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(अनुशासनपर्व)
(दान-धर्म-पर्व)
१- युधिष्ठिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन
२- प्रजापति मनुके वंशका वर्णन, अग्निपुत्र सुदर्शनका अतिथि-सत्काररूपीधर्मके पालनसे मृत्युपर विजय पाना
३- विश्वामित्रको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति कैसे हुई—इस विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न
४- आजमीढके वंशका वर्णन तथा विश्वामित्रके जन्मकी कथा और उनके पुत्रोंके नाम
५- स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुषकी श्रेष्ठता बतानेके लिये इन्द्र और तोतेके संवादका उल्लेख
६- दैवकी अपेक्षा पुरुषार्थकी श्रेष्ठताका वर्णन
७- कर्मोंके फलका वर्णन
८- श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी महिमा
९- ब्राह्मणोंको देनेकी प्रतिज्ञा करके न देने तथा उसके धनका अपहरण करनेसे दोषकी प्राप्तिके विषयमें सियार और वानरके संवादका उल्लेख एवं ब्राह्मणोंको दान देनेकी महिमा
१०- अनधिकारीको उपदेश देनेसे हानिके विषयमें एक शूद्र और तपस्वी ब्राह्मणकी कथा
११- लक्ष्मीके निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानोंका वर्णन
१२- कृतघ्नकी गति और प्रायश्चित्तका वर्णन तथा स्त्री-पुरुषके संयोगमें स्त्रीको ही अधिक सुख होनेके सम्बन्धमें भंगास्वनका उपाख्यान
१३- शरीर, वाणी और मनसे होनेवाले पापोंके परित्यागका उपदेश
१४- भीष्मजीकी आज्ञासे भगवान् श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे महादेवजीके माहात्म्यकी कथामें उपमन्युद्वारा महादेवजीकी स्तुति-प्रार्थना, उनके दर्शन और वरदान पानेका तथा अपनेको दर्शन प्राप्त होनेका कथन
१५- शिव और पार्वतीका श्रीकृष्णको वरदान और उपमन्युके द्वारा महादेवजीकी महिमा
१६- उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद—महात्मा तण्डिद्वारा की गयी महादेवजीकी स्तुति, प्रार्थना और उसका फल
१७- शिवसहस्रनामस्तोत्र और उसके पाठका फल
१८- शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान् शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपना-अपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान् शिवजीकी महिमाका वर्णन
१९- अष्टावक्र मुनिका वदान्य ऋषिके कहनेसे उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान, मार्गमें कुबेरके द्वारा उनका स्वागत तथा स्त्रीरूपधारिणी उत्तरदिशाके साथ उनका संवाद
२०- अष्टावक्र और उत्तर दिशाका संवाद
२१- अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवाद, अष्टावक्रका अपने घर लौटकर वदान्य ऋषिकी कन्याके साथ विवाह करना
२२- युधिष्ठिरके विविध धर्मयुक्त प्रश्नोंका उत्तर तथा श्राद्ध और दानके उत्तम पात्रोंका लक्षण
२३- देवता और पितरोंके कार्यमें निमन्त्रण देनेयोग्य पात्रों तथा नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्योंके लक्षणोंका वर्णन
२४- ब्रह्महत्याके समान पापोंका निरूपण
२५- विभिन्न तीर्थोंके माहात्म्यका वर्णन
२६- श्रीगंगाजीके माहात्म्यका वर्णन
२७- ब्राह्मणत्वके लिये तपस्या करनेवाले मतंगकी इन्द्रसे बातचीत
२८- ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेका आग्रह छोड़कर दूसरा वर माँगनेके लिये इन्द्रका मतंगको समझाना
२९- मतंगकी तपस्या और इन्द्रका उसे वरदान देना
३०- वीतहव्यके पुत्रोंसे काशी-नरेशोंका घोर युद्ध, प्रतर्दनद्वारा उनका वध और राजा वीतहव्यको भृगुके कथनसे ब्राह्मणत्व प्राप्त होनेकी कथा
३१- नारदजीके द्वारा पूजनीय पुरुषोंके लक्षण तथा उनके आदर-सत्कार और पूजनसे प्राप्त होनेवाले लाभका वर्णन
३२- राजर्षि वृषदर्भ (या उशीनर)-के द्वारा शरणागत कपोतकी रक्षा तथा उस पुण्यके प्रभावसे अक्षयलोककी प्राप्ति
३३- ब्राह्मणके महत्त्वका वर्णन
३४- श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी प्रशंसा
३५- ब्रह्माजीके द्वारा ब्राह्मणोंकी महत्ताका वर्णन
३६- ब्राह्मणकी प्रशंसाके विषयमें इन्द्र और शम्बरासुरका संवाद
३७- दान-पात्रकी परीक्षा
३८- पंचचूड़ा अप्सराका नारदजीसे स्त्रियोंके दोषोंका वर्णन करना
३९- स्त्रियोंकी रक्षाके विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न
४०- भृगुवंशी विपुलके द्वारा योगबलसे गुरुपत्नीके शरीरमें प्रवेश करके उसकी रक्षा करना
४१- विपुलका देवराज इन्द्रसे गुरुपत्नीको बचाना और गुरुसे वरदान प्राप्त करना
४२- विपुलका गुरुकी आज्ञासे दिव्य पुष्प लाकर उन्हें देना और अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मका स्मरण करना
४३- देवशर्माका विपुलको निर्दोष बताकर समझाना और भीष्मका युधिष्ठिरको स्त्रियोंकी रक्षाके लिये आदेश देना
४४- कन्या-विवाहके सम्बन्धमें पात्रविषयक विभिन्न विचार
४५- कन्याके विवाहका तथा कन्या और दौहित्र आदिके उत्तराधिकारका विचार
४६- स्त्रियोंके वस्त्राभूषणोंसे सत्कार करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन
