतोष महाराज जी का कहना है कि ‘समाज से अपराध को मिटाना हैन कि अपराधी को।’ इसी लक्ष्य को लेकर कैदियों के जीवन में सुधर के लिए ‘अंतरक्रांति’ नाम से पूरे देश की जेलों में कार्यक्रम पिछले कई सालों से चलाया जा रहा है।

दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के मुख्य सचिव स्वामी नरेंद्रानंद जी कहते हैं, “इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जेल की चारदीवारी में बिखरे व्यक्तित्वों का निवास है। उनकी मनःस्थिति को लगातार देख-रेख की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त रिहा होने के बाद भी उनको नए सिरे से जीवन की शुरुआत तथा पुनर्निर्माण करना होता है। चाहे वे दोषी हों या नहीं, फिर भी जेल की मुहर उनके माथे पर हमेशा के लिए लग जाती है। बाहरी समाज उन्हें सहजता से स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। अतः रिहाई के उपरंत भी, अपने सामाजिक परिवेश से जूझने हेतु उन्हें मानसिक व आध्यात्मिकशक्ति की जरूरत पड़ती है।

“समाज के इस उत्पीड़ित वर्ग की इन्हीं मौलिक आवश्यकताओं को मद्देनजर रखते हुए, सन् 1996 में दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ने एक गैर सरकारी संगठन के रूप में तिहाड़ जेल के प्रांगण में कदम रखा। इसी के साथ आरंभ हुई कैदियों की अपराधी वृत्तियों की परख तथा उनके आंतरिक सौंदर्य व ओज को बढ़ाने की प्रक्रिया! कैदियों के जीवन में इतना बदलाव आया कि परिणाम से उत्साहित जेल प्रशासन ने जेल के अंदर ही आध्यात्मिक केंद्र स्थापित करने के लिए दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान से आग्रह किया। इसके फलस्वरूप 9 मई, 1998 को जेल नंबर-3 में स्थाई आध्यात्मिक केंद्र की स्थापना की गई। आज देश की 40 जेलों में ब्रह्मज्ञान के जरिए कैदियों के आंतरिक जीवन को बदलने की प्रक्रिया चल रही है।

“जेल-आबादी की रूपरेखा अनेकों प्रकार की है। यहाँ गाँवों के, शहरों के, महानगरों के पढ़े-लिखे और अनपढ़ भी हैं, छोटे-मोटे चोर, चतुर, धोखेबाज, हत्यारे, तस्कर, नशीली दवाओं के कारोबारीऔर तो और बहुत से सभ्य परिवार के निर्दोष लोग भी हैं। जिन विकृतियों से दोषी लोग पीड़ित हैं, वे भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। परंतु हजारों कैदियों के अनुभवों के आधर पर हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि ‘ब्रह्मज्ञान’ सभी प्रकार की मानसिक वृत्तियों के लिए अचूक वरदान सिध्द हुआ है।‘ब्रह्मज्ञान’ से बढ़कर कैदियों के सुधर का अन्य कोई विश्वस्त, शीघ्रकार्यकारी तथा विशुध्द तरीका नहीं हो सकता।

आखिर तिहाड़ जेल में कैदियों के सुधर कार्यक्रम की योजना आशुतोष महाराज जी ने कब और किस प्रकार प्रकट की? इसके बारे में दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के अध्यक्ष स्वामी आदित्यानंद जी बताते हैं। वह कहते हैं, “एक दिन श्री आशुतोष महाराज जी शांत मुद्रा में विराजमान थे। एकाएक उन्होंने अपनी शांत मुद्रा में दिल्ली की तिहाड़ जेल में आध्यात्मिक सत्संग आयोजित करने की इच्छा जाहिर की । उन्होंने कहा- ‘क्या हम जेल परिसर के अंदर कैदियों के लिए सत्संग आयोजित नहीं कर सकते?’ इस प्रश्न में उनकी अदम्य आकांक्षा स्पष्ट दिखाई दे रही थी। गुरु महाराजजी के शब्दों ने सभी को अवाक् कर दिया। ऐसा लगा जैसे कि यह हमारी सामर्थ्य तो क्या, कल्पना से भी बाहर की बात है। ईमानदारी से कहता हूं कि उस समय किसी की भी सीमित दृष्टि एवं बुध्दि महाराजजी के दिव्य शब्दों में छिपी महानता तथा विशाल हृदयता को साफ तौर पर नहीं देख सकी थी।