४७- ब्राह्मण आदि वर्णोंकी दायभाग-विधिका वर्णन
४८- वर्णसंकर संतानोंकी उत्पत्तिका विस्तारसे वर्णन
४९- नाना प्रकारके पुत्रोंका वर्णन
५०- गौओंकी महिमाके प्रसंगमें च्यवन मुनिके उपाख्यानका आरम्भ, मुनिका मत्स्योंके साथ जालमें फँसकर जलसे बाहर आना
५१- राजा नहुषका एक गौके मोलपर च्यवन मुनिको खरीदना, मुनिके द्वारा गौओंका माहात्म्य-कथन तथा मत्स्यों और मल्लाहोंकी सद्गति
५२- राजा कुशिक और उनकी रानीके द्वारा महर्षि च्यवनकी सेवा
५३- च्यवन मुनिके द्वारा राजा-रानीके धैर्यकी परीक्षा और उनकी सेवासे प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देना
५४- महर्षि च्यवनके प्रभावसे राजा कुशिक और उनकी रानीको अनेक आश्चर्यमय दृश्योंका दर्शन एवं च्यवन मुनिका प्रसन्न होकर राजाको वर माँगनेके लिये कहना
५५- च्यवनका कुशिकके पूछनेपर उनके घरमें अपने निवासका कारण बताना और उन्हें वरदान देना
५६- च्यवन ऋषिका भृगुवंशी और कुशिक-वंशियोंके सम्बन्धका कारण बताकर तीर्थयात्राके लिये प्रस्थान
५७- विविध प्रकारके तप और दानोंका फल
५८- जलाशय बनानेका तथा बगीचे लगानेका फल
५९- भीष्मद्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणोंकी प्रशंसा करते हुए उनके सत्कारका उपदेश
६०- श्रेष्ठ अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन एवं गुणवान्को दान देनेका विशेष फल
६१- राजाके लिये यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजाकी रक्षाका उपदेश
६२- सब दानोंसे बढ़कर भूमिदानका महत्त्व तथा उसीके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका सवाद
६३- अन्नदानका विशेष माहात्म्य
६४- विभिन्न नक्षत्रोंके योगमें भिन्न-भिन्न वस्तुओंके दानका माहात्म्य
६५- सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओंके दानकी महिमा
६६- जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्नके दानका माहात्म्य
६७- अन्न और जलके दानकी महिमा
६८- तिल, जल, दीप तथा रत्न आदिके दानका माहात्म्य—धर्मराज और ब्राह्मणका संवाद
६९- गोदानकी महिमा तथा गौओं और ब्राह्मणोंकी रक्षासे पुण्यकी प्राप्ति
७०- ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेसे होनेवाली हानिके विषयमें दृष्टान्तके रूपमें राजा नृगका उपाख्यान
७१- पिताके शापसे नाचिकेतका यमराजके पास जाना और यमराजका नाचिकेतको गोदानकी महिमा बताना
७२- गौओंके लोक और गोदानविषयक युधिष्ठिर और इन्द्रके प्रश्न
७३- ब्रह्माजीका इन्द्रसे गोलोक और गोदानकी महिमा बताना
७४- दूसरोंकी गायको चुराकर देने या बेचनेसे दोष, गोहत्याके भयंकर परिणाम तथा गोदान एवं सुवर्ण-दीक्षणाका माहात्म्य
७५- व्रत, नियम, दम, सत्य, ब्रह्मचर्य, माता-पिता, गुरु आदिके सेवाकी महत्ता
७६- गोदानकी विधि, गौओंसे प्रार्थना, गौओंके निष्क्रय और गोदान करनेवाले नरेशोंके नाम
७७- कपिला गौओंकी उत्पत्ति और महिमाका वर्णन
७८- वसिष्ठका सौदासको गोदानकी विधि एवं महिमा बताना
७९- गौओंको तपस्याद्वारा अभीष्ट वरकी प्राप्ति तथा उनके दानकी महिमा, विभिन्न प्रकारके गौओंके दानसे विभिन्न उत्तम लोकोंमें गमनका कथन
८०- गौओं तथा गोदानकी महिमा
८१- गौओंका माहात्म्य तथा व्यासजीके द्वारा शुकदेवसे गौओंकी, गोलोककी और गोदानकी महत्ताका वर्णन
८२- लक्ष्मी और गौओंका संवाद तथा लक्ष्मीकी प्रार्थनापर गौओंके द्वारा गोबर और गोमूत्रमें लक्ष्मीको निवासके लिये स्थान दिया जाना
८३- ब्रह्माजीका इन्द्रसे गोलोक और गौओंका उत्कर्ष बताना और गौओंको वरदान देना
८४- भीष्मजीका अपने पिता शान्तनुके हाथमें पिण्ड न देकर कुशपर देना, सुवर्णकी उत्पत्ति और उसके दानकी महिमाके सम्बन्धमें वसिष्ठ और परशुरामका संवाद, पार्वतीका देवताओंको शाप, तारकासुरसे डरे हुए देवताओंका ब्रह्माजीकी शरणमें जाना
८५- ब्रह्माजीका देवताओंको आश्वासन, अग्निकी खोज, अग्निके द्वारा स्थापित किये हुए शिवके तेजसे संतप्त हो गंगाका उसे मेरुपर्वतपर छोड़ना, कार्तिकेय और सुवर्णकी उत्पत्ति, वरुणरूपधारी महादेवजीके यज्ञमें अग्निसे ही प्रजापतियों और सुवर्णका प्रादुर्भाव, कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
८६- कार्तिकेयकी उत्पत्ति, पालन-पोषण और उनका देवसेनापति-पदपर अभिषेक, उनके द्वारा तारकासुरका वध
८७- विविध तिथियोंमें श्राद्ध करनेका फल
८८- श्राद्धमें पितरोंके तृप्तिविषयका वर्णन
८१- विभिन्न नक्षत्रोंमें श्राद्ध करनेका फल
९०- श्राद्धमें ब्राह्मणोंकी परीक्षा, पंक्तिदूषक और पंक्तिपावन ब्राह्मणोंका वर्णन, श्राद्धमें लाख मूर्ख ब्राह्मणोंको भोजन करानेकी अपेक्षा एक वेदवेत्ताको भोजन करानेकी श्रेष्ठताका कथन
९१- शोकातुर निमिका पुत्रके निमित्त पिण्डदान तथा श्राद्धके विषयमें निमिका महर्षि अत्रिका उपदेश, विश्वेदेवोंके नाम एवं श्राद्धमें त्याज्य वस्तुओंका वर्णन
९२- पितर और देवताओंका श्राद्धान्नसे अजीर्ण होकर ब्रह्माजीके पास जाना और अग्निके द्वारा अजीर्णका निवारण, श्राद्धसे तृप्त हुए पितरोंका आशीर्वाद
९३- गृहस्थके धर्मोंका रहस्य, प्रतिग्रहके दोष बतानेके लिये वृषादर्भि और सप्तर्षियोंकी कथा, भिक्षुरूपधारी इन्द्रके द्वारा कृत्याका वध करके सप्तर्षियोंकी रक्षा तथा कमलोंकी चोरीके विषयमें शपथ खानेके बहानेसे धर्मपालनका संकेत
९४- ब्रह्मसर तीर्थमें अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर ब्रह्मर्षियों और राजर्षियोंकी धर्मोपदेशपूर्ण शपथ तथा धर्मज्ञानके उद्देश्यसे चुराये हुए कमलोंका वापस देना
९५- छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानविषयक युधिष्ठिरका प्रश्न तथा सूर्यकी प्रचण्ड धूपसे रेणुकाका मस्तक और पैरोंके संतप्त होनेपर जमदग्निका सूर्यपर कुपित होना और विप्ररूपधारी सूर्यपर वार्तालाप
९६- छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानकी प्रशंसा
९७- गृहस्थधर्म, पंचयज्ञ-कर्मके विषयमें पृथ्वीदेवी और भगवान् श्रीकृष्णका संवाद
९८- तपस्वी सुवर्ण और मनुका संवाद—पुष्प, धूप, दीप और उपहारके दानका माहात्म्य
९९- नहुषका ऋषियोंपर अत्याचार तथा उसके प्रतीकारके लिये महर्षि भृगु और अगस्त्यकी बातचीत
१००- नहुषका पतन, शतक्रतुका इन्द्रपदपर पुनः अभिषेक तथा दीपदानकी महिमा
१०१- ब्राह्मणोंके धनका अपहरण करनेसे प्राप्त होनेवाले दोषके विषयमें क्षत्रिय और चाण्डालका संवाद तथा ब्रह्मस्वकी रक्षामें प्राणोत्सर्ग करनेसे चाण्डालको मोक्षकी प्राप्ति
१०२- भिन्न-भिन्न कर्मोंके अनुसार भिन्न-भिन्न लोकोंकी प्राप्ति बतानेके लिये धृतराष्ट्र-रूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मणके संवादका उल्लेख
१०३- ब्रह्माजी और भगीरथका संवाद, यज्ञ, तप, दान आदिसे भी अनशन-व्रतकी विशेष महिमा
१०४- आयुकी वृद्धि और क्षय करनेवाले शुभाशुभ कर्मोंके वर्णनसे गृहस्थाश्रमके कर्तव्योंका विस्तारपूर्वक निरूपण
१०५- बड़े और छोटे भाईके पारस्परिक बर्ताव तथा माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनोंके गौरवका वर्णन
१०६- मास, पक्ष एवं तिथिसम्बन्धी विभिन्न व्रतोपवासके फलका वर्णन
१०७- दरिद्रोंके लिये यज्ञतुल्य फल देनेवाले उपवास-व्रत और उसके फलका विस्तारपूर्वक वर्णन
१०८- मानस तथा पार्थिव तीर्थकी महत्ता
१०९- प्रत्येक मासकी द्वादशी तिथिको उपवास और भगवान् विष्णुकी पूजा करनेका विशेष माहात्म्य
११०- रूप-सौन्दर्य और लोकप्रियताकी प्राप्तिके लिये मार्गशीर्षमासमें चन्द्र-व्रत करनेका प्रतिपादन
१११- बृहस्पतिका युधिष्ठिरसे प्राणियोंके जन्मके प्रकारका और नानाविध पापोंके फलस्वरूप नरकादिकी प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियोंमें जन्म लेनेका वर्णन
११२- पापसे छूटनेके उपाय तथा अन्न-दानकी विशेष महिमा
११३- बृहस्पतिजीका युधिष्ठिरको अहिंसा एवं धर्मकी महिमा बताकर स्वर्गलोकको प्रस्थान
११४- हिंसा और मांसभक्षणकी घोर निन्दा
११५- मद्य और मांसके भक्षणमें महान् दोष, उनके त्यागकी महिमा एवं त्यागमें परम लाभका प्रतिपादन
११६- मांस न खानेसे लाभ और अहिंसाधर्मकी प्रशंसा
११७- शुभ कर्मसे एक कीड़ेको पूर्व-जन्मकी स्मृति होना और कीट-योनिमें भी मृत्युका भय एवं सुखकी अनुभूति बताकर कीड़ेका अपने कल्याणका उपाय पूछना
११८- कीड़ेका क्रमशः क्षत्रिययोनिमें जन्म लेकर व्यासजीका दर्शन करना और व्यासजीका उसे ब्राह्मण होने तथा स्वर्गसुख और अक्षय सुखकी प्राप्ति होनेका वरदान देना
११९- कीड़ेका ब्राह्मणयोनिमें जन्म लेकर, ब्रह्मलोकमें जाकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त करना
१२०- व्यास और मैत्रेयका संवाद—दानकी प्रशंसा और कर्मका रहस्य
१२१- व्यास-मैत्रेय-संवाद—विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणको अन्नदानकी प्रशंसा
१२२- व्यास-मैत्रेय-संवाद—तपकी प्रशंसा तथा गृहस्थके उत्तम कर्तव्यका निर्देश
१२३- शाण्डिली और सुमनाका संवाद—पतिव्रता स्त्रियोंके कर्तव्यका वर्णन
१२४- नारदका पुण्डरीकको भगवान् नारायणकी आराधनाका उपदेश तथा उन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति, सामगुणकी प्रशंसा, ब्राह्मणका राक्षसके सफेद और दुर्बल होनेका कारण बताना
१२५- श्राद्धके विषयमें देवदूत और पितरोंका, पापोंसे छूटनेके विषयमें महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्रका, धर्मके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका तथा वृषोत्सर्ग आदिके विषयमें देवताओं, ऋषियों और पितरोंका संवाद
१२६- विष्णु, बलदेव, देवगण, धर्म, अग्नि, विश्वामित्र, गोसमुदाय और ब्रह्माजीके द्वारा धर्मके गूढ़ रहस्यका वर्णन
१२७- अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्निके द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन
१२८- वायुके द्वारा धर्माधर्मके रहस्यका वर्णन
१२९- लोमशद्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन
१३०- अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्तद्वारा धर्मसम्बन्धी रहस्यका वर्णन