“परंतु उन्हीं दिनों, हम गुरु महाराजजी के इस दैवी उद्बोधन पर आपसी विचार कर ही रहे थे कि उनकी कृपा से एक महिला ‘ब्रह्मज्ञान’ में दीक्षित हुई। इसे आप मात्र संयोग कहेंगे या दैवी कामना या करिश्मा कि उसके ज्ञान लेते ही उसके पति तिहाड़ जेल में अधीक्षक के पद पर नियुक्त हो गए। जब उस महिला ने दीक्षा के समय हुए अपने अद्भुत अलौकिक अनुभव अपने पति को सुनाए, तो वे उन पर विश्वास ही न कर सके। वह महिला अपने पति को दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के सत्संग भवन में लेकर आई। यहाँ मेरी उनसे लंबी और हार्दिक बातचीत हुई। ‘ब्रह्मज्ञान’ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मैंने उन्हें बताया कि किस प्रकार इससे अभिभूत होकर पंजाब के असंख्य नौजवानों की शिदगियों में क्रांतिकारी रूप से परिवर्तन आया। जिन युवाओं ने नशीली दवाओं की लत तथा अन्य खतरनाक आदतें पाल रखी थीं, जिनके पुनरुध्दार की कोई उम्मीद ही नहीं थी, उन्हें कैसे ‘ब्रह्मज्ञान’ ने सार्थक जीवन प्रदान किया है। यह सुनकर उन महाशय की संशय-तरंगें कुछ थमीं। अंत में उन्होंने कहा-‘स्वामी जी, यह एक स्वस्थ्य विचार विमर्श था। मैं अभी हाल ही में तिहाड़ में अधीक्षक के पद पर पदस्थ हुआ हूँ। इन विचारों को सुनकर मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ कि यदि कैदियों के लिए आध्यात्मिक प्रवचनों का कार्यक्रम आयोजित किया जाए, तो इसका उन पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ेगा।’ जैसे ही उन्होंने तिहाड़ जेल का नाम लिया, मेरे सामनेगुरुमहाराजजी के शब्द जीवंत हो उठे। तत्समय मैंने उनकी दिव्य संकल्प और शक्ति के क्रियाकलापों को सशक्त रूप से महसूस किया।

“महाराजजी की आज्ञा व आशीर्वाद लेने के बाद हमने कार्यक्रम का समय सुनिश्चित किया। जेल के कैदियों को लेकर तरह-तरह की आशंकाएँ मन में जन्म ले रही थीं। महाराजजी नेआश्वासन देते हुए कहा था-‘चिंता मत करो! वे भी मनुष्य हैं। वे वास्तव में वैसे नहीं हैं। मानसिक विकार अथवा वृत्तियाँ उनसे जघन्य अपराध करा देती हैं। परंतु ईश्वर ने हर मनुष्य को दिव्यता का वरदान दिया है। तुम जाओ और उनके अंदर की उस सहज दिव्यता को अनुप्राणित करो, जो आज हिंसा, दुश्मनी तथा अज्ञानताओं के कारण ढकी हुई हैं। और हाँ, सदैव ध्यान रहे- पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ उस समय हमारे सामने दो कठिन चुनौतियाँ थीं। पहली, जेल अधिकारियों के सामने खूंखार अपराध्यिों पर ‘ब्रह्मज्ञान’ की प्रभावशीलता को प्रमाणित करना। दूसरी, अपना कार्य प्रभावशाली ढंग से करने के लिए कैदियों के दिलों में जगह बनाना। गुरु महाराजजी के दिव्य आशीर्वाद सेसुरक्षा कवच तथा कदम-कदम पर मार्गदर्शन ने इन कठिन परिस्थितियों को भी सीख देने वाले सुंदर अनुभवों में बदल दिया।