१३१- प्रमथगणोंके द्वारा धर्माधर्मसम्बन्धी रहस्यका कथन
१३२- दिग्गजोंका धर्मसम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
१३३- महादेवजीका धर्मसम्बन्धी रहस्य
१३४- स्कन्ददेवका धर्मसम्बन्धी रहस्य तथा भगवान् विष्णु और भीष्मजीके द्वारा माहात्म्यका वर्णन
१३५- जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्योंका वर्णन
१३६- दान लेने और अनुचित भोजन करनेका प्रायश्चित्त
१३७- दानसे स्वर्गलोकमें जानेवाले राजाओंका वर्णन
१३८- पाँच प्रकारके दानोंका वर्णन
१३९- तपस्वी श्रीकृष्णके पास ऋषियोंका आना, उनका प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
१४०- नारदजीके द्वारा हिमालय पर्वतपर भूतगणोंके सहित शिवजीकी शोभाका विस्तृत वर्णन, पार्वतीका आगमन, शिवजीकी दोनों आँखोंको अपने हाथोंसे बंद करना और तीसरे नेत्रका प्रकट होना, हिमालयका भस्म होना और पुनः प्राकृत अवस्थामें हो जाना तथा शिव-पार्वतीके धर्मविषयक संवादकी उत्थापना
१४१- शिव-पार्वतीका धर्मविषयक संवाद—वर्णाश्रमधर्मसम्बन्धी आचार एवं प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्मका निरूपण
१४२- उमा-महेश्वर-संवाद, वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालनकी विधि और महिमा
१४३- ब्राह्मणादि वर्णोंकी प्राप्तिमें मनुष्यके शुभाशुभ कर्मोंकी प्रधानताका प्रतिपादन
१४४- बन्धन-मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करनेवाले शरीर, वाणी और मनद्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
१४५- स्वर्ग और नरक तथा उत्तम और अधम कुलमें जन्मकी प्राप्ति करानेवाले कर्मोंका वर्णन
१. राजधर्मका वर्णन
२. योद्धाओंके धर्मका वर्णन तथा रणयज्ञमें प्राणोत्सर्गकी महिमा
३. संक्षेपसे राजधर्मका वर्णन
४. अहिंसाकी और इन्द्रिय-संयमकी प्रशंसा तथा दैवकी प्रधानता
५. त्रिवर्गका निरूपण तथा कल्याणकारी आचार-व्यवहारका वर्णन
६. विविध प्रकारके कर्मफलोंका वर्णन
७. अन्धत्व और पंगुत्व आदि नाना प्रकारके दोषों और रोगोंके कारणभूत दुष्कर्मोंका वर्णन
८. उमा-महेश्वर-संवादमें कितने ही महत्त्वपूर्ण विषयोंका विवेचन
९. प्राणियोंके चार भेदोंका निरूपण, पूर्वजन्मकी स्मृतिका रहस्य, मरकर फिर लौटनेमें कारण स्वप्नदर्शन, दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्मका विवेचन
१०. यमलोक तथा वहाँके मार्गोंका वर्णन, पापियोंकी नरकयातनाओं तथा कर्मानुसार विभिन्न योनियोंमें उनके जन्मका उल्लेख
११. शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकारके कर्मोंका स्वरूप और उनके फलका एवं मद्यसेवनके दोषोंका वर्णन, आहार-शुद्धि, मांस-भक्षणसे दोष, मांस न खानेसे लाभ, जीवदयाके महत्त्व, गुरुपूजाकी विधि, उपवास-विधि, ब्रह्मचर्य पालन, तीर्थचर्चा, सर्वसाधारण द्रव्यके दानसे पुण्य, अन्न, सुवर्ण, गौ, भूमि, कन्या और विद्यादानका माहात्म्य, पुण्यतम देशकाल, दिये हुए दान और धर्मकी निष्फलता, विविध प्रकारके दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओंकी पूजाका निरूपण
१२. श्राद्ध विधान आदिका वर्णन, दानकी त्रिविधतासे उसके फलकी भी त्रिविधताका उल्लेख, दानके पाँच फल, नाना प्रकारके धर्म और उनके फलोंका प्रतिपादन
१३. प्राणियोंकी शुभ और अशुभ गतिका निश्चय करानेवाले लक्षणोंका वर्णन, मृत्युके दो भेद और यत्नसाध्य-मृत्युके चार भेदोंका कथन, कर्तव्य पालनपूर्वक शरीर त्यागका महान् फल और काम, क्रोध आदिद्वारा देह त्याग करनेसे नरककी प्राप्ति
१४. मोक्षधर्मकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन, मोक्ष साधक ज्ञानकी प्राप्तिका उपाय और मोक्षकी प्राप्तिमें वैराग्यकी प्रधानता
१५. सांख्यज्ञानका प्रतिपादन करते हुए अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वोंकी उत्पत्ति आदिका वर्णन
१६. योगधर्मका प्रतिपादनपूर्वक उसके फलका वर्णन
१७. पाशुपत योगका वर्णन तथा शिवलिंग-पूजनका माहात्म्य
१४६- पार्वतीजीके द्वारा स्त्री-धर्मका वर्णन
१४७- वंशपरम्पराका कथन और भगवान् श्रीकृष्णके माहात्म्यका वर्णन
१४८- भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन और भीष्मजीका युधिष्ठिरको राज्य करनेके लिये आदेश देना
१४९- श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
१५०- जपनेयोग्य मन्त्र और सबेरे-शाम कीर्तन करनेयोग्य देवता, ऋषियों और राजाओंके मंगलमय नामोंका कीर्तन-माहात्म्य तथा गायत्री-जपका फल
१५१- ब्राह्मणोंकी महिमाका वर्णन
१५२- कार्तवीर्य अर्जुनको दत्तात्रेयजीसे चार वरदान प्राप्त होनेका एवं उनमें अभिमानकी उत्पत्तिका वर्णन तथा ब्राह्मणोंकी महिमाके विषयमें कार्तवीर्य अर्जुन और वायुदेवताके संवादका उल्लेख
१५३- वायुद्वारा उदाहरणसहित ब्राह्मणोंकी महत्ताका वर्णन
१५४- ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्यके प्रभावका वर्णन
१५५- ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठके प्रभावका वर्णन
१५६- अत्रि और च्यवन ऋषिके प्रभावका वर्णन
१५७- कप नामक दानवोंके द्वारा स्वर्गलोकपर अधिकार जमा लेनेपर ब्राह्मणोंका कपोंको भस्म कर देना, वायुदेव और कार्तवीर्य अर्जुनके संवादका उपसंहार
१५८- भीष्मजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वर्णन
१५९- श्रीकृष्णका प्रद्युम्नको ब्राह्मणोंकी महिमा बताते हुए दुर्वासाके चरित्रका वर्णन करना और यह सारा प्रसंग युधिष्ठिरको सुनाना
१६०- श्रीकृष्णद्वारा भगवान् शंकरके माहात्म्यका वर्णन
१६१- भगवान् शंकरके माहात्म्यका वर्णन
१६२- धर्मके विषयमें आगम-प्रमाणकी श्रेष्ठता, धर्माधर्मके फल, साधु-असाधुके लक्षण तथा शिष्टाचारका निरूपण
१६३- युधिष्ठिरका विद्या, बल और बुद्धिकी अपेक्षा भाग्यकी प्रधानता बताना और भीष्मजीद्वारा उसका उत्तर
१६४- भीष्मका शुभाशुभ कर्मोंको ही सुख-दुःखकी प्राप्तिमें कारण बताते हुए धर्मके अनुष्ठानपर जोर देना
१६५- नित्य स्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओंके नाम-कीर्तनका माहात्म्य
१६६- भीष्मकी अनुमति पाकर युधिष्ठिरका सपरिवार हस्तिनापुरको प्रस्थान
(भीष्मस्वर्गारोहणपर्व)
१६७- भीष्मके अन्त्येष्टि-संस्कारकी सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदिका उनके पास जाना और भीष्मका श्रीकृष्ण आदिसे देह-त्यागकी अनुमति लेते हुए धृतराष्ट्र और युधिष्ठिरको कर्तव्यका उपदेश देना
१६८- भीष्मजीका प्राणत्याग, धृतराष्ट्र आदिके द्वारा उनका दाह-संस्कार, कौरवोंका गंगाके जलसे भीष्मको जलांजलि देना, गंगाजीका प्रकट होकर पुत्रके लिये शोक करना और श्रीकृष्णका उन्हें समझाना
आश्वमेधिकपर्व
(अश्वमेधपर्व)
१- युधिष्ठिरका शोकमग्न होकर गिरना और धृतराष्ट्रका उन्हें समझाना
२- श्रीकृष्ण और व्यासजीका युधिष्ठिरको समझाना
३- व्यासजीका युधिष्ठिरको अश्वमेध यज्ञके लिये धनकी प्राप्तिका उपाय बताते हुए संवर्त और मरुत्तका प्रसंग उपस्थित करना
४- मरुत्तके पूर्वजोंका परिचय देते हुए व्यासजीके द्वारा उनके गुण, प्रभाव एवं यज्ञका दिग्दर्शन
५- इन्द्रकी प्रेरणासे बृहस्पतिजीका मनुष्यको यज्ञ न करानेकी प्रतिज्ञा करना
६- नारदजीकी आज्ञासे मरुत्तका उनकी बतायी हुई युक्तिके अनुसार संवर्तसे भेंट करना
७- संवर्त और मरुत्तकी बातचीत, मरुत्तके विशेष आग्रहपर संवर्तका यज्ञ करानेकी स्वीकृति देना
८- संवर्तका मरुत्तको सुवर्णकी प्राप्तिके लिये महादेवजीकी नाममयी स्तुतिका उपदेश और धनकी प्राप्ति तथा मरुत्तकी सम्पत्तिसे बृहस्पतिका चिन्तित होना
९- बृहस्पतिका इन्द्रसे अपनी चिन्ताका कारण बताना, इन्द्रकी आज्ञासे अग्निदेवका मरुत्तके पास उनका संदेश लेकर जाना और संवर्तके भयसे पुनः लौटकर इन्द्रसे ब्रह्मबलकी श्रेष्ठता बताना
१०- इन्द्रका गन्धर्वराजको भेजकर मरुत्तको भय दिखाना और संवर्तका मन्त्र-बलसे इन्द्रसहित सब देवताओंको बुलाकर मरुत्तका यज्ञ पूर्ण करना
११- श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको इन्द्रद्वारा शरीरस्थ वृत्रासुरका संहार करनेका इतिहास सुनाकर समझाना
१२- भगवान् श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको मनपर विजय करनेके लिये आदेश
१३- श्रीकृष्णद्वारा ममताके त्यागका महत्त्व, काम-गीताका उल्लेख और युधिष्ठिरको यज्ञके लिये प्रेरणा करना
१४- ऋषियोंका अन्तर्धान होना, भीष्म आदिका श्राद्ध करके युधिष्ठिर आदिका हस्तिनापुरमें जाना तथा युधिष्ठिरके धर्म-राज्यका वर्णन
१५- भगवान् श्रीकृष्णका अर्जुनसे द्वारका जानेका प्रस्ताव करना
(अनुगीतापर्व)
१६- अर्जुनका श्रीकृष्णसे गीताका विषय पूछना और श्रीकृष्णका अर्जुनसे सिद्ध, महर्षि एवं काश्यपका संवाद सुनाना
१७- काश्यपके प्रश्नोंके उत्तरमें सिद्ध महात्माद्वारा जीवकी विविध गतियोंका वर्णन
१८- जीवके गर्भ-प्रवेश, आचार-धर्म, कर्म-फलकी अनिवार्यता तथा संसारसे तरनेके उपायका वर्णन
१९- गुरु-शिष्यके संवादमें मोक्षप्राप्तिके उपायका वर्णन
२०- ब्राह्मणगीता—एक ब्राह्मणका अपनी पत्नीसे ज्ञानयज्ञका उपदेश करना
२१- दस होताओंसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञका वर्णन तथा मन और वाणीकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
२२- मन-बुद्धि और इन्द्रियरूप सप्त होताओंका, यज्ञ तथा मन-इन्द्रिय-संवादका वर्णन
२३- प्राण, अपान आदिका संवाद और ब्रह्माजीका सबकी श्रेष्ठता बतलाना
२४- देवर्षि नारद और देवमतका संवाद एवं उदानके उत्कृष्ट रूपका वर्णन
२५- चातुर्होम यज्ञका वर्णन
२६- अन्तर्यामीकी प्रधानता
२७- अध्यात्मविषयक महान् वनका वर्णन
२८- ज्ञानी पुरुषकी स्थिति तथा अध्वर्यु और यतिका संवाद
२९- परशुरामजीके द्वारा क्षत्रिय-कुलका संहार
३०- अलर्कके ध्यान-योगका उदाहरण देकर पितामहोंका परशुरामजीको समझाना और परशुरामजीका तपस्याके द्वारा सिद्धि प्राप्त करना
३१- राजा अम्बरीषकी गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्यविषयक गाथा
३२- ब्राह्मण-रूपधारी धर्म और जनकका ममत्वत्याग विषयक संवाद