“जेल से लौटने के बाद वहाँ बिताए प्रत्येक क्षण को हम उत्सुकतापूर्वक महाराजजी को बताते थे। महाराजजी भी घंटों तक हमारी हर बात को ध्यानपूर्वक सुनते थे तथा इस महान अभियान को आगे बढ़ाने के लिए निर्देश दिया करते थे। इस अवधि के दौरान हम स्पष्टतः महसूस करते थे कि मानवता के प्रति महाराजजी कितने चिंतित हैं, विशेषकर उन लोगों के लिए जिन्हें समाज ने ‘खतरनाक तत्व’ के रूप में बहिष्कृत कर दिया है।”

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अब सवाल उठता है कि श्री आशुतोष महाराज जी द्वारा दिया जाने वाला यह ‘ब्रह्मज्ञान’ आखिर है क्या, जिसकी प्रयोगशाला बनकर आधुनिक समय में दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान उभरी है! आदि गुरु शंकराचार्य कहते हैंः

शुध्दाद्वय-ब्रह्मविबोधश्या

सर्पभ्रमो रज्जुविवेकतो यथा ।

रजस्तमः सत्वमिति प्रसिध्दा

गुणास्तदीयाः प्रथितैः स्वकार्यैः ।। 110 ।। (विवेक चूड़ामणि)

अर्थात्- जैसे रस्सी के ज्ञान से सर्प का भ्रम दूर होता है, वैसे ही शुध्द अद्वय ब्रह्म के साक्षात्कार द्वारा इस माया का नाश होता है। अपने कार्यों से प्रसिध्द होने वाले सत्व, रज, तम- ये तीनों माया के ही गुण हैं।

आखिर ब्रह्म कैसा है? उसका रूप कैसा है? वह किस प्रकार प्रकट होता है? ब्रह्म के स्वरूप की विवेचना करते हुए आदि गुरु शंकराचार्य कहते हैंः

अतः परं ब्रह्म सदद्वितीयं

विशुध्द-विज्ञानघनं निरंजनम् ।

प्रशांतमाद्यन्त-विहीनमक्रियं

निरन्तरानंद-रस-स्वरूपम् ।। 237 ।।

निरस्त-मयाकृत-सर्वभेदं नित्यं सुखं निष्कलमप्रमेयम् ।

अरूपमव्यक्तमानाख्यमव्ययं

ज्योतिः स्वयं किंचिदिदं चकास्ति ।। 238 ।।

अर्थात्- अतः जो कुछ इस जगत् के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है, वह सब वस्तुतः ब्रह्म ही है। वह सत्य स्वरूप ब्रह्म अद्वितीय, विशुध्द विज्ञानघन (चैतन्य-स्वरूप), निरंजन (निष्पाप), प्रशांत (क्षोभरहित), आदि-अंत (उत्पत्ति-विनाश) से रहित, निष्क्रिय, निरंतर-आनंद-रस-स्वरूप, मायाकृत सारे भेदों से रहित, नित्य, सुखरूप, निष्पफल (ह्रास-वृद्धि रहित), प्रमाणों के अतीत, निराकार (मन-वाणी के), अगोचर, अविनाशी तथा स्वयं-ज्योति (दूसरों के द्वारा अप्रकाश्य) है।

आदि गुरु शंकराचार्य ने जिसे ‘स्वयं-ज्योति’ कहा है,श्री आशुतोष महाराज जी ने उसे ही अपने दीक्षा-ज्ञान के द्वारा अपने शिष्यों के हृदय में प्रकट कर दिया! श्री आशुतोष महाराज जी ने कहा, “‘ब्रह्मज्ञान’ अपने अंतस् में स्थित ब्रह्म-सत्ता का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करना है। दिव्य दृष्टि द्वारा ईश्वर या परम तत्त्व का साक्षात् दर्शन प्राप्त करना है। यह ज्ञान सदा से एक असाधरण विषय माना जाता रहा है। निःसन्देह, ब्रह्मज्ञान अथवा ईश्वर-दर्शन असाधरण ही है। पर बताने वालों ने इसे असाधरण के साथ-साथ इतना दुर्लभ, असाध्य और पहुँच से बाहर बता डाला है कि आज का आम इंसान इसको पाने की सोचता तक नहीं। परन्तु शास्त्रों के विरुध्द इस मत का प्रचार उन्हीं तथाकथित साधु-संतों ने किया, जो स्वयं परमात्मा को प्राप्त नहीं कर पाए।”