३३- ब्राह्मणका पत्नीके प्रति अपने ज्ञाननिष्ठ स्वरूपका परिचय देना
३४- भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा ब्राह्मण, ब्राह्मणी और क्षेत्रज्ञका रहस्य बतलाते हुए ब्राह्मण-गीताका उपसंहार
३५- श्रीकृष्णके द्वारा अर्जुनसे मोक्ष-धर्मका वर्णन—गुरु और शिष्यके संवादमें ब्रह्मा और महर्षियोंके प्रश्नोत्तर
३६- ब्रह्माजीके द्वारा तमोगुणका, उसके कार्यका और फलका वर्णन
३७- रजोगुणके कार्यका वर्णन और उसके जाननेका फल
३८- सत्त्वगुणके कार्यका वर्णन और उसके जाननेका फल
३९- सत्त्व आदि गुणोंका और प्रकृतिके नामोंका वर्णन
४०- महत्तत्त्वके नाम और परमात्मतत्त्वको जाननेकी महिमा
४१- अहंकारकी उत्पत्ति और उसके स्वरूपका वर्णन
४२- अहंकारसे पंच महाभूतों और इन्द्रियोंकी सृष्टि, अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवतका वर्णन तथा निवृत्तिमार्गका उपदेश
४३- चराचर प्राणियोंके अधिपतियोंका, धर्म आदिके लक्षणोंका और विषयोंकी अनुभूतिके साधनोंका वर्णन तथा क्षेत्रज्ञकी विलक्षणता
४४- सब पदार्थोंके आदि-अन्तका और ज्ञानकी नित्यताका वर्णन
४५- देहरूपी कालचक्रका तथा गृहस्थ और ब्राह्मणके धर्मका कथन
४६- ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीके धर्मका वर्णन
४७- मुक्तिके साधनोंका, देहरूपी वृक्षका तथा ज्ञान-खड्गसे उसे काटनेका वर्णन
४८- आत्मा और परमात्माके स्वरूपका विवेचन
४९- धर्मका निर्णय जाननेके लिये ऋषियोंका प्रश्न
५०- सत्त्व और पुरुषकी भिन्नता, बुद्धिमान्की प्रशंसा, पंचभूतोंके गुणोंका विस्तार और परमात्माकी श्रेष्ठताका वर्णन
५१- तपस्याका प्रभाव, आत्माका स्वरूप और उसके ज्ञानकी महिमा तथा अनुगीताका उपसंहार
५२- श्रीकृष्णका अर्जुनके साथ हस्तिनापुर जाना और वहाँ सबसे मिलकर युधिष्ठिरकी आज्ञा ले सुभद्राके साथ द्वारकाको प्रस्थान करना
५३- मार्गमें श्रीकृष्णसे कौरवोंके विनाशकी बात सुनकर उत्तंकमुनिका कुपित होना और श्रीकृष्णका उन्हें शान्त करना
५४- भगवान् श्रीकृष्णका उत्तंकसे अध्यात्मतत्त्वका वर्णन करना तथा दुर्योधनके अपराधको कौरवोंके विनाशका कारण बतलाना
५५- श्रीकृष्णका उत्तंक मुनिको विश्वरूपका दर्शन कराना और मरुदेशमें जल प्राप्त होनेका वरदान देना
५६- उत्तंककी गुरुभक्तिका वर्णन, गुरुपुत्रीके साथ उत्तंकका विवाह, गुरुपत्नीकी आज्ञासे दिव्यकुण्डल लानेके लिये उत्तंकका राजा सौदासके पास जाना
५७- उत्तंकका सौदाससे उनकी रानीके कुण्डल माँगना और सौदासके कहनेसे रानी मदयन्तीके पास जाना
५८- कुण्डल लेकर उत्तंकका लौटना, मार्गमें उन कुण्डलोंका अपहरण होना तथा इन्द्र और अग्निदेवकी कृपासे फिर उन्हें पाकर गुरुपत्नीको देना
५९- भगवान् श्रीकृष्णका द्वारकामें जाकर रैवतक पर्वतपर महोत्सवमें सम्मिलित होना और सबसे मिलना
६०- वसुदेवजीके पूछनेपर श्रीकृष्णका उन्हें महाभारत-युद्धका वृत्तान्त संक्षेपसे सुनाना
६१- श्रीकृष्णका सुभद्राके कहनेसे वसुदेवजीको अभिमन्युवधका वृत्तान्त सुनाना
६२- वसुदेव आदि यादवोंका अभिमन्युके निमित्त श्राद्ध करना तथा व्यासजीका उत्तरा और अर्जुनको समझाकर युधिष्ठिरको अश्वमेधयज्ञ करनेकी आज्ञा देना
६३- युधिष्ठिरका अपने भाइयोंके साथ परामर्श करके सबको साथ ले धन ले आनेके लिये प्रस्थान करना
६४- पाण्डवोंका हिमालयपर पहुँचकर वहाँ पड़ाव डालना और रातमें उपवासपूर्वक निवास करना
६५- ब्राह्मणोंकी आज्ञासे भगवान् शिव और उनके पार्षद आदिकी पूजा करके युधिष्ठिरका उस धनराशिको खुदवाकर अपने साथ ले जाना
६६- श्रीकृष्णका हस्तिनापुरमें आगमन और उत्तराके मृत बालकको जिलानेके लिये कुन्तीकी उनसे प्रार्थना
६७- परीक्षित्को जिलानेके लिये सुभद्राकी श्रीकृष्णसे प्रार्थना
६८- श्रीकृष्णका प्रसूतिकागृहमें प्रवेश, उत्तराका विलाप और अपने पुत्रको जीवित करनेके लिये प्रार्थना
६९- उत्तराका विलाप और भगवान् श्रीकृष्णका उसके मृत बालकको जीवन-दान देना
७०- श्रीकृष्णद्वारा राजा परीक्षित्का नामकरण तथा पाण्डवोंका हस्तिनापुरके समीप आगमन
७१- भगवान् श्रीकृष्ण और उनके साथियोंद्वारा पाण्डवोंका स्वागत, पाण्डवोंका नगरमें आकर सबसे मिलना और व्यासजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको यज्ञके लिये आज्ञा देना
७२- व्यासजीकी आज्ञासे अश्वकी रक्षाके लिये अर्जुनकी, राज्य और नगरकी रक्षाके लिये भीमसेन और नकुलकी तथा कुटुम्ब-पालनके लिये सहदेवकी नियुक्ति
७३- सेनासहित अर्जुनके द्वारा अश्वका अनुसरण
७४- अर्जुनके द्वारा त्रिगर्तोंकी पराजय
७५- अर्जुनका प्राग्ज्योतिषपुरके राजा वज्रदत्तके साथ युद्ध
७६- अर्जुनके द्वारा वज्रदत्तकी पराजय
७७- अर्जुनका सैन्धवोंके साथ युद्ध
७८- अर्जुनका सैन्धवोंके साथ युद्ध और दुःशलाके अनुरोधसे उसकी समाप्ति
७९- अर्जुन और बभ्रुवाहनका युद्ध एवं अर्जुनकी मृत्यु
८०- चित्रांगदाका विलाप, मूर्च्छासे जगनेपर बभ्रुवाहनका शोकोद्गार और उलूपीके प्रयत्नसे संजीवनीमणिके द्वारा अर्जुनका पुनः जीवित होना
८१- उलूपीका अर्जुनके पूछनेपर अपने आगमनका कारण एवं अर्जुनकी पराजयका रहस्य बताना, पुत्र और पत्नीसे विदा लेकर पार्थका पुनः अश्वके पीछे जाना
८२- मगधराज मेघसन्धिकी पराजय
८३- दक्षिण और पश्चिम समुद्रके तटवर्ती देशोंमें होते हुए अश्वका द्वारका, पंचनद एवं गान्धार देशमें प्रवेश
८४- शकुनिपुत्रकी पराजय
८५- यज्ञभूमिकी तैयारी, नाना देशोंसे आये हुए राजाओंका यज्ञकी सजावट और आयोजन देखना
८६- राजा युधिष्ठिरका भीमसेनको राजाओंकी पूजा करनेका आदेश और श्रीकृष्णका युधिष्ठिरसे अर्जुनका संदेश कहना
८७- अर्जुनके विषयमें श्रीकृष्ण और युधिष्ठिरकी बातचीत, अर्जुनका हस्तिनापुरमें जाना तथा उलूपी और चित्रांगदाके साथ बभ्रुवाहनका आगमन
८८- उलूपी और चित्रांगदाके सहित बभ्रुवाहनका रत्न-आभूषण आदिसे सत्कार तथा अश्वमेधयज्ञका आरम्भ
८९- युधिष्ठिरका ब्राह्मणोंको दक्षिणा देना और राजाओंको भेंट देकर विदा करना
९०- युधिष्ठिरके यज्ञमें एक नेवलेका उञ्छ-वृत्तिधारी ब्राह्मणके द्वारा किये गये सेरभर सत्तूदानकी महिमा उस अश्वमेधयज्ञसे भी बढ़कर बतलाना
९१- हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्मकी निन्दा
९२- महर्षि अगस्त्यके यज्ञकी कथा
(वैष्णवधर्मपर्व)
१- युधिष्ठिरका वैष्णवधर्मविषयक प्रश्न और भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा धर्मका तथा अपनी महिमाका वर्णन
२- चारों वर्णोंके कर्म और उनके फलोंका वर्णन तथा धर्मकी वृद्धि और पापके क्षय होनेका उपाय
३- व्यर्थ जन्म, दान और जीवनका वर्णन, सात्त्विक दानोंका लक्षण, दानका योग्य पात्र और ब्राह्मणकी महिमा
४- बीज और योनिकी शुद्धि तथा गायत्री-जपकी और ब्राह्मणोंकी महिमाका और उनके तिरस्कारके भयानक फलका वर्णन
५- यमलोकके मार्गका कष्ट और उससे बचनेके उपाय
६- जल-दान, अन्न-दान और अतिथि-सत्कारका माहात्म्य
७- भूमिदान, तिलदान और उत्तम ब्राह्मणकी महिमा
८- अनेक प्रकारके दानोंकी महिमा
९- पंचमहायज्ञ, विधिवत् स्नान और उसके अंगभूत कर्म, भगवान्के प्रिय पुष्प तथा भगवद्भक्तोंका वर्णन
१०- कपिला गौका तथा उसके दानका माहात्म्य और कपिला गौके दस भेद
११- कपिला गौमें देवताओंके निवासस्थानका तथा उसके माहात्म्यका, अयोग्य ब्राह्मणका, नरकमें ले जानेवाले पापोंका तथा स्वर्गमें ले जानेवाले पुण्योंका वर्णन
१२- ब्रह्महत्याके समान पापका, अन्नदानकी प्रशंसाका, जिनका अन्न वर्जनीय है, उन पापियोंका, दानके फलका और धर्मकी प्रशंसाका वर्णन
१३- धर्म और शौचके लक्षण, संन्यासी और अतिथिके सत्कारके उपदेश, शिष्टाचार, दानपात्र ब्राह्मण तथा अन्नदानकी प्रशंसा
१४- भोजनकी विधि, गौओंको घास डालनेका विधान और तिलका माहात्म्य तथा ब्राह्मणके लिये तिल और गन्ना पेरनेका निषेध
१५- आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण, श्राद्धका उत्तमकाल और मानव-धर्म-सारका वर्णन
१६- अग्निके स्वरूपमें अग्निहोत्रकी विधि तथा उसके माहात्म्यका वर्णन
१७- चान्द्रायणव्रतकी विधि, प्रायश्चित्तरूपमें उसके करनेका विधान तथा महिमाका वर्णन
१८- सर्वहितकारी धर्मका वर्णन, द्वादशीव्रतका माहात्म्य तथा युधिष्ठिरके द्वारा भगवान्की स्तुति
१९- विषुवयोग और ग्रहण आदिमें दानकी महिमा, पीपलका महत्त्व, तीर्थभूत गुणोंकी प्रशंसा और उत्तम प्रायश्चित्त
२०- उत्तम और अधम ब्राह्मणोंके लक्षण, भक्त, गौ और पीपलकी महिमा
२१- भगवान्के उपदेशका उपसंहार और द्वारकागमन
आश्रमवासिकपर्व
(आश्रमवासपर्व)
१- भाइयोंसहित युधिष्ठिर तथा कुन्ती आदि देवियोंके द्वारा धृतराष्ट्र और गान्धारीकी सेवा
२- पाण्डवोंका धृतराष्ट्र और गान्धारीके अनुकूल बर्ताव
३- राजा धृतराष्ट्रका गान्धारीके साथ वनमें जानेके लिये उद्योग एवं युधिष्ठिरसे अनुमति देनेके लिये अनुरोध तथा युधिष्ठिरसे और कुन्ती आदिका दुःखी होना
४- व्यासजीके समझानेसे युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको वनमें जानेके लिये अनुमति देना
५- धृतराष्ट्रके द्वारा युधिष्ठिरको राजनीतिका उपदेश
६- धृतराष्ट्रद्वारा राजनीतिका उपदेश
७- युधिष्ठिरको धृतराष्ट्रके द्वारा राजनीतिका उपदेश
८- धृतराष्ट्रका कुरुजांगल देशकी प्रजासे वनमें जानेके लिये आज्ञा माँगना
९- प्रजाजनोंसे धृतराष्ट्रकी क्षमा-प्रार्थना
१०- प्रजाकी ओरसे साम्बनामक ब्राह्मणका धृतराष्ट्रको सान्त्वनापूर्ण उत्तर देना
११- धृतराष्ट्रका विदुरके द्वारा युधिष्ठिरसे श्राद्धके लिये धन माँगना, अर्जुनकी सहमति और भीमसेनका विरोध
१२- अर्जुनका भीमको समझाना और युधिष्ठिरका धृतराष्ट्रको यथेष्ट धन देनेकी स्वीकृति प्रदान करना
१३- विदुरका धृतराष्ट्रको युधिष्ठिरका उदारतापूर्ण उत्तर सुनाना
१४- राजा धृतराष्ट्रके द्वारा मृत व्यक्तियोंके लिये श्राद्ध एवं विशाल दान-यज्ञका अनुष्ठान
१५- गान्धारीसहित धृतराष्ट्रका वनको प्रस्थान
१६- धृतराष्ट्रका पुरवासियोंको लौटाना और पाण्डवोंके अनुरोध करनेपर भी कुन्तीका वनमें जानेसे न रुकना
१७- कुन्तीका पाण्डवोंको उनके अनुरोधका उत्तर