श्री आशुतोष महाराज जी कहते हैं- “यह तो सर्वविदित ही है कि ब्रह्म का साक्षात्कार किया हुआ ब्रह्मज्ञानी संत करोड़ों में कोई एक हुआ करता है। विडम्बना यह हुई कि उस एक ब्रह्मज्ञानी संत का मत, परमात्मा को न जानने वाले तथाकथित असंख्य साधुओं के मत के आगे नगण्य सा रह गया और यह धरणा जनसामान्य के मन में घर कर गई कि परमात्मा को देखा ही नहीं जा सकता। यही कारण है कि आज का मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करने की सोचता तक नहीं। परन्तु यह युक्तियुक्त नहीं है।

“दरअसल, ब्रह्मज्ञान अथवा ईश्वर-दर्शन तो प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिध्द अधिकार है। परमात्मा को देखना उतना ही सहज है, जितना कि किसी व्यक्ति का सूर्य के प्रकाश का दर्शन करना। किसी नेत्रहीन का सूर्य को देखना कठिन नहीं है बल्कि कठिन है तो किसी ऐसे काबिल नेत्र विशेषज्ञ का मिल जाना, जो उसके नेत्रों का सही उपचार कर दे। फिर उस नेत्रहीन को सूर्य के प्रकाश को देखने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना पडे़गा। इसी प्रकार परमात्मा को देखना कठिन नहीं है कठिन है तो ऐसे सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु का मिलना, जिसने स्वयं तो परमात्मा को प्राप्त किया ही हो और जिज्ञासुओं को भी तत्क्षण परमात्मा के दर्शन कराने की सामर्थ्य रखता हो। अतः जिस भी मनुष्य के भीतर सच्ची जिज्ञासा है, उसके लिए ईश्वर का दर्शन होना एक सहज-सुगम घटना है। इसलिए कहता हूँ, ब्रह्मज्ञान दुर्लभ नहीं दुर्लभ तो है ऐसे ब्रह्मज्ञान प्रदायक तत्त्ववेता सद्गुरु का मिलना, जो इस परम-विद्या का उद्घाटन हमारे भीतर कर सकें। कारण कि एक ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु ही इस ज्ञान के उद्घाटक हैं।”

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श्री आशुतोष महाराजजी के ‘ब्रह्मज्ञान’ की दीक्षा को एक अभियान बनाकर जन-जन तक पहुँचाने के लिए जून, 1991 में ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ की स्थापना की गई, जिसके अंतर्गत प्राणी से लेकर प्रकृति तक-ब्रह्मांड की एक-एक इकाई के लिए योजनाबध्द तरीके से कार्य चल रहा है। बंदियों में सुधर के लिए ‘अंतरक्रांति’, नेत्रहीन व अशक्त लोगों के लिए ‘अंतरदृष्टि’, समाज में लिंग असमानता को दूर करने और भ्रूण हत्या को रोकने के लिए ‘संतुलन’, नशा उन्मूलन के लिए ‘बोध’, निरोगी काया के लिए ‘आरोग्य’, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ‘संरक्षण’, दुर्लभ हो चुकी भारतीय नस्ल की गायों के संरक्षण व संवधर्न के लिए ‘कामधेनु’, अभावग्रस्त बच्चों की शिक्षा के लिए ‘मंथन’ एवं युवाओं के सृजनात्मक विकास के लिए ‘सैम’ (सेल्पफ एसेसमेंट एंड मैनेजमेंट) के जरिए ब्रह्मांड में हर ओर चैतन्य-स्वरूप ‘ब्रह्म’ को देखने की क्रांति चल रही है और इसका एक मात्र आधर, आत्म-साक्षात्कार है।

श्री आशुतोष महाराज जी का मानना है कि ‘मन’ ही सभी समस्याओं की जड़ है। यदि ‘मन’ को निर्मल बनाना है, तो आत्म-साक्षात्कार से गुजरे बिना यह संभव नहीं है। एक व्यक्ति चोरी बाद में करता है, लेकिन चोरी से पहले चोरी का विचार उसके मन में आ जाता है। व्यक्ति मन के वशीभूत है। ‘मन’ का वास्तविक स्वभाव उर्ध्वमुखी होना है, लेकिन अज्ञानता के कारण लोगों का ‘मन’ अधेमुखी है। जब तक व्यक्ति आत्मा को नहीं जान लेता, मन के चंगुल से वह मुक्त नहीं हो सकता है।

वर्तमान में श्री आशुतोष महाराज जी के हजारों पूर्ण कालिक समर्पित कार्यकर्ता व संन्यासी प्रचारक शिष्य व शिष्याए ‘ब्रह्मज्ञान’ के तेज को फैलाने में जुटे हुए हैं। भारत में इस समय एक भी ऐसी आध्यात्मिक संस्था नहीं है, जहाँ इतनी बड़ी संख्या में युवा संन्यासी, घर-बार छोड़कर, गृहस्थ आश्रम के मायाजाल में पड़े बिना ‘ब्रह्मज्ञान’ को घट-घट में उतारने के लिए निष्काम भाव व प्राणपण से जुटे हुए हों! पूर्व में होता था कि लोग समाज से पलायन कर संन्यास की ओर मुड़ते थे, लेकिन यहाँ जनमानस को अध्यात्म द्वारा सशक्त समाज की ओर ले जाने का अभियान चल रहा है। समाज हो या राजनीति-बिना अध्यात्म सब निष्प्राण है!

श्री आशुतोष महाराज जी का मानना है कि जिसकी स्वयं की क्षमता पूर्ण विकसित न हुई हो, वह दूसरों के लिए क्या करेगा? और यही घोषणा उपनिषद् भी करते हैं। ‘केन उपनिषद्’ में साफ तौर पर कहा गया है- ‘उपनिषदों का प्रतिपाद्य ब्रह्म ही है। ब्रह्म की मैं उपेक्षा न करूँ और ब्रह्म भी मेरी उपेक्षा न करे! ब्रह्म के द्वारा मेरा परित्याग न हो और मैं भी ब्रह्म का परित्याग न करूँ।’ अर्थात एक-एक इकाई ब्रह्म है और ब्रह्म को उपलब्ध् होना है तो पहले स्वयं को उपलब्ध् होना होगा। जो स्वयं के लिए अर्थपूर्ण होगा, वही किसी और के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए, विश्व के लिए और अंत में अखिल ब्रह्मांड के लिए अर्थपूर्ण हो सकेगा!

वैदिक ब्रह्मज्ञान को आधुनिक समय में जन-जन तक पहुँचाने के लिए आशुतोष महाराज जी ने वैदिक गुरु-शिष्य परंपरा को फिर से जीवित किया। भारत की सभ्यता-संस्कृति-दर्शन और अध्यात्म की आत्मा गुरु-शिष्य परंपरा ही रही है, जो ‘मैकालीय शिक्षा पध्दति’ के कारण पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है। आशुतोष महाराज जी ने इसे फिर से स्थापित किया है। उनके प्रचारक शिष्यों में 95 फीसदी से अधिक साधवियाँ हैं। एक साध्वी बहन कहती हैं, “यहां 99 फीसदी कथावाचक नारियाँ हैं। स्वामी दयानंद सरस्वतीजी ने एक स्वप्न देखा था कि एक समय ऐसा आएगा, जब भारत में नारियाँ भी सार्वजनिक रूप से वेदपाठ करेंगी, ‘व्यासपीठ’ पर बैठने की अधिकारी होंगी। श्री आशुतोष महाराज जी ने उसे साकार कर दिखाया है। वैसे तो सनातन काल में गार्गी, मैत्रोयी, अपाला, मेध, जयंती आदि नारियाँ ब्रह्मवादिनी थीं। यह तो भारत को बदनाम करने के लिए एक अफवाह फैलाई गई कि वैदिक काल में नारियों को स्थान नहीं दिया गया था। लंबे समय तक चली अफवाह के कारण ही हमारा जनमानस इसे सच मान बैठा। महाराज जी ने ‘व्यासपीठ’ पर वैदिक ऋचाओं का गान करने वाली महिलाओं को बैठाकर जनमानस की उस जड़ता पर प्रहार किया है। ऐसी भविष्यवाणी की गई है कि 21 वीं सदी में एक संत ऐसा आएगा, जिनकी हजारों शिष्याएँ होंगी और वही युग परिवर्तन का वाहक बनेगा। आधुनिक काल में एक मात्र महाराज जी ही हैं, जिनके शिष्यवृंद में नारियों की संख्या सर्वाधिक है। महाराज जी का भजन भी है- ‘ऐसा ब्रह्ममुहूर्त आएगा, जब नारी नवयुग लाएगी।’ वैदिक मंत्रोच्चारण करती महाराज जी की शिष्याएँ आज उस नवयुग की स्थापना के लिए शंखनाद कर रही हैं।”