१८- पाण्डवोंका स्त्रियोंसहित निराश लौटना, कुन्तीसहित गान्धारी और धृतराष्ट्र आदिका मार्गमें गंगा-तटपर निवास करना
१९- धृतराष्ट्र आदिका गंगातटपर निवास करके वहाँसे कुरुक्षेत्रमें जाना और शतयूपके आश्रमपर निवास करना
२०- नारदजीका प्राचीन राजर्षियोंकी तपः सिद्धिका दृष्टान्त देकर धृतराष्ट्रकी तपस्याविषयक श्रद्धाको बढ़ाना तथा शतयूपके पूछनेपर धृतराष्ट्रको मिलनेवाली गतिका भी वर्णन करना
२१- धृतराष्ट्र आदिके लिये पाण्डवों तथा पुरवासियोंकी चिन्ता
२२- माताके लिये पाण्डवोंकी चिन्ता, युधिष्ठिरकी वनमें जानेकी इच्छा, सहदेव और द्रौपदीका साथ जानेका उत्साह तथा रनिवास और सेनासहित युधिष्ठिरका वनको प्रस्थान
२३- सेनासहित पाण्डवोंकी यात्रा और उनका कुरुक्षेत्रमें पहुँचना
२४- पाण्डवों तथा पुरवासियोंका कुन्ती, गान्धारी और धृतराष्ट्रके दर्शन करना
२५- संजयका ऋषियोंसे पाण्डवों, उनकी पत्नियों तथा अन्यान्य स्त्रियोंका परिचय देना
२६- धृतराष्ट्र और युधिष्ठिरकी बातचीत तथा विदुरजीका युधिष्ठिरके शरीरमें प्रवेश
२७- युधिष्ठिर आदिका ऋषियोंके आश्रम देखना, कलश आदि बाँटना और धृतराष्ट्रके पास आकर बैठना, उन सबके पास अन्यान्य ऋषियोंसहित महर्षि व्यासका आगमन
२८- महर्षि व्यासका धृतराष्ट्रसे कुशल पूछते हुए विदुर और युधिष्ठिरकी धर्मरूपताका प्रतिपादन करना और उनसे अभीष्ट वस्तु माँगनेके लिये कहना
(पुत्रदर्शनपर्व)
२९- धृतराष्ट्रका मृत बान्धवोंके शोकसे दुःखी होना तथा गान्धारी और कुन्तीका व्यासजीसे अपने मरे हुए पुत्रोंके दर्शन करनेका अनुरोध
३०- कुन्तीका कर्णके जन्मका गुप्त रहस्य बताना और व्यासजीका उन्हें सान्त्वना देना
३१- व्यासजीके द्वारा धृतराष्ट्र आदिके पूर्वजन्मका परिचय तथा उनके कहनेसे सब लोगोंका गंगा-तटपर जाना
३२- व्यासजीके प्रभावसे कुरुक्षेत्रके युद्धमें मारे गये कौरव-पाण्डववीरोंका गंगाजीके जलसे प्रकट होना
३३- परलोकसे आये हुए व्यक्तियोंका परस्पर राग-द्वेषसे रहित होकर मिलना और रात बीतनेपर अदृश्य हो जाना, व्यासजीकी आज्ञासे विधवा क्षत्राणियोंका गंगाजीमें गोता लगाकर अपने-अपने पतिके लोकको प्राप्त करना तथा इस पर्वके श्रवणकी महिमा
३४- मरे हुए पुरुषोंका अपने पूर्व शरीरसे ही यहाँ पुनः दर्शन देना कैसे सम्भव है, जनमेजयकी इस शंकाका वैशम्पायनद्वारा समाधान
३५- व्यासजीकी कृपासे जनमेजयको अपने पिताका दर्शन प्राप्त होना
३६- व्यासजीकी आज्ञासे धृतराष्ट्र आदिका पाण्डवोंको विदा करना और पाण्डवोंका सदलबल हस्तिनापुरमें आना
(नारदागमनपर्व)
३७- नारदजीसे धृतराष्ट्र आदिके दावानलमें दग्ध हो जानेका हाल जानकर युधिष्ठिर आदिका शोक करना
३८- नारदजीके सम्मुख युधिष्ठिरका धृतराष्ट्र आदिके लौकिक अग्निमें दग्ध हो जानेका वर्णन करते हुए विलाप और अन्य पाण्डवोंका भी रोदन
३९- राजा युधिष्ठिरद्वारा धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती—इन तीनोंकी हड्डियोंको गंगामें प्रवाहित कराना तथा श्राद्धकर्म करना
मौसलपर्व
१- युधिष्ठिरका अपशकुन देखना, यादवोंके विनाशका समाचार सुनना, द्वारकामें ऋषियोंके शापवश साम्बके पेटसे मूसलकी उत्पत्ति तथा मदिराके निषेधकी कठोर आज्ञा
२- द्वारकामें भयंकर उत्पात देखकर भगवान् श्रीकृष्णका यदुवंशियोंको तीर्थयात्राके लिये आदेश देना
३- कृतवर्मा आदि समस्त यादवोंका परस्पर संहार
४- दारुकका अर्जुनको सूचना देनेके लिये हस्तिनापुर जाना, बभ्रुका देहावसान एवं बलराम और श्रीकृष्णका परमधाम-गमन
५- अर्जुनका द्वारकामें आना और द्वारका तथा श्रीकृष्ण-पत्नियोंकी दशा देखकर दुःखी होना
६- द्वारकामें अर्जुन और वसुदेवजीकी बातचीत
७- वसुदेवजी तथा मौसलयुद्धमें मरे हुए यादवोंका अन्त्येष्टि-संस्कार करके अर्जुनका द्वारकावासी स्त्री-पुरुषोंको अपने साथ ले जाना, समुद्रका द्वारकाको डूबो देना और मार्गमें अर्जुनपर डाकुओंका आक्रमण, अवशिष्ट यादवोंको अपनी राजधानीमें बसा देना
८- अर्जुन और व्यासजीकी बातचीत
महाप्रस्थानिकपर्व
१- वृष्णिवंशियोंका श्राद्ध करके प्रजाजनोंकी अनुमति ले द्रौपदीसहित पाण्डवोंका महाप्रस्थान
२- मार्गमें द्रौपदी, सहदेव, नकुल, अर्जुन, और भीमसेनका गिरना तथा युधिष्ठिरद्वारा प्रत्येकके गिरनेका कारण बताया जाना
३- युधिष्ठिर इन्द्र और धर्म आदिके साथ वार्तालाप, युधिष्ठिरका अपने धर्ममें दृढ़ रहना तथा सदेह स्वर्गमें जाना
स्वर्गारोहणपर्व
१- स्वर्गमें नारद और युधिष्ठिरकी बातचीत
२- देवदूतका युधिष्ठिरको नरकका दर्शन कराना तथा भाइयोंका करुणक्रन्दन सुनकर उनका वहीं रहनेका निश्चय करना
३- इन्द्र और धर्मका युधिष्ठिरको सान्त्वना देना तथा युधिष्ठिरका शरीर त्यागकर दिव्य लोकको जाना
४- युधिष्ठिरका दिव्यलोकमें श्रीकृष्ण, अर्जुन आदिका दर्शन करना
५- भीष्म आदि वीरोंका अपने-अपने मूलस्वरूपमें मिलना और महाभारतका उपसंहार तथा माहात्म्य
१- महाभारत श्रवणविधि
२- महाभारत-माहात्म्य
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