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वैदिक गुरु-शिष्य परंपरा को पुनः प्राण प्रदान करते हुए आशुतोष महाराज जी ने उन्हें न केवल ब्रह्मज्ञान दिया, बल्कि ब्रह्मज्ञान प्रदान करने की वह शक्ति भी प्रदान की, जो केवल गुरु कृपा से ही मिलता है। उन्होंने अपने ब्रह्मज्ञानी शिष्यों की एक ऐसी पफौज तैयार की, जो गुरु कृपा से नए शिष्यों को दीक्षा प्रदान कर सकें। आशुतोष महाराज जी का मानना है कि ब्रह्मज्ञान पर सबका समान अधिकार है, चाहे वह जेल में बंद कैदी हो या फिर सामान्य गृहस्थ। सन् 1990-91 तक वह खुद ही दीक्षा देते रहे, लेकिन जब दीक्षा कर्म को संपादित करने वाले शिष्यों में उन्होंने पूर्णता रोपित कर दी तो उन्होंने स्वयं दीक्षा देना बंद कर दिया। पूरे देश में हर जगह उनका जाना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों की एक ऐसी पौध तैयार की, जो दीक्षा क्रम को संपादित करने में निष्णात है।

जानकारी के अनुसार, सबसे पहले सन् 1990 में गीता बहन को दीक्षा देने का अधिकार और चोला (संन्यासी का भगवा वस्त्रा) मिला। उनके बाद तो पूर्ण ब्रह्मज्ञानी शिष्यों की संख्या बढ़ती चली गई। आज देश भर में फैले ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ के केंद्रों पर ब्रह्मज्ञान प्रदान करने वाले शिष्यों का अलग समूह है, जिनका कर्म ही दीक्षा प्रदान करना और लगातार ध्यान-साधना के जरिए पूर्ण गुरु के अथाह उफर्जा स्रोत से गर्भनाल की तरह खुद को जोड़े रखना है। देश भर में फैले केंद्र पर दीक्षा क्रम का आयोजन किया जाता है, जहां बड़ी संख्या में आम लोगों को उनके अंतरतम में साक्षात् ईश्वर का दर्शन कराने वाला ‘ब्रह्मज्ञान’ प्रदान किया जाता है।

बिना गुरु ‘ब्रह्मज्ञान’ नहीं मिल सकता, इसलिए आशुतोष महाराज जी कहते हैं, “ ‘दिव्य-दृष्टि’, भृकुटि के मध्य स्थित तृतीय नेत्र अथवा ज्ञान-चक्षु है! यही ज्ञान-चक्षु हमारी अज्ञानमयी नेत्रहीनता का उपचार है। किन्तु इसके उन्मीलन हेतु भी गुरु-कृपा अपरिहार्य है। दीक्षाक्रम में सतगुरु ही, सुषुम्णा-जागरण सहित इसे भी अनावृत्त करते हैं।

“गुरु अज्ञानता से भरे नेत्रहीन जीव का ज्ञानरूपी अंजन (अन्तर्दृष्टि) खोल देते हैं। दीक्षा-क्रम में गुरु द्वारा दीक्षा लेने वाले जिज्ञासुओं में ऊर्जा-प्रविष्ट कराई जाती है। किन्तु यह प्रविष्टित ऊर्जा उतनी तीव्र नहीं रहती, जितनी कि उफर्जा-ड्डोत से प्रसृत हुई थी, इसलिए सभी पर इसका प्रभाव अलग-अलग दृष्टिगोचर होता है। वह विविध स्तरीय अनुभूतियों के रूप में शिष्यों के अंतरघट में प्रकट होता है। ‘ब्रह्मज्ञान’ अज्ञात को ज्ञात करने का परम विज्ञान है। इसे प्राप्त करने वाला उस अज्ञात को जान जाता है।”

आशुतोष महाराज जी अपने सत्संग-प्रवचन में अकसर कहते हैं, “भगवान कृष्ण ने अर्जुन को पर्याप्त मात्रा में शाब्दिक व्याख्यान दिया था- ‘हे अर्जुन, तू निरासक्त... निर्मोही... निर्लिप्त होकर युध्द कर।’ तथापि वह इस सूत्र को शिरोधर्य नहीं कर पाया। अंततः प्रभु श्री कृष्ण ने कौन-सी विधि अपनाई? शिक्षा के स्थान पर दीक्षा की! उन्होंने अर्जुन को ब्रह्मज्ञान में दीक्षित किया। उसे अपने दिव्य विराट स्वरूप का साक्षात्कार कराया। अपनी सर्वव्यापी ईश्वरीय सत्ता का दर्शन करा दिया-

पश्य में पार्थ रुपाणि शतशोऽथ सहस्रशः,

नानाविधनि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।

“अर्थात् हे पार्थ! मेरे सैकड़ों और सहस्रों, नाना प्रकार और नाना वर्ण तथा आकृति वाले दिव्य रूपों को (दिव्य दृष्टि द्वारा) देख! इस सूत्रत्मा, नियामक ईश्वर को प्रत्यक्ष देखते ही अर्जुन के वैचारिक स्तर पर एक महान परिवर्तन घटा। उसे स्पष्टतः गोचर हो गया कि समस्त कर्मों के सर्वेसर्वा केवल श्री भगवान हैं। वह तो इस अवश्यंभावी धर्म-युध्द का मात्र एक चयनित निमित्त है। इस स्थिति में उसका कर्तृत्वभिमान जाता रहा। और जहाँ कर्त्ता भाव नहीं, वहाँ कर्मो पर स्वत्व कैसे हो सकता है?

“श्री रामकृष्ण देव कहा करते थे- ‘जिनको ब्रह्मज्ञान द्वारा ईश्वर लाभ हुआ है, उनका मनोभाव कैसा है, जानते हो? मैं यंत्र हूँ, तुम यंत्री हो। जैसा चलाते हो, वैसा चलता हूँ।’ जहाँ इस प्रकार स्वत्व का अभाव है, वहाँ किसी फल की माँग कैसे हो सकती है? कर्त्तापन के संकीर्ण जलाशय में ही फलासक्ति, लिप्तता, स्वार्थपरता की काई पनपती है। अतः ब्रह्मज्ञान द्वारा सागररूप परमसत्ता का दर्शन करके एक शिष्य बहती हुई नदी बन जाता है। ‘इदन्न मम- मैं कुछ नहीं, सब तू है। सब तेरा है, तेरे लिए है’- ऐसा भाव रखकर निष्काम भाव से कर्मरत रहता है। निष्कामी परमफल का सुपात्र है।

“आंचल न फैलाने पर भी एक निष्कामी का आंचल रिक्त नहीं रहता। ‘बिन मांगे मोती मिले’ की सूक्ति सार्थक होती है। जैसे एक बालक खेल केवल आनन्द के लिए खेलता है। परन्तु व्यायाम का लाभ उसे अनजाने में स्वतः मिल जाता है। इसी प्रकार आसक्तिविहीन व्यक्ति कर्म केवल कर्त्तव्य पूर्ति हेतु करता है। किन्तु उसका फल उसे बिना प्रयास ही प्राप्त हो जाता है। इस विषय में एक कवि ने सुन्दर कहा है-

जो फल की इच्छा से कर्म करें,वे दीन-हीन भिखारी हैं।

जो निष्काम भाव से कर्म करें,वे परमानन्द अधिकारी हैं।

अतः अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ परमपद को प्राप्त होता है- असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः। इसलिए जीवन के परम कल्याण हेतु आप ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर इस निष्काम वृत्ति को अपनाएँ।”

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